Swami Vivekananda Jayanti: समाजवादी विचार- यात्रा के विलक्षण पथिक- विवेकानंद

Swami Vivekananda Jayanti: स्वामी विवेकानंद ने बंगाल में आए प्लेग से निपटने के लिए 1899 ऐतिहासिक प्लेग घोषणापत्र के नाम से तैयार किया था.

Swami Vivekananda Jayanti : समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व जैसे समाजवादी, मानवीय मूल्यों की संवाहक नवजागरण की उन्नीसवीं सदी जिन प्रतिभाओं के बूते पर दाखिल हुई उनमें विवेकानंद अन्यतम है। अंग्रेजों की राजनीतिक गुलामी, पौराणिक वितंडावाद और सामंती परंपरा से विवेकानंद (Swami Vivekananda ) अपने प्रगतिशील एवं वैज्ञानिक ज्ञान- बोध के बल पर टकराव मोल लेते हैं। इस टकराव में उनके सामने सबसे बड़ा सवाल देश के स्वाभिमान का था। वह अपनी परंपरा, इतिहास और स्मृतियों से उर्जा बटोरते हुए वैचारिक ,राजनीतिक गुलामी की काली रात को समाप्त कर स्वराज्य का सवेरा लाने में जुटे थे। शोषित ,वंचित, पीड़ित एवं हाशिए की जनता विशेषकर किसान, मेहनतकश वर्ग,दलित और आधी आबादी उनके चिंतन एवं चिंता के केंद्र में रहे।

आज जब उदारवाद द्वारा स्थापित बाजार का मुनाफाखोर तंत्र और सामंती सोच वाला अधिकार संपन्न विशिष्ट वर्ग अपनी पूरी ताकत से लोकतांत्रिक मूल्यों, कल्याणकारी प्रक्रिया को चुनौती दे रहे हैं ,तब विवेकानंद शोषित, पीड़ित ,वंचित जनता को अपने उज्जवल भविष्य के लिए वर्तमान की शोषक शक्तियों से मुठभेड़ की प्रेरणा और ऊर्जा दे रहे हैं। करुणा की मानवीय गहराइयों से अभिभूत होकर महान भारतीय सुधारकों एवं चिंतकों -गौतम बुद्ध कबीर, नानक, नामदेव , राजा राममोहन राय , ज्योतिबा फुले, श्री नारायण गुरु आदि ने समान रूप से धार्मिक पाखंड, वर्ण -भेद एवं लिंग-भेद को खारिज करते हुए सामाजिक समता की शिक्षा दी। उनकी शिक्षाओं एवं प्रगतिशील उपदेशों में समाजवादी दर्शन के बुनियादी तत्व परिलक्षित होते हैं।लेकिन विवेकानंद के यहां शोषितों के प्रति वैचारिक सहानुभूति से एक कदम आगे बढ़कर समतावादी समाज को यथार्थ में मूर्त रूप देने की तड़प भी है।

उन्होंने समानता को केवल नैतिक बंधनों पर आश्रित न बनाकर उसे वैधानिक एवं संस्थागत शक्ल में ठोस रूप देने का भगीरथ प्रयास किया। वर्ण विभाजित समाज में दलितों की दयनीय दशा बनाने वाली परंपरा पर विवेकानंद ने तीखा हमला किया। उन्होंने उन्होंने वेदांत दर्शन का उदाहरण देकर सभी जीव में एक ही ईश्वर के अंश की बात कहकर जातिभेद के वैचारिक आधार पर हमला किया। कबीर की तरह विवेकानंद ने भी दलितों एवं निर्धनों को आध्यात्मिक एवं मनोवैज्ञानिक संबल देते हुए ‘दरिद्र नारायण’ की संकल्पना पेश की। जाहिर है कबीर ने भी दीनता का तिरस्कार करने वाली परंपरागत सोच को अस्वीकार करते हुए उसे देवत्व की भूमि पर प्रतिष्ठित किया- ‘भली बिचारी दीनता नरहु देवता होय’। दरिद्र नारायण’ की इसी संकल्पना को बाद में महात्मा गांधी ने अपनी ऐतिहासिक हरिजन- यात्रा के द्वारा लोकप्रिय बनाया। विवेकानंद ने मानव मुक्ति के लिए उपासना ,तप ,साधना का क्षेत्र विस्तृत करते हुए उसे मानव सेवा से जोड़ दिया। उनके द्वारा स्थापित रामकृष्ण मिशन आदि संस्थाएं आज भी चिकित्सा , शिक्षा एवं आपातकाल में राहत- पुनर्वास के स्तर पर मानव सेवा का सराहनीय कार्य कर रही है। निश्चित रूप से दरिद्र नारायण की संकल्पना और मानव सेवा को उपासना के स्तर पर स्थापित करना विवेकानंद के तारीखी सफरनामे का समाजवादी हासिल है। लोक सरोकार का भाव जागृत करने वाली शिक्षा , सर्वधर्म समभाव और पंथनिरपेक्षता जैसी स्थापनाएं उनके प्रगतिशील चिंतन के स्मारक हैं। विवेकानंद मानते थे ,कि शिक्षा का मतलब सूचनाएं एकत्र करना नहीं है ,अगर सूचनाएं ही शिक्षा होती तो पुस्तकालय ही संत हो जाते। हमारी शिक्षा जीवन निर्माण, व्यक्ति निर्माण और चरित्र निर्माण पर आधारित होनी चाहिए।

शिक्षा पर अपने विचार क्रम में विवेकानंद ने शिक्षितों और मध्यवर्ग पर रोशनी डाली उनकी मान्यता थी कि जिन्हें सर्वोत्तम शिक्षा ,सर्वोत्तम मानसिक शक्तियां मिली हैं। उन पर समाज के प्रति उतनी ही जिम्मेदारी है ।जब तक करोड़ों लोग भूखे और वंचित हैं और इसी वंचित वर्ग के त्याग से शिक्षा हासिल करने वाला मध्यवर्ग इन वंचितों के प्रति अपनी अनिवार्य सामाजिक भूमिका के स्तर पर तटस्थ है ,तो वह अपराधी है। इसी क्रम में उन्होंने मध्यवर्गीय अवसरवादिता को भी सार्वजनिक किया । उनका कहना था कि शिक्षित वर्ग की योग्यता, दक्षता की आकर्षक कीमत देकर व्यवस्था इन्हें खरीद लेती है और यह वर्ग उस जनविरोधी तंत्र का आज्ञाकारी पुर्जा बन जाता है। फिर तटस्थता का सुविधाजनक तर्क गढ़ लेता है। लोक सरोकार से दूर हो चुके अभिजात्य वर्ग और मध्य वर्ग को उन्होंने देश और समाज पर एक बोझ घोषित किया । भारत का भावी उत्थान को दलित, पिछड़े और आधी आबादी की जिजीविषा , कर्मशीलता में ही देखा।

वेदांत दर्शन में निष्ठा रखने वाले विवेकानंद हिंदू धर्म में साम‌यिक सुधार के पक्षधर थे। उन्होंने हिंदुओं में आत्म -सम्मान का भाव जागृत करने का प्रयास भी किया, किंतु उनका हिंदुओं का सशक्तिकरण इस्लाम के खिलाफ नहीं था। शिकागो के प्रसिद्ध विश्व धर्म सम्मेलन1893 में उन्होंने अपने ऐतिहासिक भाषण में भारत की प्राचीन संस्कृति का गौरवगान किया। उन्होंने कहा हम सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं। इसी युवा संत ने भारतीय असहिष्णुता की उद्घोषणा करते हुए कहा कि ‘मैं गर्व करता हूं कि मैं एक ऐसे देश से हूं, जिसमें इस धरती के सभी देशों और धर्मों से परेशान और सताए लोगों को शरण दी है।’ अमेरिका यूरोप के ईसाई बहुल देशों में दौरा करते हुए उन्होंने कहीं भी सांप्रदायिक भाषण नहीं किया।समकालीन विमर्श का शायद ही कोई विषय हो जिस पर भारत के प्रति निर्मम ममता रखने वाले इस युवा सन्यासी ने विचार न किया हो।

कदाचित इन्हीं संदर्भों में रविंद्रनाथ टैगोर ने कहा था कि ‘यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद को पढ़िए! आज जब समूचा विश्व कोरोना महामारी से भयग्रस्त है, तब हमें ऐसे सबक को याद करना चाहिए जिनके बूते अतीत में मनुष्य ने संकट के ऐसे दिनों में न सिर्फ खुद को संभाला बल्कि सेवा और सहयोग का अमिट शिलालेख भी लिखा। ऐसा ही अभिलेख युवा सन्यासी स्वामी विवेकानंद ने बंगाल में आए प्लेग से निपटने के लिए 1899 ऐतिहासिक प्लेग घोषणापत्र के नाम से तैयार किया था, जो आज हमारे लिए कोरोना त्रासदी से बाहर निकलने के लिए ब्लूप्रिंट साबित हो सकता है। भारत की आत्मा से साक्षात्कार करने वाले इस युवा संत ने एक बार कहा था कि ‘मैं जो देकर जा रहा हूं वह हजार सालों की खुराक है ,लेकिन जब आप उनके बारे में और अध्ययन करते हैं तो लगता है कि यह खुराक सिर्फ हजार सालों की नहीं है बल्कि उससे भी आगे की है।

लेखक: जय प्रकाश पांडेय

Leave a Reply

Your email address will not be published.

four + 5 =

Related Articles

Back to top button