क्या किसान आंदोलन का सबसे फॅसा हुआ पेंच- न्यूनतम समर्थन मूल्य है?

अखिल भारतीय किसान समन्वय समिति की मांग है कि सरकार एमएसपी से कम कीमत पर खरीदने को अपराध घोषित करे इसके लिए कानून बनाए। दूसरी और शासन तंत्र का कहना है कि एमएसपी की व्यवस्था जारी रहेगी, सरकारी खरीद जारी रहेगी। कुछ तो कारण होगा कि एमएसपी के सम्बन्ध में कानून से कम पर कुछ मानने को किसान तैयार नहीं है।

किसी फसल की एमएसपी पूरे देश की एक ही होती है, भारत सरकार का कृषि मंत्रालय कृषि लागत और मूल्य आयोग की अनुशंसा पर एमएसपी तय करता है, इसी के आधार पर तेईस फसल की खरीद की जाती है जिसमें धान, गेहूं, ज्वार, बाजरा, मक्का, मूंग, मूंगफली, सोयाबीन, तिल और कपास जैसी फसलें सम्मिलित हैं।

डा चन्द्रविजय चतुर्वेदी, प्रयागराज

कार्तिक पूर्णिमा के प्रकाशपर्व पर दिव्य प्रकाश कणों के आलोक में माननीय प्रधानमंत्री मोदी जी ने उन तीन कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा कर दी जिसको काला कानून घोषित करते हुए देश के किसान विगत एक वर्ष से सत्याग्रह करते हुए आन्दोलनरत थे। प्रधानमंत्रीजी का अपनी कार्यपद्धति के अनुरूप सहसा ही कृषि कानूनों के वापसी की घोषणा कर चकाचौंध उत्पन्न करना कोई चौंकाने की बात नहीं है। इस घोषणा की सबसे बड़ी उपलब्धि है कि विगत एक वर्ष से सत्ता की हठधर्मिता और किसानों के लम्बे सत्याग्रह के दौरान जो प्रवृत्तियां सर उठा रही थी वह भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर प्रश्न चिह्न उठा रही थी, उसपर विराम तो लगेगा। भले ऐसे निर्णय के मूल में लोकनीति हो या राजनीति हो।

किसानों के लम्बे सत्याग्रह ने एक इतिहास तो बना ही दिया जिसकी अलख देश के गाँव गाँव में गूंजने लगी थी। ऐसा प्रतीत होता है कि इन तीन कानूनों की वापसी मात्र से किसान संतुष्ट नहीं हैं, उनका मूल प्रश्न न्यूनतम समर्थन मूल्य का प्रकरण अभी शेष है जिसका उत्तर उनके लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।

इस आंदोलन और सरकार के कानून का सबसे फॅसा हुआ पेंच एमएसपी -न्यूनतम समर्थन मूल्य है। अखिल भारतीय किसान समन्वय समिति की मांग है कि सरकार एमएसपी से कम कीमत पर खरीदने को अपराध घोषित करे, इसके लिए कानून बनाए। दूसरी और शासन तंत्र का कहना है कि एमएसपी की व्यवस्था जारी रहेगी, सरकारी खरीद जारी रहेगी। कुछ तो कारण होगा कि एमएसपी के सम्बन्ध में कानून से कम पर कुछ मानने को किसान तैयार नहीं है।

किसी फसल की एमएसपी पूरे देश की एक ही होती है, भारत सरकार का कृषि मंत्रालय कृषि लागत और मूल्य आयोग की अनुशंसा पर एमएसपी तय करता है, इसी के आधार पर तेईस फसल की खरीद की जाती है जिसमें धान, गेहूं, ज्वार, बाजरा, मक्का, मूंग, मूंगफली, सोयाबीन, तिल और कपास जैसी फसलें सम्मिलित हैं। बिडम्बना यह है कि देश के केवल छह प्रतिशत किसान ही एमएसपी से लाभान्वित होते रहे हैं जिसमें अधिक प्रतिशतता हरियाणा और पंजाब के किसानों की है जिस कारण इन राज्यों के किसान ही विशेष उद्वेलित हैं।

किसान और सरकार के बीच जो सार्थक बातचीत नहीं हो पा रही थी, उसके मूल में कदाचित एमएसपी का गूढ़तत्व ही है। किसान एमएसपी पर कानून बनाने की बात पर अड़े हैं जबकि अंदर की बात यह है कि जैसी परिस्थितियां हैं उसमें सरकार एमएसपी पर कानून बना ही नहीं सकती। चंडीगढ़ के सेंटर फार रिसर्च इन रूरल एंड इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट के प्रोफ़ेसर आर यस घुमन ने बीबीसी से बातचीत के दौरान उन कठिनाइयों का उल्लेख किया, जिसके कारण सरकार किसानों के एमएसपी सम्बन्धी मांग पूरी नहीं कर पाएगी।

सबसे बड़ी कठिनाई है फसलों के गुणवत्ता के मानक कैसे तय हो पाएंगे। क्या सब धान बाइस पसेरी ही होंगे? जो फसल मानक पर खरे नहीं उतर पाएंगे उनका क्या होगा। दूसरी कठिनाई है कि कतिपय सरकारी कमेटियों की संस्तुति है जिसमे शांताकुमार और नीति आयोग की सिफारिश महत्वपूर्ण है कि धान और गेहूं की खरीद नहीं होनी चाहिए। यह वह भय है जो किसानों को डरा रहा है कि जब फसल की खरीद ही नहीं होगी तो एमएसपी का क्या होगा। अन्य कठिनाइयां भी हैं जैसे क्या निजी कम्पनियाँ एमएसपी पर फसल खरीदेगी, क्या सरकार उन्हें इसके लिए बाध्य कर पाएगी। अर्थशास्त्री प्रो घुमन इसके लिए एक टर्म का प्रयोग करते है –मोनोस्पानि जिसका अर्थ है कि कुछ एक कम्पनियाँ आगे आने वाले दिनों में अपना एक गठजोड़ बना लेगी जो कीमत तय कर किसान के फसल की खरीद करेगी। किसान संगठनो का यह मत निराधार नहीं है कि एमएसपी के कानून से कंपनियों के ऊपर खरीदमूल्य का नियंत्रण रहेगा। निश्चय ही एमएसपी सुरक्षा वाल्ब है यदि यह प्रभावी न रहेगा तो कम्पनी डिमांड सप्लाई का खेल खेलने को स्वतन्त्र होंगे। बाजार को कंपनी नियंत्रित कर सकेंगे किसान की हैसियत बाजार नियंत्रण की नहीं हो पाएगी। किसान को तो अपनी फसल बेचने की गरज रहेगी उसके पास भण्डारण की सुविधा नहीं है और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसे नगदी चाहिए।

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भारत में नाना प्रकार के किसान हैं इनकी कोटि निर्धारित करना बहुत मुश्किल है। हर प्रान्त में किसानो की स्थिति एक दूसरे से भिन्न है। हर फसल के किसान की समस्या अलग अलग है। देश में 85 प्रतिशत ऐसे किसान हैं जिनके पास जोत की जमीन पांच एकड़ से भी कम है। भूमिहीन किसान जो बटाई पर किसानी करते हैं उनकी समस्या अलग है। मजदूर किसान की तो कोई गणना ही नहीं है। सभी प्रकार के किसान इन कानूनों और व्यवस्था से प्रभावित होते हैं पर ये 85 प्रतिशत किसान जैसे तैसे जिंदगी गुजारने वाले ऐसे किसान आंदोलन में सहभागी होने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।

किसान संगठन तीनों कानून को समाप्त करने की मांग से पीछे नहीं हटे तो सरकार कानून बनाये रखने की हठधर्मिता पर तमाम हथकंडे अपना कर आंदोलन की हवा निकलने के उपक्रम कराती रही। यह लोकतान्त्रिक स्थिति नहीं कही जा सकती। किसान और सरकार को विश्वास के साथ कृषि अर्थशास्त्रियों के साथ बैठकर किसान के व्यापक हित में आगे बढ़ना चाहिए, इसी में देश का कल्याण है।

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