राजनीति की चौथी पीढ़ी : “एकजा न रह सकेंगे, ये रहबर बड़े-बड़े”

रोजनामचा रामखेलावन का

भारतीय राजनीति में बदलाव अब चौथी पीढ़ी तक आ पहुँचे हैं. एक विश्लेषण पेश कर रहे हैं राजनीति पर पैनी नज़र रखने वाले रिटायर्ड पुलिस अधिकारी अरुण कुमार गुप्त.

अरुण कुमार गुप्ता

बदलाव इस सृष्टि में निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। ज्यादातर बदलाव इतनी धीमी गति से होते हैं कि कब हमारे पसंदीदा आइकाॅन देखते देखते मुख्य धारा से निकल कर पृष्ठभूमि में चले जाते हैं, पता ही नहीं चलता। 

भारतीय राजनीति भी इन बदलावों से अछूती नहीं रही है।आजादी के बाद 1947-67 के दो दशक ‘एक दलीय प्रभुत्व’ वाले सालों में भी सरकार की कमान नेहरू जी से (वाया शास्त्री जी) इंदिरा जी तक पंहुच गई। स्वातंत्र्योत्तर राजनीति की एक पूरी पीढ़ी का अवसान हो रहा था।इसके उपरांत इंदिरा गांधी के समकालीन नेताओं के बाद की पीढ़ी भी राजनीतिक सन्यास के कगार पर खड़ी है।

आज की राजनीति में चौथी पीढ़ी का उदय हो रहा है। आने वाले वर्षों में मैं मुझे भारतीय राजनीति में निम्न प्रवृत्तियां /बदलाव दृष्टिगोचर हो रहे हैं -1.अगले कुछ सालों में भाजपा को नरेंद्र मोदी के उत्तराधिकारी के बारे में विचार करना होगा। आगामी पांच सालों में पार्टी के अधिकांश शीर्ष नेता 75 साल की आयु पूरी कर चुके होंगे।पार्टी के सामने सबसे बड़ी चुनौती कर्नाटक में मुख्यमंत्री येदियुरप्पा के उत्तराधिकारी के चयन व अन्य दक्षिणी राज्यों में अपने विस्तार की होगी। अगले साल होने वाले राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति चुनावों के लिए जनमानस में स्वीकार्य उम्मीदवार चयनभी एक बड़ी चुनौती है। पिछले कुछ महीनों में पार्टी की लोकप्रियता में परिलक्षित कमी भी चिंता का विषय है, जिसकी ओर ध्यान देना जरूरी है।

 2. कांग्रेस में लोकतांत्रिक तरीके से नेतृत्व के चुनाव की मांग जोर पकड़ रही है। सोनिया जी के अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद पार्टी में नेतृत्व को लेकर विभाजन की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।बंगाल, केरल और असम के हाल के चुनाव परिणामों ने गांधी परिवार की पार्टी पर पकड़ ढीली होने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। जितिन प्रसाद का पार्टी छोड़ना एवं पंजाब व राजस्थान में अंतर्कलह का सतह पर आ जाना इसके शुरुआती लक्षण हैं। पार्टी को बिना और विलंब किए नेतृत्व का मामला हल करने पर विचार करना श्रेयस्कर होगा। 

3. पिछले तीन दशकों से हिंदी भाषी प्रदेशों में सेक्युलर राजनीति के सिरमौर रहे वामपंथी दलों के अलावा मुलायम सिंह यादव व लालू प्रसाद यादव मुस्लिम समाज के स्वघोषित नेता रह हैं। दोनों शीर्ष यादव नेताओं की बढ़ती आयु व राजनीतिक निष्क्रियता के फलस्वरूप पिछले कुछ सालों में मुस्लिम समाज में अपने भीतर से नेतृत्व तैयार करने की कोशिशें जारी हैं। उ प्र में डा. अय्यूब अंसारी की पीस पार्टी,असम में बदरुद्दीन अजमल की यूडीएफ, हाल में चर्चित पीएफआई का राजनीतिक दल एसडीपीआई और प. बंगाल में हाल ही में सक्रिय आईएसएफ इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। दशकों तक हैदराबाद शहर तक सीमित रही एआईएमआईएम को असदुद्दीन ओवैसी राष्ट्रीय विस्तार देने की कोशिश करते दिखे हैं और वह सफल भी रहे हैं। इस प्रकार आजादी के पहले के मुस्लिम लीग का स्थान लेने की दौड़ में ओवैसी सबसे आगे खड़े दिखाई देते हैं।

4. आजादी के बाद समाजवादी विचारधारा से जुड़ी पार्टियों के बीच विलय व विघटन की लुका-छिपी का लंबा इतिहास रहा है, जिसकी परिणति समाजवाद से जातिवाद के रास्ते परिवारवाद से होती हुई पुत्रवाद पर ठहर गई दिखती है। क्षेत्रीय दलों का भी कमोबेश यही हाल है। सपा, द्रमुक व शिव सेना में उत्तराधिकार को लेकर पारिवारिक विभाजन हो चुके हैं और अन्य राज्यों में इसकी संभावनाएं बन रही हैं।

4. आजादी के बाद शुरुआती चुनावों में कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस के बाद देशव्यापी प्रभाव वाली सबसे बड़ी पार्टी हुआ करती थी। तीन राज्यों में सालों तक यह सत्ता में रही और अन्य कई राज्यों में इसकी दमदार उपस्थिति महसूस की जाती थी। वामदल आज अपने अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं।  प. बंगाल के चुनाव में कांग्रेस व आईएसएएफ के साथ गठबंधन के बावजूद एक भी सीट न जीत पाना न केवल वर्तमान नेतृत्व की क्षमता पर प्रश्नचिन्ह खड़े करता है बल्कि निकट भविष्य में किसी चमत्कारी नेतृत्व के अभाव को भी दर्शाता है।

5. पिछले कुछ दशकों में देश में दलित वर्ग की राजनीति हिंदी बेल्ट में बसपा के संस्थापक कांशीराम व राम बिलास पासवान के आसपास रही है। मायावती ने कांशीराम की विरासत को आगे बढ़ाते हुए चार बार उ प्र के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, लेकिन उनके गठबंधन की अनिश्चितता व पार्टी के लगभग सभी बड़े नेताओं के साथ छोड़ जाने के कारण उनके दबदबे में कमी आई है। अपने गढ़ में भी उन्हें चंद्रशेखर आजाद रावण से चुनौती मिल रही है। देखना दिलचस्प होगा कि निकट भविष्य में वह अलग अलग राज्यों में किस प्रकार गठबंधन करती हैं। पंजाब चुनाव में अकाली दल का साथ उन्हें कितना लाभ पंहुचाता है? लेकिन उनकी असली परीक्षा उ प्र में ही होनी है। 

6. हाल में संपन्न विधानसभा चुनावों के बाद तृणमूल कांग्रेस ने बंगाल में व ममता बनर्जी ने राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी दलों के लिए कुछ संभावनाएं पैदा की हैं। इसी प्रकार महाराष्ट्र में भाजपा के पैरों के नीचे से सत्ता खींच लेने के कौशल ने शरद पवार के इर्द-गिर्द विपक्षी एकता की उम्मीदें जगाई हैं। लेकिन इस कवायद में कांग्रेस को अपनी भूमिका तय करनी होगी। अन्य विपक्षी नेताओं में डीएमके के स्टालिन और शिव सेना के उद्धव ठाकरे को अभी अपने राज्यों में ही पैर मजबूत करने हैं। केजरीवाल जरूर इस दौड़ में बने रहना चाहेंगे।

 संसदीय लोकतंत्र की मजबूती के लिए एक सशक्त विपक्ष की उपस्थिति जरूरी होता है, लेकिन आजादी के बाद एक दलीय प्रभुत्व वाले शुरुआती वर्षों के बाद देश में आज पुनः एक सशक्त विपक्ष की कमी परिलक्षित हो रही है।लेकिन भारतीय लोकतंत्र में विपक्षी एकता के प्रयोगों का इतिहास बहुत उम्मीद जगाने वाला नहीं रहा है, चाहे वह कांग्रेस के मुकाबले रहा हो अथवा भाजपा के।

हफीज मेरठी का एक शेर वस्तुस्थिति को बयान करने के लिए पर्याप्त है -एकजा न रह सकेंगे, ये रहबर बड़े-बड़े।हैं खास मछलियों के समंदर अलग-अलग।

अरुण कुमार गुप्ता आईपीएस (से नि)

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