विषाणु रूपान्तरण और आयुर्वेद चिकित्सा
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान हमेशा ही फ्लू को लेकर असमंजस में रहा है, जिसके कारण इसके टीके और दवायें निश्चित करना एक कठिन कार्य बन गया। वर्तमान में भी लगभग यही स्थिति बन गयी है।
इस समय पूरी दुनिया में नये फ्लू वायरस कोरोना कोविड रूपान्तरण (Virus Variation) के संक्रमण का खतरा बना हुआ है। प्राप्त सूचनाओं के अनुसार अभी तक यह 20 देशों में फैल चुका है। दरअसल, यह कोई नयी घटना नहीं है। महामारियों के इतिहास के अनुसार 1510 ई. से फ्लू महामारी के रूप में फैलता रहा है, जो क्रमशः 1847-48, 1889-90-91-92, 1918-19, 1957, 1966, 1970 में रूपान्तर के साथ संक्रामक बनता रहा जिसके लक्षण कुछ बदलवों के साथ लगभग एक जैसे रहे। इसके संक्रमण में सर्दी, जुकाम, थकान, दर्द, भारीपन, स्वादहीनता, थकावट व बुखार होता देखा गया। यह संक्रमण सामान्यतः 3 से 7 दिन का होता था। जिसमें नाक से संक्रमित होकर फेंफड़ों तक पहुँचने से गंभीर स्थिति उत्पन्न हो जाती थी, इस स्थिति में बहुत सारे लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा। आज लगभग यही लक्षण और स्थिति पायी जा रही है।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सर्वप्रथम 1933 ई. में इंग्लैण्ड के वैज्ञानिक एन्ड्रू और स्मिथ ने फ्लू महामारी का कारण एक वायरस को बताया। आगे चलकर इसके तीन प्रकार ए, बी, सी की पहचान गयी। इस क्रम में ए-1, ए-2, ए-3 तथा बी-1, बी-2, बी-3 की पहचान हुई। यह भी देखा गया कि एक साल में इसकी संरचना में कई बार परिवर्तन हुए, जो पहले अधिक खतरनाक सिद्ध हुए। इस विध्वंस का कारण इसकी संरचना में परिवर्तन को बताया गया। इस परिवर्तन के कारण ही इसके लिए निर्मित वैक्सीन और दवायें असफल साबित हुईं। इसीलिए आधुनिक चिकित्सा विज्ञान हमेशा ही फ्लू को लेकर असमंजस में रहा है, जिसके कारण इसके टीके और दवायें निश्चित करना एक कठिन कार्य बन गया। वर्तमान में भी लगभग यही स्थिति बन गयी है।
सन् 2020 ई. में महामारी के रूप में फैले कोरोना कोविड अर्थात सार्स कोवि-2 के अभी तक तीन रूपान्तरण बीटा, डेल्टा और ओमीक्रॉन की पहचान की गयी है। जिसमें ओमीक्रॉन को सबसे तेजी से फैलने वाला बताया जा रहा है, परन्तु इसके खतरे या मारकता पर अभी अनिश्चितता बनी हुई है। इन दो सालों मे कोरोना कोविड के स्पाईक प्रोटीन में 50 से अधिक बदलाव पाये गये हैं, जो आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के लिए एक कठिन चुनौती बना हुआ है। इसके संरचनात्मक बदलाओं के कारण वैक्सीन के प्रति भी आशंका बनी हुई है, जो फ्लू महामारी की पुरानी चुनौती है।
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के इस कठिन चुनौतीपूर्ण फ्लू महामारी को प्राचीन भारतीय चिकित्सा विज्ञान आयुर्वेद की दृष्टि से देखें तो इसके लक्षणों और विकारों वाले रोग को वात-श्लेष्म ज्वर कहा गया है। आश्चर्यजनक रूप में अभी तक फ्लू वायरस के जितने भी रूपान्तरण के लक्षण हुए और हो रहे हैं, वे सभी आयुर्वेद ग्रंथों में वर्णित वात-श्लेष्म ज्वर के लक्षणों से मिलते हैं। इसी आधार पर उसकी चिकित्सा के लिए औषधि योग भी हैं। इससे भी आश्चर्यजनक यह है कि ये योग आज भी पूर्णतः प्रभावी है, जो पिछले दो सालों के संक्रमणकाल में सिद्ध हो चुका है, परन्तु यह खेदजनक है कि महामारी नियंत्रण के वैश्विक प्रोटोकाल के कारण इसका व्यापक प्रयोग नहीं किया जा सका है।
आयुर्वेद के अनुसार किसी भी रोग में देश-काल और रोगी के बलाबल (व्यक्ति के स्वास्थ्य एवं रोगप्रतिरोधक क्षमता Immunity) के अनुसार रोग के लक्षण, विकृति का प्रभाव होता है। इस सूत्र के अनुसार रोग के लक्षण, प्रभाव और तकलीफ अलग-अलग होते हैं, अर्थात बदलते रहते हैं।
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में इस बदलाव का कारण रोगकारक विषाणु रूपान्तरण (Virus Variation) माना जाता है। परन्तु आयुर्वेद में देश-काल और रोगी के बलाबल के अनुसार बदलाव के बावजूद विकृति और दोष (वात-पित्त-कफ) एक होते हैं। ऐसी स्थिति में आयुर्वेद में लक्षणों और विकृति के साथ दोष की चिकित्सा भी की जाती है। इसलिए विषाणु रुपान्तरण (Virus Variation) की स्थिति में भी सफल चिकित्सा संभव होती है।
वर्तमान के कोरोना कोविड (सार्स कोवि-2) के रुपान्तरण (Variation) को इससे अलग नहीं देखा जा सकता है। आयुर्वेद के अनुसार इसके लक्षण-विकृति और दोष, वातश्लेमिक ज्वर के हैं। इसी आधार पर इसकी सफल चिकित्सा संभव है, जो पिछले सालों में प्रमाणित हो चुका है।
ऐसे रोगों में किसी दूसरे व्यक्ति से इस रोग के बाह्य विष (Virus) का संक्रमण हो जाने पर श्लेष्म तत्व या कफ धातु के प्रकुपित होने से प्रतिश्याय (Influenza), कास (खाँसी) अन्न के प्रति अरुचि, तंद्रा, आलस्य, थकावट आदि के लक्षण होते हैं।
इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि आयुर्वेद ग्रंथों में ज्वर का एक बड़ा अध्याय है। जिसमें मुख्यतः वातज ज्वर, पित्तज ज्वर, कफज ज्वर प्रमुख है, इसके पश्चात संयुक्त दोष जैसे वात-पित्तज, वात-कफज ज्वर आदि हैं। कोरोना महामारी के विषाणु संक्रमण के लक्षण वातकफज (वातश्लेमज) ज्वर के हैं। जिसके लक्षण शरीर के गीले कपड़े से ढ़के होने जैसा आभास होना, संधियों में पीड़ा, नींद आना, शरीर में भारीपन, सिर में जकड़ाहट, सर्दी-जुकाम, नाक से पानी आना, नाक व गले में खुजली जैसे महसूस होना, खाँसी, पसीना आना, शरीर का मध्यम ताप (100 से 102 डिग्री) आदि होता है। इन लक्षणों के अन्तर्गत इन्फ्लूएंजा के सभी रुपान्तरण-बीटा, डेल्टा, ओमीक्रान (Variant) आ जाते हैं।
कफ धातु के सबल (Immunity) होने पर बाह्य विष (Virus) का प्रभाव 3 से 7 दिन में नष्ट होता जाता है, जिससे रोग शान्त हो जाता है। परन्तु कफ धातु के निर्बल होने से वात के दूषित होने पर रोग बढ़ जाता है, प्राण तत्वहीन हो जाता है, हाथ-पाँव, मांसपेशियों में पीड़ा के अतिरिक्त हृदय व फेंफड़े प्रभावित होने लगते हैं, श्वास लेने में कष्ट होने लगता है। इस स्थिति में उचित चिकित्सा न होने पर पित्त का प्रकोप भी हो जाता है, जिससे पाक होकर पूय भाव (Inflammation) हो जाता है। रोगी को श्वास लेने में कठिनाई होने लगती है। रोग गंभीर स्थिति में पहुँच जाता है। इसे त्रिदोषज प्रतिश्यायिक ज्वर कहते है क्योंकि वात-कफ के साथ पित्त दोष भी कुपित हो जाता है। यहाँ रोग की स्थिति रोगी के देश-काल (वास स्थान, जीवनशैली, पेशा) व बल-अबल पर निर्भर करती है। किसी रोगी में उपरोक्त सारे लक्षण आवश्यक नहीं होते हैं, ये बदलते रहते हैं, इस स्थिति में लक्षणों के साथ दोषों (वात-पित्त-कफ) की चिकित्सा की जाती है।रोगी के बल संरक्षण (Immunity) के लिए रसायन चिकित्सा (व्याधिक्षमत्व या रोगप्रतिरोधक शक्ति को बढ़ने वाली) की जाती है।
आयुर्वेद में त्वरित चिकित्सा (Emergency) के लिए रस-भस्मों (Herbo mineral) औषधि योग है। जो प्रत्येक स्थिति को शीघ्र नियंत्रित करने में सक्षम होती हैं।
वातश्वेष्म ज्वर चिकित्सा के लिए पंचकोलक्वाथ, वृहद् पिप्लादि क्वाथ, वचादिक्वाथ, त्रिभुवन कीर्तिरस, लक्ष्मीविलास रस, गोदंती भस्म, टंकड़ भस्म, अभ्रक भस्म, ज्वरसंहार रस, श्रृंगभस्म, वातश्लेष्मांतकरस, श्वासकुठार रस, श्वासकासचिंतामणिरस आदि अनेक दवायें स्थिति के अनुसार प्रयोग करके हर स्थिति को नियंत्रण की जा सकती है।
संक्रमण से बचने के लिए कफधातु को सबल (Immunity) बनाये रखने के लिए लक्ष्मीविलासरस, संजीवनीवटी, त्रिकटुचूर्ण, वासात्रिकटु, गिलोय-त्रिकटु, मधुयष्टि-असगंधा, रससिन्दूर औषिधियों का एकल या संयुक्त प्रयोग प्रभावी होता है। ऋतुसंधिकाल में वातश्लेष्म ज्वर की अधिकतम संभावना होती है। इसलिए इसे यमदंष्ट्रा काल कहा गया है।इस काल में रसायन चिकित्सा का सेवन कर, ऐसे संक्रमण से बचाव संभव है। आयुर्वेद की उपरोक्त चिकित्सा योग्य आयुर्वेद चिकित्सक के परामर्श से ही लेनी चाहिए। क्योंकि औषधि प्रयोग रोगी और रोग की स्थिति के अनुसार करने पर ही पूर्ण लाभ होता है, जो एक योग्य चिकित्सक ही कर सकता है।
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कोविड के नये वैरियंट ओमीक्रॉन को लेकर भारत सरकार को वैश्विक प्रोटोकॉल के बजाय अपना राष्ट्रीय प्रोटोकॉल बनाना चाहिए, जिसमें आधुनिक चिकित्सा के साथ आयुर्वेद को शामिल कर आसानी से इस महामारी पर नियंत्रण पाकर अफरा-तफरी से बचा जा सकता है।
(*डॉ.आर.अचल ईस्टर्न साइंटिस्ट शोध पत्रिका के मुख्य संपादक, वर्ल्ड आयुर्वेद कांग्रेस के संयोजक सदस्य, लेखक और विचारक हैं।)