सम्मान की रेशमी गरिमा पर मुफ़लिसी के पैबंद

आज देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्मश्री सम्मान से समाज के कर्मठ और समर्पित नागरिकों को सम्मानित किया गया है।

पद्मश्री से सम्मानित कोई नागरिक लाल चींटी के अंडे की चटनी खाकर गुजारा करे और किसी अन्य सम्मानित के घर की लड़कियाँ दूसरे के घरों में झाड़ू-पोछा करें तो ऐसे सम्मान की गरिमा पर दाग दिखने लगता है।

– अमरेंद्र किशोर

आज देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्मश्री सम्मान से समाज के कर्मठ और समर्पित नागरिकों को सम्मानित किया गया है। हर साल केंद्र सरकार समाज के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रीय शख्सियतों के उनके विलक्षण योगदान के लिए तीन विभिन्न सूची जारी करती है।

अखबारों में नाम, राष्ट्रपति भवन में देश की एक से एक बड़ी हस्तियों के बीच समारोह में शिरकत होने का सौभाग्य और महामहिम राष्ट्रपति से सम्मानित व्यक्ति अपने संघर्षपूर्ण ज़िंदगी के तमाम सच को जैसे भूल जाता है। क्योंकि लोकतंत्र के उस रमणीय और खुशनुमा कार्यक्रम विशेष में सम्मानित मान्यवरों की प्रतिबद्धता के गुणगान के साफ़-जाहिर यथार्थ अलौकिक माहौल में गाये और गुनगुनाये जाते हैं। लेकिन सवाल है कि इन तीनों सम्मान की राष्ट्रीय अहमियत होने के बावजूद सम्मानित लोगों की ज़िंदगी के स्याह यथार्थ की ओर किसी का ध्यान जाता है या नहीं?

यह सवाल न खुद से गढ़ा गया है और न बुना गया है। बल्कि आप भी अपने आस-पास नज़र दौड़ाइए तो ऐसे अनगिनत उदाहरण मिलेंगे, जहाँ सम्मानित लोग मिल जाएंगे, जिनके लिए दो जून की रोटी की व्यवस्था नहीं रहती। करीब 4 साल पहले तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के हाथों झारखंड के सिमोन उरांव को पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया था।

उनकी ज़िंदगी को देखिये- रांची से 30 किलोमीटर दूर स्थित एक कस्बानुमा इंसानी बसाहट बेरमो में वह अपने परिवार के साथ छोटे से घर में रहते हैं। झारखंड के जल पुरुष के रूप में मशहूर 87 वर्षीय सिमोन को उनके काम के लिए राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कई पुरस्कार मिल चुके हैं। लेकिन आज परिवार संग वह एक-एक पैसे का मोहताज हैं।

आलम यहां तक आ गया है कि उनकी पौत्री मोनिका मिंज शहर में दूसरे के घरों में झाड़ू-पोछा करती है। अन्य पोतियां सगे-संबंधियों के यहां रह रही है। सिमोन को अब तक वृद्धा पेंशन नहीं मिल रहा है। न ही उनकी पत्नी बिजनिया को। ऐसे में सिमोन के परिवार का गुजारा काफी मुश्किल से हो रहा है।

आलम यहां तक आ गया है कि उनकी पौत्री मोनिका मिंज शहर में दूसरे के घरों में झाड़ू-पोछा करती है। अन्य पोतियां सगे-संबंधियों के यहां रह रही है।

सिमोन ज़िंदगी की जद्दोजहद के अकेले नायक नहीं हैं। बल्कि ओडिशा का मांझी और कैनाल मैन कहे जाने वाले पद्मश्री विजेता दैतारी नायक का वृतांत कहीं ज्यादा दुःखद है। तीन साल में पहाड़ से 3 किलोमीटर लंबी नहर खोद डाली और अपने गांव के किसानों के लिए सौ एकड़ में सिंचाई का साधन खोज निकाला था। उन्होंने यह कारनामा 70 साल की उम्र में कर दिखाया था। इस कारनामे से उन्हें अपने राज्य ही नहीं बल्कि पूरे देश में पहचान मिली थी।

पिछले साल भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री अवार्ड से भी दिया था। लेकिन ओडिशा का ये मांझी और कैनाल मैन वर्तमान में गरीबी का जीवन जीने के लिए मजबूर है। कभी दिहाड़ी मजदूरी कर परिवार के पेट पोसनेवाले नायक को आज कोई काम नहीं देता। दैतारी नायक फिलहाल तेंदू के पत्ते और आम पापड़ बेचकर किसी तरह परिवार का खर्च चला रहे हैं हालांकि इससे भी उनकी कोई खास कमाई नहीं होती है।

मौजूदा समय में आज वही दैतारी नायक चींटियों के अंडे खाकर अपना गुजारा कर रहे हैं। इस स्थिति से दुखी दैतारी ने अपना पद्मश्री सम्मान का मेडल बकरी के बाड़े में लटका दिया है। हालाँकि जिला प्रशासन इस बात का खंडन करती है। किंतु दैतारी का परिवार आर्थिक तंगी से गुजर रहा है, इस बात पर प्रशासन की चुप्पी है।

दैतारी नायक का कहना है कि पद्मश्री मिलने से उन्हें कोई फायदा नहीं हुआ जबकि उनकी आर्थिक स्थिति और खराब हुई है। फिलहाल दैतारी नायक अपने परिवार का खर्च निकालने के लिए तेंदू के पत्ते और आम पापड़ बेचने का काम कर रहे हैं। सरकार की तरफ से उन्हें 700 रुपये की मासिक पेंशन भी मिलती है लेकिन वो आज नाकाफी है।

इंदिरा आवास योजना के तहत दैतारी नायक को घर भी आवंटित हुआ था लेकिन वह अब तक अधूरा ही है, जिस कारण उनका परिवार टूटे कच्चे मकान में रहने के लिए मजबूर है। यह मजबूरी महज दो-चार या दर्जन भर लोगों की नहीं है बल्कि अनगिनत सम्मानित लोग आज ज़िन्दगी में रोटी की तकलीफें झेल रहे हैं।

ख़ास बात यही है कि ज़मीनी तौर से जुड़े जिन लोगों को इस सम्मान से नवाजा गया आज उनके लिए रोज़गार मिल पाना आसान नहीं है। दूसरी सबसे बड़ी समस्या सम्मान मिलने के बाद लोगों की बढ़ती अपेक्षाओं और उभरती चुनौतियों को लेकर है। करीब लगभग तीन दशकों तक कभी आया तो कभी हरी सब्जियां बेचकर परिवार का पेट पोसनेवाली सुभाषिनी मिस्त्री ने पाई-पाई जोड़ कर दक्षिण 24-परगना जिले के ठाकुरपुकुर इलाके में एक ‘ह्यूमैनिटी अस्पताल’ की स्थापना की ताकि किसी ग़रीब मरीज़ को इलाज के अभाव में कोई दम नहीं तोड़े।

साल 2018 में पद्मश्री सम्मान दिए जाने की सूचना से उन्हें आस बंधी कि देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में एक मिलने के बाद उन्हें न धन की कमी रहेगी और न ज़िंदगी में रुकावट आएगी। लेकिन आज हालात ऐसे हैं कि वह कहतीं हैं ‘ले जाओ यह सम्मान’।

साल 2018 में पद्मश्री सम्मान दिए जाने की सूचना से उन्हें आस बंधी कि देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में एक मिलने के बाद उन्हें न धन की कमी रहेगी और न ज़िंदगी में रुकावट आएगी। लेकिन आज हालात ऐसे हैं कि वह कहतीं हैं ‘ले जाओ यह सम्मान’।

सम्मान के लिहाज से देखिये तो यहां धन कोई बड़ी बात नहीं होती। लेकिन जिस सम्मान के चलते रोज़गार में दिक्कतें आने लगे तो सवाल जरूर सामने आता है कि आखिर किस रूप में नागरिक सम्मान को देखा जाए? क्या सम्मान के साथ धन-राशि का होना जरूरी है? हाल के कुछ दशकों में दुनिया के बड़े से बड़े पुरस्कार और सम्मान भारतीयों की झोली में आने से यह बात सामने आयी है कि इनके साथ अथाह रकम दी जाती है। जैसे मिस यूनिवर्स को 35 करोड़ रुपये, मिस वर्ल्ड को 10 करोड़, नोबेल पुरस्कार की राशि तक़रीबन 6.9 करोड़ और मैग्सेसे पुरस्कार की रकम करीब 21 लाख रुपये होती है।

भारत में कुछ प्रमुख पुरस्कारों में गांधी शांति पुरस्कार (1 करोड़) और जमनालाल बजाज पुरस्कार (10 लाख) हैं जिनकी चर्चा खबरों में पढ़ने और सुनने को मिलती है।

लोकमानस के बीच भ्रम की जो स्थिति बनी हुई है, वह सम्मान और पुरस्कार के बीच अंतर नहीं जानता। यहाँ तक कि जिन्हें नागरिक सम्मान के लिए चुना जाता है, उन्हें यह नहीं बताया जाता कि सम्मान में किसी तरह की राशि नहीं दी जाएगी। लेकिन देखना यह भी है कि हाल के वर्षों में केंद्र सरकार ने जिन अनाम लोगों के जीवन संघर्षों और उपलब्धियों को लेकर इन नागरिक सम्मानों से नवाजा, उनकी ज़िन्दगी में कितना बड़ा बदलाव आया?

चाहे सिमोन उरांव हों या दैतारी नायक या जंगल बचाने वाली फिलिप ब्रेवरी अवार्ड से सम्मानित झारखंड की लेडी टार्जन पद्मश्री जमुना टुडू- इनके सामने बड़ी समस्या रोज़गार और मिशन के सामने आये संकट को लेकर है।

जमुना टुडू पूर्वी सिंहभूम में जंगलों को बचाने को लेकर तीन सौ से ज्यादा समितियां बना चुकी हैं, जिसका उन्हें व्यापक सम्मान मिला। उनके काम की गूँज राष्ट्रपति भवन तक जा पहुँची है लेकिन वास्तविकता है कि इस काम के लिए उन्हें कहीं से दान-अनुदान भी नहीं मिलता। उनके मुताबिक सम्मान मिलने के बाद समाज इनसे बड़ी अपेक्षाएँ रखने लगता है।

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आम धारणा बन जाती है कि सम्मानित शख्सियत की पूछ और पैठ भारत सरकार के हर मंत्रालय में है। आश्चर्य की बात है कि हरियाली के लिए आजादी के पहले से सक्रिय 108 वर्षीय सालूमरदा थिम्माक्का के पर्यावरण में विशिष्ट योगदान के लिए जहां दुनिया भर से सम्मान और पुरस्कारों की ढेर लग चुकी है और उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया जा चुका है, वहीं उनके गृह राज्य कर्नाटक राज्य की सरकार ने उनके अनुभव का लाभ आज तक नहीं लिया है।

नागरिक सम्मान हासिल कर चुकी ऐसी हस्तियों को सरकार की विभिन्न विकास और कल्याणकारी योजनाओं से जोड़ा जा सकता है। जैसे साल 2018 में पद्मश्री से सम्मानित कमला पुजारी को उनकी ओडिशा सरकार ने स्टेट प्लानिंग बोर्ड का सदस्य बनाकर उनकी योग्यता और अनुभव का भरपूर योगदान राज्य की विकास योजनाओं में उठा रही है।

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यह राज्य सरकारों की ज़िम्मेदारी है कि ऐसे गणमान्य नागरिकों को उनकी योग्यता के मुताबिक़ सरकार और सरकारी तंत्र से जोड़े। केंद्र सरकार को गंभीरता से सोचना होगा कि आखिर कब तक चुनाव हार चुके और मंत्री पद से वंचित राजनीतिज्ञों की शरण स्थली बनती रहेंगी राज्यों और केंद्र की समितियां, बोर्ड, प्राधिकरण और सार्वजनिक क्षेत्रक उपक्रम?

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