परशुराम थे जननायक-युगपुरुष महर्षि

यूपी की सियासत में केंद्रबिंदु बने हुए हैं परशुराम, जानें - कौन थे ये

डॉ.चन्द्रविजय चतुर्वेदी। सतयुग के अवसान तथा त्रेतायुग के प्रारम्भ के संक्रमण काल में ऋषि जमदग्नि के पुत्र के रूप में परशुराम का जन्म भार्गव कुल में हुआ था।

इसके मूल पुरुष भृगुसंहिता के प्रणेता भृगु ऋषि थे।

पाश्चात्य इतिहासकारों और विद्वानों ने भारतीय इतिहास पुराण के साथ कुछ ऐसे मिथक, ऐसी अवधारणाएं, ऐसे असत्य स्थापित कर गए हैं, जो अतार्किक, असंगत हैं।

इनका निराकरण न करके हम इन विसंगतियों को न केवल ढोते जा रहे हैं बल्कि इन्हें कभी-कभी अपनी सांस्कृतिक चेतना के साथ भी जोड़ने का उपक्रम करने लगते हैं।

21 बार नि:क्षत्रिकरण की कथा

इन्ही में से एक कथा  है –परशुराम द्वारा पृथ्वी निःक्षत्रिकरण, वह भी इक्कीस बार की प्राचीन कथा।

यह न केवल अति अतिशयोक्ति है वरन अतार्किक और असंगत भी है।

परशुराम की माता रेणुका अयोध्या के इक्ष्वाकु वंश की थी तथा मातामही सत्यवती कान्यकुब्ज के गाधि वंश की थी जो प्रख्यात क्षत्रिय थे।

अतः परशुराम द्वारा 21 बार पृथ्वी को क्षत्रियविहीन करने की गाथा कभी लोक द्वारा ब्राह्मण -क्षत्रिय द्वंद्व के उन्माद हेतु गढ़ी प्रतीत होती है।

ऋषिकुल के ऋषि परशुराम जिनके पिता ऋषि जमदग्नि और पितामह ऋषि ऋचीक अथर्वण रहे हों ऐसे व्यक्तित्व का युद्ध का जुड़ाव का आखिर अन्वयार्थ क्या है ?

संस्कृत ग्रंथों में अष्टदश परिवर्तन युग के संक्रमणकाल 7500 ई पू में हैहय –भार्गव महायुद्ध का उल्लेख है।

हैहय सोमवंशी राजा थे, जिनके छह शाखाओं में से एक शाखा यदुवंशियों की रही है।

यदुवंश की एक उपशाखा -सहस्रजित शाखा रही जो वंश यदुपुत्र सहस्रजित द्वारा स्थापित किया गया।

यही शाखा हैहय वंश के रूप में विख्यात हुआ।

हैहय वंश के राजपुरोहित थे भार्गववंशी ऋषि

इस कुल के एक राजा महिष्मन्त ने नर्मदा नदी के किनारे महिष्मति नामक नगर बसाया था।

इसी कुल में आगे चलकर दुर्दुम फिर कनक और उसके बाद कृतवीर्य ने महिष्मति का सिंहासन सम्हाला।

भार्गववंशी ऋषि उनके राजपुरोहित थे।

ऋचीक अथर्वण ने ही सर्वप्रथम हैहय वंश का राजपुरोहित पद महिष्मन्त के समय में सम्हाला।

पर मतभेद के कारण शीघ्र ही अलग हो गए।

और आनर्त –गुजरात छोड़कर कान्यकुब्ज आगये और अपना आश्रम बना लिए।

कालांतर में  परशुराम के पिता जमदग्नि ऋषि से कार्तवीर्य के अच्छे सम्बन्ध हो गए थे।

इसलिए उन्होंने पुनः हैहय कुल के राजपुरोहित होना स्वीकार कर लिया।

कृतवीर्य के पुत्र का नाम कार्तवीर्य अर्जुन था जिसे कार्तवीर्यार्जुन भी कहा जाता था।

अर्जुन ने अपनी तपस्या से भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न किया।

भगवान दत्तात्रेय ने युद्ध के समय हजार हाथों का बल प्रदान करने का वरदान अर्जुन को दिया जिसके कारण उसे सहस्रार्जुन यासहस्रबाहु भी कहा जाता है।

सहस्रबाहु शक्तियां अर्जित कर दम्भी और अनीति के पथ पर  चलने लगा था।

वह पुरोहित के निर्देश को मानने के बजाय यह अपेक्षा करने लगा की पुरोहित उसके निर्देशों का पालन करें।

फलस्वरूप ऋषि जमदग्नि को भी हैहय वंश की पुरोहिती छोड़नी पड़ी।

भार्गव आयुधजीवी ऋषि नहीं थे। महर्षि भृगु से लेकर परशुराम तक भार्गव वंश को ज्ञान और विद्या से जोड़ा जाता है।

भृगु तो -भृगुसंहिता केप्रणेता थे ही, परशुराम के पितामह ऋचीक अथर्वण मंत्रदृष्टा ऋषि थे।

सूक्तदृष्टा ऋषि के रूप में ऋग्वेद में आता है नाम

राम भार्गवेय नामक एक वैदिक ऋषि का सूक्तदृष्टा ऋषि के रूप में आया है।

ऋग्वेद के दशम मंडल के सूक्त 110 –सर्वानुक्रमणी के अनुसार यही परशुराम हैं।

परशुराम की प्रारंभिक शिक्षा ऋषि जमदग्नि के आश्रम में हुई।

उसके पश्चात् ऋषि कश्यप से दीक्षा ली तदन्तर कैलाश पर्वत पर जा कर भगवान शंकर से समस्त शास्त्र और शस्त्र तथा मन्त्र तंत्र की विद्या में पारंगत हुए।

भार्गव और अंगिरस कुल के ऋषियों ने समस्त शास्त्रों का नवसंस्कार किया है।

भार्गव और हैहयों में बारह पीढ़ी से द्वन्द होता रहा है।

इसका एक प्रमुख कारण यह रहा है की हैहय ऋषि परंपरा को समाप्त कर राजाश्रित पुरोहिती परंपरा का पक्षधर था।

उसने वेतन पर ऋषियों को अपने राज्य में रखना चाहा।

आर्येतर जातियों को अपने राज्याश्रित गुरुकुलों में प्रवेश नहीं देता था।

भगवान दत्तात्रेय  से वरदान पाकर सहस्रार्जुन कार्तवीर्य दम्भी हो गया।

उसकी अनीति और विस्तारवादी नीति से जम्बूद्वीप के राजाओं और ऋषियों मुनियों में असंतोष फ़ैलने लगा।

जमदग्नि ऋषि की हत्या और कामधेनु का अपहरण

पराकाष्ठा तो तब हो गई जब एक बार अर्जुन, जमदग्नि से मिलने उसके आश्रम आया और आश्रम की कामधेनु की मांग कर दी।

जमदग्नि ने समझाया की यह कामधेनु मेरे पुत्र परशुराम की अमानत है।

इस आश्रम में मैं तुम्हे दान स्वरूप भी इसे नहीं दे सकता।

अर्जुन तो विवाद के उद्देश्य से आया था।

उसने बलात जमदग्नि ऋषि की हत्या करके कामधेनु गौ का अपहरण  कर  आश्रम को ध्वस्त कर दिया।

इस घटना  का उल्लेख अथर्ववेद –5 /18 /10 में आया है।

भार्गवेय परशुराम अध्ययन और तपस्या के उपरांत उसी समय अपने आश्रम कतिपय संकल्पों और स्वप्नो के साथ लौट रहे थे।

उन्हें अपने युग की प्रतीति थी। राजाओं का अत्याचार चरम पर था।

आर्य और आर्येतर जातियों में असमानता बढ़ता जा रहा था, ऋषियों के आश्रम में भय व्याप्त था।

ऋषियों के सेनापति बने परशुराम

इनके निदान के संकल्प के साथ जब परशुराम आश्रम पहुंचे तो उनका स्वागत माँ के विलाप और ध्वस्त आश्रम तथा भयभीत ऋषियों ने  किया।

इन क्षणों में परशुराम को वेद की वे ऋचाएं सम्बल बनी

–हे वाचस्पति हमें शास्त्र और शस्त्र धारण करने की बुद्धि और शक्ति प्रदान करे।

सम्पूर्ण जम्बूद्वीप में इस कुकृत्य की निंदा होने लगी।

ऋषिकुलों से ऋचीक, वशिष्ठ, विश्वामित्र, कश्यप, अगस्त आदि ऋषियों के साथ कई राजशक्तियाँ और आर्येतर जातियों के प्रतिनिधि परशुराम के आश्रम में एकत्र हुए।

और यह निर्णय लिया कि हैहयों के विरुद्ध एक संगठित युद्ध की घोषणा परशुराम के नेतृत्व में की जाये।

पितामह ऋचीक ने विष्णु का दिव्य वैष्णव धनुष परशुराम को दिया, ब्रह्मर्षि कश्यप ने अविनाशी वैष्णव मंत्र दिया।

परशुराम कैलाश गिरिश्रृंग जाकर भगवान शंकर का आशीर्वाद रूप में विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया।

आर्यों-अनार्यों को एकजुट करने वाले पहले नायक

परशुराम पहले नायक हैं जिन्होंने किसी अत्याचारी राजा को दंड देने के लिए राजाओं, ऋषियों, ग्रामवासियों को एकजुट किया।

और उनके अंतःकरण से भय तिरोहित कर न्याय स्थापित करने की आग प्रज्वलित की।

इसके पूर्व पुरुरवा, वेन, नहुष ,जैसे राजाओं के अत्याचार पर ऋषियों ने अपने स्तर पर ही दण्डित किया।

उस काल में समस्त जम्बूद्वीप में हैहयों की सौ अक्षौहिणी सेना का बड़ा आतंक था।

उसने धन के बल पर विशाल सेना और आयुध इकठ्ठा कर रखा था।

महिष्मति के अलावा हैहयों के चार राजवंश थे। सिंध और राजस्थान के राजवंश भी हैहयों के साथ थे।

ऋषिकुलों के प्रयास से सूर्यवंशी राजाओं के साथ चंद्रवंशी राजा भी परशुराम के साथ खड़े हुए।

ऋषि अंगिरस के प्रयास से शम्बर, बल, नमुचि, वृत्र, पाणी जैसे अनार्य भार्गव के पक्ष में खड़े हुए।

कश्यप ने सप्तसिंधु और सारस्वत क्षेत्र के राजवंशों के साथ ही सागर देश के राजवंशों को भी भार्गव के पक्ष में खड़ा किया।

हैहयों से प्रताड़ित यदुवंशी और हैहयवंशी जिसमे सुबल हैहय और शत्रुघ्न यादव प्रमुख रूप से युद्ध में सम्मिलित हुए।

इस महायुद्ध के लिए परशुराम ने ग्रामजनों को भी शस्त्र  शिक्षा दी।

अत्रि  की पत्नी अनुसुइया, अगस्त की पत्नी लोपामुद्रा तथा परशुराम  शिष्य अकृत्वान ने एक विशाल नारी सेना भी तैयार की थी।

जम्बूद्वीप का प्रथम महायुद्ध -भार्गव हैहय महायुद्ध

जम्बूद्वीप का प्रथम महायुद्ध -भार्गव हैहय महायुद्ध, मानवता का दानवता के विरुद्ध, सभ्यता का बर्बरता के विरुद्ध, नम्रता का अहम् के खिलाफ, शिष्टता का अशिष्टता के विरुद्ध युद्ध था।

यह ऋषिपरम्परा को जीवित रखने के लिए युद्ध हुआ।

सहस्रार्जुन का बध करके परशुराम ने समस्त विजित प्रदेश अपने गुरु कश्यप ऋषि को सौंप कर गुरु की आज्ञा से प्रायश्चित कर शूर्पारक प्रदेश चले गए।

भृगुकच्छ -भड़ोच से लेकर कन्याकुमारी तक का पश्चिम समुद्र तट का प्रदेश -परशुराम प्रदेश या शूर्पारक नाम से प्रसिद्द है।

परशुराम ने अछूतों को शिक्षित किया, कृषि से जोड़ा

भारतीय कृषि के साथ  परशुराम को जोड़ा जाता है।

अगस्त कश्यप ऋषि तथा इंद्र की सहायता से परशुराम ने साढ़े तीनसौ कोस के समुद्री तट को समुद्र से मुक्त कराकर कृषियोग्य बनाया जिसे सप्त कोंकण कहा जाता है।

कृषि गीता एक मलयालम ग्रन्थ है जिसमे कृषि को लेकर परशुराम और ब्राह्मणो में चर्चा है।

इसके मूल लेखक और रचनाकाल का पता तो नहीं चल पाया पर यह रचना पंद्रह सौ ईसवी की मानी जाती है।

परशुराम ने अछूत माने जाने वाले लोगों को शिक्षित किया और उन्हें कृषि कर्म में लगाया।

महायुद्ध के बाद अस्तित्व में आये भूमिहार

उन्होंने दुराचारी संस्कारहीन ब्राह्मणो का सामाजिक बहिष्कार किया।

उनके आश्रम में अध्ययन करने वाले ऋषि ब्राह्मण जो ऋषिकर्म स्वीकार नहीं करते थे, उन्हें परशुराम कृषिकर्म के लिए प्रेरित करते थे।

इस महायुद्ध के पश्चात् ही कृषिजीवन जीने वाले भूमिहार ब्राह्मण अस्तित्व में आये।

इन्हे त्यागी, महिपाल, गालव, अनाविल, कार्वे, राव, हेगड़े, अयंगर, अय्यर आदि उपनामों से विभूषित किया जाता है।

श्रीविद्या के आदि साधक

श्रीविद्या के आदि साधकों में परशुराम  की गणना की जाती है जिसके आदिदेव भगवान दत्तात्रेय हैं।

दक्षिण भारत में एक तांत्रिक संप्रदाय परशुराम के नाम से जाना जाता है जिसके प्रसिद्द ग्रन्थ हैं –परशुराम कल्पसूत्र और परशुराम प्रताप।

मालाबार में अभी भी परशुराम शक सम्वत चालू है।

कलरीपायट्टु केरल की एक युद्धकला है जो परशुराम से जुडी मानी जाती है।

परशुराम सतयुग त्रेतायुग के संक्रमण काल के महानायक थे जिन्होंने ऋषिपरम्परा के स्वतंत्रता की रक्षा की अनीति के विरोध में जनमानस को तैयार किया।

ज्ञानार्जन के लिए भेद को समाप्त किया।

परशुराम के महाभारत और रामयण में प्राप्त निर्देश कालविपर्यस्त हैं अतः अनैतिहासिक हैं।

परशुराम रामायण, महाभारत के बहुत पूर्वकालीन थे।

इस काल विपर्यन का स्पस्टीकरण चिरंजीवता से उपयुक्त नहीं लगता।

संभव है परशुराम की ऋषि परंपरा रामायण महाभारत काल तक रही हो।

और उस काल के परशुराम को महिमामंडित करने के लिए पूर्वपुरुष का सातत्य बनाये रखा  गया हो।

विष्णु के छठे अवतार

भगवान परशुराम विष्णु के छठे अवतार हैं, सातवें-आठवें अवतार राम, कृष्ण हैं जिनपर बहुत काव्य महाकाव्य लिखे गए।

परशुराम पर कोई भी  महाकाव्य रामायण, महाभारत की भांति उपलब्ध नहीं है।

ऋग्वेद में पांच सूक्त ही विष्णु से सम्बंधित है जो की ब्राह्मण ग्रंथों के सर्वश्रेष्ठ देवता हो गए।

पाणिनि काल में वासुदेव की की उपासना की जाती रही।

दक्षिण भारत से पनपे वैष्णव संप्रदाय में राम और कृष्ण के भक्तिमार्ग  का विकास हुआ।

 भक्ति मार्ग में विष्णु के अवतार परशुराम स्थान नहीं प्राप्त कर सके। 

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