मज़दूरी, रोज़गार और प्रवासी श्रमिक

मजदूरी और बेरोजगारी का संबंध

पिछले दिनों जम्मू कश्मीर में यूपी और बिहार के प्रवासी मजदूरों के साथ ​जिस तरह की आतंकी घटनाओं को अंजाम दिया गया, वह प्रवासी मजदूरों की बदहाली की कहानी बयां करता है. साथ ही मजदूरी, रोजगार और प्रवासी श्रमिकों के बीच के संबंधों को दर्शाता है.


प्रोफ़ेसर अजय तिवारी

साहित्य के लोग अपने दायरे से बाहर हद से हद राजनीति और इतिहास तक जाकर टीका-टिप्पणी करते हैं लेकिन अर्थशास्त्र, वाणिज्य, विज्ञान, खगोलशास्त्र आदि विषयों से दूर ही रहते हैं. यह प्रवृत्ति हिंदी के विकास में तो बाधक है ही, हमारे अपने मानसिक विकास में भी बाधक है.

इस वर्ष अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार तीन अमरीकी अर्थशास्त्रियों को मिला है. इनके नाम हैं: डेविड कार्ड, जॉश ऐंग्रिस्ट और गाइडो इम्बेन्स. घोषणा हुए कई दिन हो गये. हफ्ते भर के वायरस के बाद आज बेहतर हुआ तो सोचा कि इसपर संक्षिप्त बातचीत की जाय. संक्षिप्त इसलिए कि मैं अर्थशास्त्र का न विधिवत विद्यार्थी हूँ और न व्यवस्थित जानकार. इसलिए अपनी सामान्य धारणा ही व्यक्त कर सकता हूँ.

इन तीनों अर्थशास्त्रियों ने तथ्यों और आँकड़ों से एक ‘टूलकिट’ बनाया है— हालाँकि हमारे यहाँ ‘टूलकिट’ शब्द काफ़ी बदनाम है— और इस टूलकिट से यह प्रमाणित किया है कि मज़दूरी (Wages) बढ़ने पर रोज़गार (Employment) कम नहीं होता. यानि वेतन वृद्धि और रोज़गार कटौती में कोई कार्यकारण संबंध नहीं है. उनके इस शोध को ‘विश्वसनीयता क्रांति’ (Credibility Revolution) कहा जा रहा है.

मज़दूरी (Wages) बढ़ने पर रोज़गार (Employment) कम नहीं होता. यानि वेतन वृद्धि और रोज़गार कटौती में कोई कार्यकारण संबंध नहीं है. उनके इस शोध को ‘विश्वसनीयता क्रांति’ (Credibility Revolution) कहा जा रहा है.

विश्वसनीयता क्रांति का कारण यह है कि इन्होंने समांतर होने वाली घटनाओं को जोड़कर निष्कर्ष नहीं निकाला. जैसे, कुछ वर्षों से एक तरफ़ सेंसेक्स ऊँचाई पर जा रहा है, दूसरी तरफ़ पेट्रोल और गैस की क़ीमतें आसमान छू रही हैं. संयोग से दोनों परिघटनाएँ साथ साथ हो रही हैं, दोनों में कार्य-कारण संबंध नहीं है. एक के कारण दूसरी घटना हो रही है, इसे साबित करने के लिए न कोई प्रमाण है, न ठोस तर्क. जैसे, बहुत बार यह देखा जाता है कि सेंसेक्स या पेट्रोल-गैस की क़ीमतों में एक बढ़ता है, दूसरा स्थिर रहता है. (चूँकि क़ीमत घटते भारत में नहीं पाया जाता इसलिए ‘बढ़ने-घटने’ का मुहावरा नहीं बोला जा सकता.)

कार्य-कारण संबंध में यह अनिवार्य है कि एक के होने पर दूसरा होगा ही. और इन अर्थशास्त्रियों ने मज़दूरी और रोज़गार के बीच बनावटी कार्य-कारण संबंध बताने वाले सिद्धांतों की व्यर्थता सिद्ध कर दी है.

भारत में रोज़गार का अभाव और आम – आदमी की पीड़ा

जिस बात से इन्होंने अपना अध्ययन परिचालित किया, वह अमरीका और ब्रिटेन में प्रचलित यह धारणा है कि प्रवासी श्रमिकों के कारण लोगों की मज़दूरी कम हो जाती है क्योंकि बाहर से आने वाले मज़दूर सस्ते में काम करते हैं, इसका असर दूसरों की मज़दूरी पर नकारात्मक होता है. इसी आधार पर कहा गया कि अगर मज़दूरी बढ़ायी जायेगी तो रोज़गार कम मिलेगा. यानि बेरोज़गारी बढ़ेगी!!

वास्तव में यह 1990 के बाद बनी दुनिया में संसार के सबसे ताक़तवर देशों का सरकारी रवैया है, जो एक ओर प्रवासी श्रमिकों को रोकने के क़ानून बनाता है, दूसरी ओर आर्थिक समस्याओं को सुलझाने में अपनी असफलता का दोषी प्रवासी मज़दूरों को बनाकर जातीय और नस्ली भेदभाव/ हिंसा भड़काता है. अमरीका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, फ़्रांस वग़ैरह अनेक देशों में भारतीय प्रवासियों पर होने वाले हमलों को याद कीजिए, माजरा समझ में आ जायेगा.

बाहरी मजदूरों के आने से मज़दूरी गिरती नहीं बल्कि नये काम-धंधे पैदा होते हैं. यूरोप यात्रा के दौरान मैंने स्वयं देखा कि फुटपाथ की दुकानों से लेकर सड़क किनारे के तमाशे तक बहुत-से कामों से जीविका कमाने वाले हज़ारों की संख्या में एशियाई और अफ्रीकी प्रवासी हैं.

उक्त तीनों अर्थशास्त्रियों ने लंबे समय में विकसित ‘टूलकिट’ से— तथ्यों, पैटर्न्स और कार्यविधियों से जो सबसे महत्वपूर्ण बातें सिद्ध कीं, वे हैं:

1) बाहरी मजदूरों के आने से मज़दूरी गिरती नहीं बल्कि नये काम-धंधे पैदा होते हैं. यूरोप यात्रा के दौरान मैंने स्वयं देखा कि फुटपाथ की दुकानों से लेकर सड़क किनारे के तमाशे तक बहुत-से कामों से जीविका कमाने वाले हज़ारों की संख्या में एशियाई और अफ्रीकी प्रवासी हैं— भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, लंका, लेबनान, जमैका, नाइजीरिया इत्यादि से आये लोग. ये सभी ऐसे कार्य हैं, जिन्हें कोई यूरोपीय नहीं करता. इन कार्यों से सरकार के या कंपनियों के कार्य में वेतन बढ़ने या रोज़गार घटने का सवाल ही पैदा नहीं होता. ये सभी नये तरह के काम हैं.

नये रोज़गार और हुनर की कमी New Jobs &Skill Gaps

2) कामकाजी लोगों की मज़दूरी बढ़ाने से रोज़गार के अवसर कम होते हैं, यह धारणा भी भ्रामक है. रोज़गार का संबंध सरकारों और कंपनियों की नीतियों से है. कंपनियाँ काफ़ी ताकतवर हैं. वे संगठित क्षेत्र में/कार्यालय में रोज़गार सीमित रखने की नीति पर चलती हैं. सहयोगी कार्यकलाप में बड़े पैमाने पर रोज़गार क़ायम रखती हैं ताकि बेरोज़गारी विस्फोटक रूप न ले और मज़दूरी आम तौर पर नियंत्रित रहे. दुकानों में, पेट्रोल पंपों पर, ऐसी बहुत-सी जगहों पर काम करने वाले बड़ी संख्या में हैं. यह नियमित काम नहीं है. पर काम तो है. बेरोज़गारी भत्ता नहीं देना पड़ता. यह संगठित काम भी नहीं है इसलिए मज़दूरी का मोल-तोल करने की ताक़त नहीं है.

इन दोनों बातों से विकसित (पूँजीवादी) देशों की आर्थिक कार्यप्रणाली और सस्ती मज़दूरी के प्रति उनके रवैये का पूरा परिचय मिलता है. तीनों अर्थशास्त्रियों ने इन सरकारों के राजनीतिक रुख की परवाह न करते हुए ठोस प्रमाणों से जो निष्कर्ष निकाले, वे पूरी तरह विश्वसनीय हैं, कपोल कल्पना नहीं. इसीलिए उसे ‘विश्वसनीयता करां’ की संज्ञा दी गयी है. यदि ‘टूलकिट’ शब्द देखकर षड्यंत्र की बू न आये तो हम सबको भी इस शोध का लाभ उठाना चाहिए. यदि मेरी जगह अर्थशास्त्र के जानकार लोग सरल भाषा में इस काम की प्रामाणिक जानकारी प्रस्तुत करें तो हम सबका बहुत लाभ होगा.

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