अब अयोध्या दर्शन में राम जन्मभूमि टॉप पर 

सुमन गुप्ता

1982 का वह सितम्बर का महीना था, तारीख याद नहीं। मेरी अम्मा को लगा कि अयोध्या घूम आया जाए। वह रविवार का दिन था अयोध्या का सावन का झूला मेला गुजर चुका था और कार्तिक पूर्णिमा मेला आया नहीं था। पूरा परिवार मेले ठेले से कुछ ज्यादा ही दूर रहता था इसलिए सितम्बर का यह समय हम लोगों के लिए अनुकूल था। इसके पहले एक बार बचपन में रामनवमी के मेले में अयोध्या आयी थी। बचपन का वह दृश्य मेरी स्मृतियों में बसा है। रामनवमी  मेले की भीड़ में मैं दब न जाऊं इसलिए मेरे पिता जी ने हनुमानगढ़ी पर मुझे अपने कंधे पर बिठा लिया था और मैं अपने छोटे-छोटे हाथों से भीड़ को चीरने की कोशिश कर रही थी। हनुमानगढ़ी पर जयकारे लग रहे थे। हनुमानगढ़ी और कनकभवन का दर्शन कर हम लोग वापस आ गये थे। तब कहीं जेहन में भी नहीं था कि ‘जन्मभूमि’ जाना था। मैं तो इन सब से बिल्कुल ही अन्जान थी, घर में भी कभी कुछ ऐसा नहीं सुना था। बडे़ होने के बाद यह पहला अवसर था जब हम लोग सितम्बर के महीने में अयोध्या गये थे। टेम्पो से उतरते ही कई पंडों ने घेर लिया पिता जी न-न करते रहे। फिर भी एक पंडा साथ लग गये बाबू जी हम बहुत बढ़िया दर्शन करायेंगे पूरा अयोध्या घुमा देंगें। पिता जी नहीं पसीजे। न कहने के बावजूद वे पीछे लग गये।

पूरी अयोध्या पैदल ही घूमनी थी,  तब आज-कल वाले टेम्पो नहीं हुआ करते थे जो अन्दर गलियों में ले जाते। वे सड़क पर छोड़ देते थे और दर्शन का दायरा भी रामकोट और सरयू नदी के आचमन या स्नान तक सीमित होता था। दर्शनार्थियों के पुराना राष्ट्रीय राजमार्ग पर (लखनऊ से गोरखपुर) में गुदड़ी बाजार चौराहे से चलने से दो स्टापेज ही होते थे। एक हनुमानगढ़ी चौराहा जहां से रामकोट , जो अयोध्या का सबसे समृद्ध इलाका कहलाता था , सभी महत्वपूर्ण मंदिर हनुमानगढ़ी, कनकभवन, रंगमहल, राजसिंहासन, राम खजाना जन्मस्थान जैसे महत्वपूर्ण मंदिर इसी इलाके में पड़ते थे। विश्व हिन्दू परिषद के अयोध्या आंदोलन के कारण इस इलाके की समृद्धि नष्ट होती गयी। अधिग्रहीत मंदिरों में भगवान के भोग के भी लाले पड़ गये। सुरक्षा प्रतिबंधों के कारण दर्शनार्थियों व श्रद्धालुओ ने इस इलाके में आने व रहने से परहेज करना शुरू कर दिया। 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद सुरक्षा कारणों से 67 एकड़ क्षेत्र का अधिग्रहण कर  जिगजैग का रास्ता बना जो अस्थाई मंदिर के दर्शन तक सीमित था। 1991 में ही आधा दर्जन मंदिर अधिग्रहीत हो गये थे जो बचे थे वे 1993 में विध्वंस के बाद अधिग्रहीत हो गये।

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श्रद्धालुओं  की यात्रा का पहला पड़ाव हनुमानगढ़ी होता था, दर्शनार्थी यहीं से मंदिर दर्शन शुरू करते थे। ऊंची सीढ़ियां इसका आकर्षण भी थीं और पहाड़ पर चढ़ने जैसा सुख और थका देने वाला दुःख भी था। हनुमानगढ़ी की 83 सीढ़ियां चढ़कर ऊपर पहुँचते ही सारा दुःख भूल जाते थे और लोग दर्शन में लग जाते थे।

हनुमानगढ़ी के बाद कनकभवन दूसरा पड़ाव होता था, जिसके शिखर पर सोने के कलश और अद्वितीय सुन्दर छोटे सरकार और बड़े सरकार की मूर्तियां सुगन्ध भरा वातावरण सजीले वस्त्र किसी का भी मन मोह लेते थे।

उत्तर प्रदेश सरकार के पर्यटन विभाग ने अयोध्या के मंदिर में रामजानकी की जिस फोटो को अपनाया, वह कनक भवन की ही प्रतिमाएँ हैं। प्रतिवर्ष रामनवमी मेले में रामजन्मोत्सव का आकाशवाणी और दूरदर्शन से प्रसारण रसिक सम्प्रदाय के इस वैभवशाली मंदिर कनक भवन से ही होता आया है।

इस मंदिर के बारे मे उल्लेख है कि ओरछा की महारानी वृषभान कुंवरि ने इस मंदिर का जीर्णोद्वार लगभग ढ़ाई सौ वर्ष पूर्व कराया था। इस मंदिर का झूलनोत्सव और ग्रीष्म ऋतु में फूलबंगला झांकी, संगीत कार्यक्रम एक मनोहारी छवि प्रस्तुत करते हैं। ओरछा महारानी ने ही अयोध्या से राम की मूर्ति ले जाकर ओरछा में स्थापित की, जहां एकमात्र राजाराम का मंदिर है। राजा कृष्ण भक्त थे फिर भी  राम को स्थान दिया। महारानी की शर्त थी कि जब वे ओरछा पहुँचें  उसके पहले मंदिर बन जाये जहां राजाराम को स्थापित करेंगी। एक बार जहां स्थापित हो जाएँगे  राम वहां से नहीं उठेंगें इसी शर्त पर वे राम को ओरछा ले गयी थीं।  लेकिन जब रानी ओरछा पहुँची तो मंदिर पूरा नहीं हुआ था , राम को रसोई में स्थापित कर दिया और राजा राम का मंदिर हो गया।

कनक भवन के बाद हमलोग राम खजाना, रंगमहल और आसपास के मंदिरों को देखते हुए ‘जन्मस्थान’ मंदिर पर पहुँचे जहां तहखाने जैसी जगह में सीता की रसोई बनाई गयी थी , लोग उसके पीढे़ पर सिक्का चढ़ाते थे। वहां से निकलकर हम वापस जाने की सोच ही रहे थे कि पंडे ने कहा बाबूजी एक जगह और है कहौ तो देखाई देई। हमलोग थक चुके थे कहा अब ज्यादा नहीं चलेंगें तो कहा दूर नहीं बस बगल में ही है। मैने पूछा वहां क्या है तो मेरे पिता जी ने कहा वहां देखने को  कुछ भी नहीं है बेकार में बेल्ट पर्स उतरवा लेते हैं। सीखजा लगा है वहीं लोग झांकते हैं। पंडे ने कहा बगल में ही है। बाबरी मस्जिद और जन्मस्थान के बीच की सड़क पार कर जब वहां हमलोग पहुँचे तो पंडे से सवालिया निगाहों से कहा क्या यही दिखाने लाये थे, यहां तो कुछ भी नहीं है। एक पेड़ के नीचे एक होमगार्ड सीमेंट के चबूतरे पर बैठे थे उन्होंने कहा चमडे़ की चीज यहीं उतार कर रख दीजिए। मेरे पिता जी ने बेल्ट उतार दी और हमलोग वहां झांककर देखने की कोशिश करने लगे लेकिन दूरी और अन्दर अंधेरा के कारण कुछ समझ में नहीं आया।

एक सिंहासननुमा कोई चीज थी जिसमें चमकीले कपडे़ की सजावट में रामलला की मूर्ति तो दिखाई ही नहीं देती थी। तब न रामलला कहे जाते थे और न रामजन्मभूमि सिर्फ जन्मभूमि कहा जाता था और जब सभी मंदिरों के दर्शन के बाद लोगों का धैर्य बचता था तब वे यहां तक पहुँचते थे। स्थानीय साधु संत महन्त ही सायं दर्शन करने पहुँचते थे या फिर रामनवमी में जब पूरा रामकोट कंधे छिलने की भीड में समाहित होता था तो जिधर रेला चलता था लोग उधर ही चलते रहते थे उनके पास विकल्प कम होता था कि  कहां जायें और कहां न जायें।

स्थिति में बदलाव रामजन्मभूमि सेवा प्राक्ट्योत्सव समिति के 1983 के कार्यक्रम और उसके बाद विश्व हिन्दू परिषद की रामजानकी रथ यात्रा और अन्य आंदोलनों के कारण हुआ । शुरूआती दौर में विश्व हिन्दू परिषद को अपने कार्यक्रमों के लिए लोग नहीं मिलते थे। तब सारे कार्यक्रम वह अयोध्या के तीन प्रमुख मेलों के मौके पर करती थी जिसमें स्वतः श्रद्धालुओं की भीड़ मिल जाती थी। उसके बाद प्रशिक्षित लोगों को 1990,1991, 1992 के कार्यक्रमों में बुलाया जाता रहा, जो आक्रामक और भड़काऊ नारों के साथ अयोध्या की गलियों को गुंजायमान करके अपनी जीत समझते थे।

अयोध्या में मेलों में आने वाली श्रद्धालुओं की 8-10 लाख की भीड़ से अयोध्यावासियों को कोई समस्या नहीं होती थी वे प्रसन्न होते थे उनका छोटा-मोटा व्यापार बढ़ता था मठ मंदिरों में चढ़ावा आता था, महन्तों के यहां समृद्धि आती थी लेकिन विश्व हिन्दू परिषद के प्रशिक्षित लोगों के आने से पुलिस प्रशासन और जनता सभी परेशान होते थे। डर के मारे मेलों में आने वाली भीड़ भी कम हो जाती थी।

1986 में ताला खुलने से पहले 1859 में अंग्रेजों  द्वारा लगायी गयी बाबरी मस्जिद और रामचबूतरा के बीच लोहे के सीखचों  की खिड़की से ही दर्शन हो सकता था। सीखचों  के बाद आंगन परिसर और फिर गुम्बद के नीचे रखी मूर्तियों के बीच का फासला 30-40 फीट का होता था।

1985 – 86 से पहले जो ‘जन्मभूमि’ पंडों की अन्तिम सूची में था वह अब पहली सूची में आ गया है। बाहर की गाड़ी देखते ही पंडों  का काफिला गाड़ी के साथ रामजन्मभूमि हनुमानगढ़ी दिखाने के लिए लपक लेता है। बाहर से आने वालों की प्राथमिकता इसी ‘जन्मभूमि’ को देखने की हो गयी है।

सुमन गुप्ता पत्रकार

(सुमन गुप्ता वरिष्ठ पत्रकार हैं) 

 

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