मन को देह से अलग पहचानें

आज का वेद चिंतन विचार

संत विनोबा ईशावास्य उपनिषद अंश मंत्र आठ का अवशेष भाग बताते हुए कहते हैं कि कहने का तात्पर्य है कि ये सारी अनुभूतियां हमें आनी चाहिए। हमको महसूस होना चाहिए कि हम देह से, उसके गुण-दोषों से अलग हैं। उसी तरह मन से भी अपना अलगाव पहचानना चाहिए।

अपापविद्वम से यह सूचित होता है। पाप का स्पर्श मन को होता है। जैसे हम घड़ी से अलग हैं, उसे चाभी देते हैं, आगे पीछे करते हैं।

हमने समझ लिया है कि घड़ी हम से बिल्कुल अलग है, वैसे ही मन को भी अपने से अलग पहचानना चाहिए।

इस तरह से जिसने अपने को शरीर, मन, बुद्धि आदि से अलग पहचान लिया और अपने को उन सबका मालिक जान लिया, उस मनुष्य का वर्णन किन शब्दों में किया जा सकता है।

हमारी गलत धारणा रहती है कि शरीर आदि मजबूत बना तो हम सामर्थ्यवान बने। मन को अच्छी तालीम दी तो मन सुसंस्कृत हो गया और बुद्धि को विकसित किया तो ज्ञानी बन गये।

परंतु उपनिषद कहता है कि इससे हम सामर्थ्यवान नहीं बनते। शरीर, मन, बुद्धि से हम अलग हैं। इंद्रियाँ तेजस्वी , प्रखर बनी तो हमें समाधान नहीं होता।

शरीर आरोग्य वान , स्वस्थ रहा तो उतने से हमें समाधान नहीं होता। बुद्धिमत्ता बहुत बढ़ गयी तो उसे भी समाधान नहीं होता।

समाधान तो तब होता है जब हम अपने को इन सबसे अलग पहचानते हैं और दूसरों को भी शरीर आदि से अलग पहचानते हैं।

आगे ऋषि ने कविर् मनीषी शब्दों द्वारा आत्मवान मनुष्य के सामर्थ्य का वर्णन किया है ।

कवि 1 – मनका स्वामी, 2 – विश्व – प्रेम से भरा हुआ , 3 – आत्म निष्ठ , 4 – यथार्थ भाषी और 5 – शाश्वत कॉल पर दृष्टि रखने वाला होता है ।

मंत्र के मनन के लिए निम्नलिखित अर्थ सुझाता हूं – 1 – मन का स्वामित्व – ब्रह्मचर्य , 2 – विश्व प्रेम- अहिंसा 3 – आत्मनिष्ठता – अस्तेय , 4 – यथार्थ भाषित्व – सत्य, 5 – शाश्वत काल पर दृष्टि – अपरिग्रह।

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