कोविड काल : गंगा में तैरती लाशें सरकार से जवाब चाहती हैं

इस समय भारत कोविड संक्रमण से होने वाली मौतों से हलकान है. कई दिनों से दवाओं और ऑक्सीजन की किल्लत की खबरों से इतर अब एक नये प्रकार की सूचना ने दहशत फैला रखी है. यह खबर गंगा नदी में बड़ी मात्रा में तैरती लाशों के सम्बन्ध में है. उत्तराखंड से लेकर बिहार तक गंगा घाटों पर लाशों का अंबार लगा है. इससे जनता में बेचैनी है और सरकारी अमला इस मामले को दबाने में लगा है. सरकार इन्हे कोविड के कारण हुई मौतों का मामला और अंतिम संस्कार में अक्षम परिजनों से जोड़ कर देख रही है. इसके अतिरिक्त बिहार या उत्तर प्रदेश के स्थानीय प्रशासन द्वारा इसे बाहरी क्षेत्र का बताकर पल्ला झाड़ने की कोशिश की जा रही है.

गंगा में लाशों को किनारे लगाते मल्लाह

वे इन लाशों को जमीन में गड्डा खोद कर दबाने में लगे हैं. जबकि हिन्दू संस्कारों में जमीन में लाशें दफ़नाने की प्रथा नहीं है.   हालांकि ये सब इतना सरल नहीं जितना सरकार बताने की कोशिश कर रही है.

आमतौर पर उत्तर भारत में  हिन्दू समाज में अंतिम संस्कार दो प्रकार से होता है, मुखाग्नि देने के पश्चात जलप्रवाह द्वारा, दूसरा चिता पर रखकर दाह संस्कार.

इन दोनों स्थिति में लाशों से रोजमर्रा के वस्त्र उतार कर कफन पहनाया जाता है. किन्तु इन लावारिस लाशों को देखने पर मामला कुछ अलग दिखता है, कई लाशों के शरीर पर कपड़े हैं. जैसे एक पुरुष की लाश पर हरे रंग की टीशर्ट है, एक महिला की लाश के नीले रंग के कपड़े है, काफ़ी सारी लाशों पर कफन तक नहीं है और मुखाग्नि की प्रक्रिया तक नहीं की गई है .

अब या तो ये आपराधिक मामलें हो सकतें है अथवा हॉस्पिटल द्वारा इन्हें इलाज के दौरान मृत्यु के पश्चात सीधे ही गंगा में डंप किया जा रहा है. इसके अतिरिक्त गंगा नदी में इस समय कोई तीव्र प्रवाह नहीं है की लाशें दूरदराज इलाकों से बहकर आई हो. पूरी संभावना है की ये लाशें स्थानीय होंगी.

इन लाशों के विषय में जाँच  आवश्यक हैं. कुत्ते और सूअर इन लाशों को घसीट रहें हैं,गंगा किनारे का दृश्य डरावना हैं की लगता है, गरुड़ पुराण के दंड यथार्थ में परिणीत हो रहे हैं. गरुण पुराण हिन्दू धर्मशास्त्रों में एक विशेष ग्रन्थ माना जाता है, जो किसी मनुष्य की मृत्यु के पश्चात पारलौकिक जीवन में उसके कर्मो के अनुसार दांडिक विधान की विवेचना करता है. पता नहीं इस वक्तव्य में कितनी सत्यता है, किंतु हिंदुत्व की अलंबदार  वर्तमान सरकार इसे यथार्थ की तरह स्वीकार करती है, ऐसा लगता है. 

इन लाशों के विषय में जाँच  आवश्यक हैं. कुत्ते और सूअर इन लाशों को घसीट रहें हैं,गंगा किनारे का दृश्य इतना वीभत्स हैं की लगता है, गरुड़ पुराण के दंड यथार्थ में परिणीत हो रहे हैं. गरुण पुराण हिन्दू धर्मशास्त्रों में एक विशेष ग्रन्थ माना जाता है, जो किसी मनुष्य की मृत्यु के पश्चात पारलौकिक जीवन में उसके कर्मो के अनुसार दांडिक विधान की विवेचना करता है. पता नहीं इस वक्तव्य में कितनी सत्यता है, किंतु हिंदुत्व की अलंबदार  वर्तमान सरकार इसे यथार्थ की तरह स्वीकार करती है, ऐसा लगता है. 

इन सबके बीच सरकार जिस मासूमियत से वैश्विक महामारी और डबल म्यूटेट वायरस जैसी उच्च कोटि की ज्ञानवर्धक बातें कर रही है उससे वह अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकती. 

कुछ सार्थक प्रश्न हैं, जो सरकार और प्रशासन से उत्तर की मांग अवश्य करते हैं. प्रथमत:, जब ब्रिटेन, अमेरिका और अन्य यूरोप के देश नवंबर – दिसम्बर में तीसरी – चौथी लहर से जूझ रहे थे, तब सरकार ने ऑक्सीजन प्लांट, वैक्सीन आदि के सम्बन्ध में समय रहते क्यूँ नहीं चेती या वह तीव्रता क्यों नहीं दिखाई, जो आज दिखा रही है?

दूसरा, अगर आपने इन सभी सेवाओं के लिए प्रशासनिक अधिकारियों और विभिन्न विभागों को धन का आवंटन कर दिया गया था तो काम को तयशुदा समय पर पूरा ना करने तथा उनकी मॉनिटरिंग में हुई चूक के लिए जवाबदेही क्यूँ नहीं तय की गई ? 

तीसरा, देश की एक बड़ी आबादी, जिसे टीकाकरण की दरकार थी, के होते हुए वैक्सीन का विदेशों को निर्यात करना समझ के परे है. मार्निंग पोस्ट और न्यूयार्क टाइम्स सरीखे प्रतिष्ठित अखबारों ने इसे माननीय प्रधानमंत्री जी की और अदूरदर्शिता और बड़बोलापन मानकर कड़ी आलोचना की है. विदेश नीति की व्यावहारिकता तो समझ में आती है पर राष्ट्र की आबादी का जीवन को दांव पर लगाकर इसकी सार्थकता को सिद्ध करना अनुचित है. 

चौथा, स्वास्थ्य सेवाओं की औपचारिकता तो शहरी क्षेत्रों तक सीमित है, जबकि 70 फीसदी ग्रामीण आबादी को सरकार ने निराश्रित ही छोड़ दिया है. अगर सरकार ग्रामीण आबादी के लिए स्वास्थ्य सेवाओं के प्रबंधन में स्वयं को असमर्थ महसूस कर रही थी तो उसने प्राथमिक सुरक्षा के रूप में शुरुआती टीकाकरण को ग्रामीण क्षेत्रों पर ही केंद्रित क्यूँ नहीं किया ? 

पाँचवा, पहली लहर में जब परिस्थितियाँ कुछ कम विषम थी, तब सरकार ने पूर्ण लॉकडाउन लगाया. किंतु अब जबकि स्थिति विकराल हो चुकी है तब आंशिक लॉकडाउन और शराब के ठेके खुलवाने का क्या औचित्य है ? 

छठा, इस महामारी की अवस्था में विधानसभा चुनाव और पंचायत चुनाव के संचालक को रोकने का प्रयास क्यूँ नहीं किया गया ? बल्कि इसके बजाय महामारी की रोकथाम का प्रयास अधिक आवश्यक क्यूँ नहीं समझा गया ?

सरकार को इन प्रश्नों के उत्तर देने चाहिए अथवा इनके आधार पर स्वयं अपना मूल्यांकन करना चाहिए. मार्क ट्वेंन की उक्ति है, ” जब आप स्वयं को बहुमत के नजदीक पायें तो समझ जाइये की अब ठहर कर सोचने का समय आ गया है.” इतनी सारी मौतों से सरकार को मुक्त नहीं किया जा सकता.

वास्तव में कहीं ना कहीं शासन सत्ता को इन मौतों के लिए हत्याओं के अपराधी सरीखा मानना पड़ेगा.

लगातार दूसरी बार प्रचंड बहुमत से सत्ता में आई सरकार कहीं ना कहीं जमीनी यथार्थ से दूर होती जा रही है. सत्ता का मद संभाल पाना अत्यंत कठिन कार्य है. किंतु यह लोकतंत्र है राजतन्त्र नहीं. यहाँ शासन बहुमत के आधार पर नियत समय पर बदल जाता है. किसी को भी इस भुलावे में नहीं रहना चाहिए कि उसकी सत्ता स्थाई है. सरकार को समय रहते चेत जाना चाहिए.

शिवेन्द्र प्रताप सिंह , शोध छात्र इतिहास, ग़ाज़ी

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