भई, बड़े काम की चीज़ होती है जीभी

Mahesh Chandra dwivedi writer
महेश चंद्र द्विवेदी

भई, बड़े काम की चीज़ होती है जीभी। हालंकि उस छोटी सी चीज़ की क़द्र हम कम ही करते हैं। पर अगर एक दिन न मिले, तो सारा दिन ऐसा नागवार गुज़रता है जैसे सबेरे-सबेरे ख़ालाजान (मौसी) को दफ़नाकर लौटने की वजह से मुंह का ज़ायका बिगड़ा-बिगड़ा हो। ग़ुस्लखाने में दांतों के बुरुश (ब्रश) के साथ रखी जाने वाली स्टील की पत्तर, जो बीच में पैराबोला (अनुवृत्त) की शक्ल में मोड़ दी जाती है और दांत साफ़ करने के बाद जीभ साफ़ करने के काम आती है, को जीभी कहते हैं। हां, अगर लोहे की जगह प्लास्टिक की बनी हो तो अमूमन सीधी रहती है, लेकिन जीभ को खरोंचते (साफ़ करते) वक़्त वह भी पैराबोला की शक्ल में मोड़ दी जाती है। दांतों पर बुरुश करने के बाद जीभी से दो-तीन बार जीभ को खरोंच दिया जाता है जिससे दिन भर मुंह साफ़ होने और मन चुस्त-मस्त होने का अहसास कायम रहता है।

             बचपन में मेरे गांव में इस जीभी का मुंह को चुस्त-मस्त रखने वाला मज़ा   रईसज़ादों को ही मिल पाता था। उन दिनो प्लास्टिक वाली जीभी बनती नहीं थी और चांदी या ताम्बे वाली जीभी आम आदमी के बस की बात नहीं होती थी। पर आम हिंदुस्तानी तब भी जीभ साफ़ करता था- वह दांत साफ़ करने के लिये नीम, बबूल या मौलश्री की टहनी तोड़कर दातून बनाता था और दांतों की भरपूर रग़ड़ाई के बाद उसे बीच से फाड़ देता था। इससे उसके पास एक की जगह दो जीभी हासिल हो जातीं थीं।

              उन दिनों हमारे मुल्क में अंग्रेज़ों का राज था। वे हम हिंदुस्तानियों की बनिस्बत बड़े गोरे-चिट्टे होते थे और टिनोपाल (कलफ़) की हुई साहबी पोशाक में रहते थे। तभी से मेरे मन में यह बात घर कर गई थी कि अंग्रेज़ हमसे कहीं ज़्यादा सफ़ाईपसंद होते हैं। इसलिये ईसवी सन 1982 में जब मैं एक साल के लिये लंदन गया, तो सिर्फ़ एक प्लास्टिक की जीभी ले गया था। सोचा था कि सस्ती सी चीज़ है, उसका बोझा क्यों बढ़ायें; टूट जाने पर दूसरी ख़रीद लेंगे। वहां वह जीभी एक महीने के अंदर ही एक सुबह इस्तेमाल करते वक़्त एक से दो हो गई। एक तिहाई बायें हाथ में रह गई और दो तिहाई दायें हाथ में आ गई। एक तिहाई वाले हिस्से को कूड़ादान में फेंककर जब मैंने दो तिहाई वाले हिस्से से दूसरी बार जीभ को खरोंचने की कोशिश की, तो वह हिस्सा फिर आधा-आधा तकसीम (बंट) हो गया। ख़ैर, उस वक़्त मैने उस एक तिहाई हिस्से से काम चला लिया। 

               दोपहर में बाज़ार को निकला। एक डिपार्टमेंटल स्टोर में घुसकर मंजन-बुरुश वाले हिस्से में जीभी तलाशने लगा। वहां इतने तरह के मंजन-बुरुश रखे थे कि सिर चकरा जाये, पर जीभी या उस जैसी किसी चीज़ का नामोनिशां न मिला। हारकर मैंने सेल्समैन से पूछा,

                 “आई वांट ए टंग क्लीनर”।

              वह भकुए सा मुंह बनाकर मुझे देखता रहा, तब मैंने अपनी मांग दुहराई। वह फिर भी न समझा और बोला,

                 “वी डोंट सेल ऐनी सच थिंग”।

              मैं उस स्टोर से निकलकर जनरल मर्चेंट की एक छोटी दूकान पर गया। उससे टंग क्लीनर की मांग की। उसने मेरी बात समझने के लिये सवाल किया,

                 “व्हाट इज़ इट यूज़्ड फौर?”। 

               मैंने उत्तर दिया, “टु क्लीन द टंग”।

               यह सुनकर वह हंसने लगा। हंसी रुकने पर बोला,  

                  “व्हाई डू यू नीड टु क्लीन द टंग? यू विल नौट फ़ाइंड ऐनी सच थिंग ऐनीव्हेयर इन इंग्लैंड। वी ब्रश द टीथ, नौट द टंग।“

               तब मुझे पता चला कि ज़रूरी नहीं है गोरे दिखने वाले लोग जीभ को भी गोरा रखते हो। 

               अगले दो महीने मैंने जीभी के बचे हुए दो-ढाई इंच के टुकड़े से सम्भाल-सम्भाल कर जीभ को खरोंच कर बिताये। पर मन से यह शक दूर नहीं होता था कि जीभ ठीक से साफ़ नहीं हुई है और दिन में किसी भी वक़्त मुझे ख़ालाजान को दफ़नाकर लौटने वाला अहसास होने लगता था। दो महीने बाद जब मेरी शरीक़े-हयात हिंदुस्तान से लंदन तशरीफ लाईं, तब पूरे एक दर्जन जीभी उनसे मंगाकर दिल को तसल्ली हुई। 

टिप्पणी- जनाब! मेरे इस जीभी के तजुर्बे को इंग्लैंड के आज के हालात के तराजू पर न तौलें। आज तो इंग्लैंड में पूजा के लिये गंगाजल या गोबर भी मिल सकता है। मैं जब की बात कर रहा हूं, तब इंग्लैंड में इतनी अंग्रेज़ियत थी कि केमिस्ट ने बिना डाक्टर के प्रेस्क्रिप्शन के विटामिन सी की गोलियां भी देने से मुझे मना कर दिया था।   

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