थक गया हूँ इन घडों को ढ़ोते- ढ़ोते

एक पीपल के पेड़ का क्रंदन

रोजाना हो रही मौतों, लाशों के अंबार, बीमार लोगों और मौत के खौफ से जर्द चेहरों से उकता कर आज सुबह ही गंगा किनारे पीपल के पेड़ की छॉव में जा बैठा. सहसा किसी का करुण क्रन्दन कानों में पडा. लगा फिर किसी की लाश पर उसके प्रियजन रो रहे होंगे.

पिछले एक महीने से ये मौत, ये रोना, बड़ा सामान्य सा लगने लगा है. संभवतः अंतर्मन में संवेदना और निष्ठुरता के बीच द्वन्द सा चलता रहता है. संवेदना लोगों की मौत पर और निष्ठुरता महामारी में बीमारों की देखभाल ना कर संक्रमण के नाम पर अपनी जिम्मेदारी से भागने पर, तो लगा कि आज फिर कोई मरा है, कल फिर कोई और मरेगा, और फिर अभी तो सुबह हैं, पूरा दिन पढ़ा है, ना मौते रुकनी हैं ना लाशों की आमद, सो मैं इस द्वन्द की अवस्था में फिर अपनी चेतना को छोड़, शून्य में खोने लगा.

किंतु  नहीं, ये  रुदन की ध्वनि तो मेरे करीब से ही आ रही थीं, परन्तु मैं तो यहाँ अकेला हूँ. संभवतः ये मेरा भ्रम है. लेकिन सिसकियाँ अनवरत सुनाई देती रही. व्याकुलता में मैने पूछा, “कौन….., कौन है यहाँ?

आवाज़ आई, ” मैं……. जिसकी छाव में तुम बैठे, वो पीपल हूँ,”. “क्या हुआ? तुम रो क्यूँ रहें हो,” मैंने प्रश्न किया. उसने कहा, ” उसी भावना से जिससे तुम दुःखी लग रहे हो. मैंने कहा, “तुम……तुम तो वृक्ष हो. तुम कब से इंसानी भावनाएं महसूस करने लगे.” पीपल ने व्यंगात्मक भाव से उत्तर दिया, “इंसानी भावनाएं, अच्छा! ठीक याद दिलाया तुमने, तुम्हारा मन  इस दुःख में अवचेतन अवस्था में है, परन्तु मैं इस दुःख के साथ भी चैतन्य हूँ.

मैं तुम्हारी तरह इस प्रकृति का हिस्सा हूँ, पर तुम इंसानों जैसा नहीं हूँ. तुम सब अपनी लिप्सा में पूरी प्रकृति के ध्वंस पर तुले हो, जानवरों के प्रति तुम इंसान कितने क्रूर हो. जानते हो ये महामारी उन जानवरों की आत्मा के अंतरनाद से उपजा श्राप हैं. हम वृक्ष भी तुमलोगों की ये  सब क्रूरता सहकर भी तुम्हारे जीवन की रक्षा में लगें है.

नदियों को भी नहीं छोड़ा

अरे नदियाँ, जो तुमलोगो की गन्दगी ढ़ोते ढ़ोते थक गई थीं, उन्हें भी नहीं छोडा तुम इंसानों ने……तुमलोगों ने उन्हें भी लाशों से पाट दिया हैं. कभी क़भी तो लगता हैं कि तुम इंसानों का अस्तित्व इस पृथ्वी ही नहीं पूरे ब्रह्मांड लिए खतरा हैं.”

फिर वो चुप हो गया, एक अजीब सी ख़ामोशी वहाँ छा गई. सहसा पीपल की आवाज़ फिर गुंजी, लेकिन इस बार रोष के बज़ाय करुणा का भाव उसकी आवाज में व्याप्त था. उसने कातर स्वर में कहा, “जानते हो कभी सोमवती अमावस्या के दिन सुहाग की लंबी आयु के लिए औरतें मेरे तने में हल्दी में रंगा सूत लपेटती थीं, पर आज देखो मुज की रस्सी से सिर्फ घड़े बंधे हैं. इन धड़ो में लोग पानी डालने आते हैं, इस मान्यता के साथ कि इस पानी से मृतात्मा की प्यास बुझेगी, उसका तर्पण होगा. पर मैं……. मैं क्या करूँ?. मैं ना तो तृप्त हूँ और ना ही मेरी प्यास बुझी है. तुम इंसान तो अपने लोगो की लाशें शमशान में जलाते हो, संभव हो तो जलप्रवाह करते हो. मैं तो तुमलोगों के लिए जड़ हूँ ना, तो कोई ऐसा उपाय कर दो जिससे मेरा भी तर्पण हो जाए, कि इंसानों कि लाशों कि बदबू कि गंध कम हो जाए, कि इन घड़ों को समेटते – समेटते अवसाद में हूँ मैं, पर देखो ना लाशों की आमद ही नहीं रुक रही.तुम लोग तो मरते ही अपने लोगों की लाशें फेक कर चले जाते हो.पर मै,….. मैं तो इन मृतात्माओ की मुक्ति के उपाय में सहायक हूँ ना, मै इन घड़ो को कहाँ फेंक दूँ ? थक गया हूँ इन घड़ो को ढ़ोते ढ़ोते. क्या तुम मेरा बोझ बाँटोगे ?”

“अरे मैं तो इंसान हूँ….मैं कैसे………?”, मेरी आवाज़ थोड़ी लड़खड़ाई. पीपल के स्वर में फिर से व्यंग का भाव उभर आया, “हाँ याद आया इंसान, वही ना जो लाशों का कारोबार करते हैं, चुनाव के लिए आम लोगों को महामारी में झोंक देते हैं, रोग में तड़पते लोगों को सडक पर मरने के लिए छोड़ देते हैं,  अरे मरने के बाद भी इन लाशों के प्रति दया नहीं तुम्हारी सरकार में, इनकी मुक्ति तक बर्दास्त नहीं होती तुम्हारे प्रशासन से, परंपरा के विरुद्ध इन लाशों को जमीन खोद कर गाड़ने में लगे हो, असल में तुम अपनी ही नहीं इस समाज का चरित्र और  इंसानियत को दफ़नाने में लगे हो, और उससे भी स्वार्थ ना साधे तो लाशों के कफन तक उतार के बेच देते हो…. वही इंसान ना. अरे, किस तरह के लोग हो तुम, अपने लिए खाना -जीना तो जानवर भी करते हैं, तुमलोग उनसे कैसे भिन्न हो, बल्कि कई मामलों में उनसे भी निकृष्ट हो. वो तो अपना पेट भरकर खुश रहते हैं और अपनी जाति के शत्रु तो नहीं होते हैं, किंतु तुम्हारी तो लिप्सा ही नहीं मिटती. देखा मैंने, और आज कल तो रोज ही देखता हूँ, समाज के प्रति तुम्हारे सरकार और प्रशासन की क्रूरता.

चलो मान लिया मैंने कि तुम चैतन्य और मैं जड़ हूँ, पर जरा तुम इंसान अपनी चेतना का स्तर देखो, तुम्हारी चेतना तुम्हारे स्वार्थ से शुरू होकर समाज और प्रकृति के ध्वंस पर खत्म होती और इसमें तुम्हें अपनी बौद्धिकता, महानता  और ज्ञान- कौशल नज़र आता है. तुमलोग वो हो जो इस पृथ्वी और अपनी मानव जाति का विध्वंस स्वयं ही करोगे. ”

अब मैं चुप था.. ग्लानि और शर्मिंदगी के बोझ से झुका. पीपल ने धीरे से कहा….” जाओ, मैं ये बोझ झेल  लूंगा, पर तुम इंसानों की अंतरात्मा ये बोझ कैसे संभालेगी. जाओ और जाकर अपनी अंतरात्मा से साक्षात्कार करो.” ये कहकर वो खामोश हो गया और एक शून्य  मेरे भीतर छा  था.

मुझे एहसास हुआ की इस पीपल का दर्द मुझसे कही अधिक है, बल्कि वो हम इंसानों से कही अधिक संवेदनशील है. उसी संत्रास और मौन की पीड़ा के साथ मैं घर की ओर लौट गया. शायद मानवता की दशा और दिशा के प्रश्न से जूझते, उस पीपल की पीड़ा को आत्मसात करने की कोशिश में हूँ….. और आप………?????   

शिवेन्द्र प्रताप सिंह   

शोधार्थी- सामाजिक विज्ञान संकाय

वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, बिहार  E-mail – Shivendrasinghrana@gmail.com

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