आत्मतत्व : अज्ञानी के लिए दूर, ज्ञानी के लिए पास

आज का वेद चिंतन

आत्मतत्व
प्रस्तुति : रमेश भैया

आत्मतत्व के बारे में बताते हुए संत विनोबा ईशावास्य उपनिषद का पांचवा मंत्र पढ़ते हैं –  

तदेजति तन्नेजति तद्दूरे तदु  अन्तिके तद् अंतरस्य सर्वस्य तदु  सर्वस्यास्य बाह्यत:                           

विनोबा कहते हैं कि मंत्र 4 से आत्मतत्व का वर्णन चल रहा है। तद एजति – वह हलचल करता है, तत् न एजति – वह हलचल नहीं भी करता है।

हलचल करने वाले जो प्राणी हैं उसमें भी वह है और हलचल न करने वाले, जड़ तत्व में भी वह है।

तद दूरे तत् उ अंतिके – वह दूर भी और नजदीक भी है। तद अंतरस्य सर्वस्य वह सबके अंदर है। तद् उ        सर्वस्य अस्य बाह्यत: – और वह सब के बाहर भी है।

गीता के 13 वें अध्याय में इसी अर्थ का श्लोक है ।                 

बहिरन्तश्च भूतानाम  अचरम चरमेव च  सूक्समतवात्  तद् विज्ञेयम दूरस्थम चान्तिके च तत्

– वह भूतों के अंदर भी है और बाहर भी है। वह अचर भी है और चर् भी है। वह दूर भी है नजदीक भी है। वह इतना व्यापक होने पर भी क्यों नहीं मालूम होता है?

 तो कहते हैं कि वह सूक्ष्म होने के कारण अविज्ञेय है।

अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत, भावाद्वैत आदि दर्शन की भिन्न भिन्न शाखाएँ हैं। हर एक अपनी दृष्टि से इसका अर्थ बैठाते हैं।

शंकराचार्य का अर्थ है कि अज्ञानी के लिए वह दूर है, ज्ञानी के लिए नजदीक है। शतसहस्त्र करोड़ वर्ष भी खर्च हो जाएं तो भी अज्ञानी को वह प्राप्त नहीं होगा, इतना वह दूर है।

और ज्ञानी के लिए इतना नजदीक है कि वह उनका अपना रूप ही है। उसे एक इंच भी दूर जाने की जरूरत नहीं।

ज्ञानदेव कहते हैं कि वह दूर भी है और नजदीक भी है यानी सबदूर फैला हुआ है। वह अत्यंत व्यापक है। रामानुजाचार्य कहते हैं कि दैवी संपत्ति के गुण जिनमें हैं उनके लिए वह नजदीक है और आसुरी संपत्तिवालों के लिए वह दूर है।

वल्लभाचार्य भक्तिमार्गी हैं तो वे आत्मा की बात नहीं करते भक्त की करते हैं। वे कहते हैं भक्तों के लिए वह अत्यंत निकट है और जो लोग बहिर्मुख होते हैं, उनके लिए दूर है।                          शंकरानंदी कहते हैं कि जिसका हृदय मलिन है, वह कितना भी वेदांत पढ़े, उसके लिए वह दूर ही  है। श्रीधर भी यही कहते हैं कि केशव काश्मीरी, मधुसूदन की टीका रामानुज  वत् ही है।

राघवानंद आदि मध्य संप्रदाय के आचार्यों का कहना ज्ञानदेव के अनुकूल है। वे कहते हैं – वह दूर भी है, और नजदीक भी है। क्योंकि व्यापक है।

इस प्रकार दो मुख्य अर्थ हुए – 1 -;ज्ञान और अज्ञान के कारण वह भिन्न-भिन्न दिखता है।

2 – वह सबदूर है, व्यापक है। हम तीसरा अर्थ निकालना चाहते हैं- वह इतना व्यापक है कि उसकी व्याप्ति का वर्णन करने में एकांगी वचन काम में नहीं आएगा। उभय-वचन कहना पड़ेगा।

गीता में कहा है- सद् असद चाहम् अर्जुन  – हे अर्जुन, मैं हूं भी और नहीं भी हूँ।

दोनों प्रकार से वर्णन किया जाता है, तब वह पूर्ण वर्णन होता है। वह सर्व गुणविशिष्ट है इसलिए एकांगी वर्णन से काम नहीं चलेगा।

परस्पर विरोधी दोनों चीजें उसमें एकसाथ हैं। एक ही क्षण में वह दूर भी है और नजदीक भी है। वह एक ऐसा है कि जो एकसाथ प्रकाश भी है और अंधकार भी है।

चलनेवाला भी है और न चलनेवाला भी है। दूर भी है और नजदीक भी है। परस्पर विरोधी विशेषण उस में समाए हुए हैं।

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