भक्ति प्राप्त करने को मिलता है जन्म

*गीता प्रवचन दूसरा अध्याय*

संत विनोबा कहते हैं कि पुंडलीक के उदाहरणसे यह मालूम हो जाता है कि फल-त्याग किस मंजिल तक पहुँचने वाला है।

तुकाराम को जो प्रलोभन भगवान् देना चाहते थे, उससे पुंडलीक वाला लालच बहुत ही मोहक था, परंतु वह उस पर भी मोहित नहीं हुआ। यदि हो जाता, तो फँस जाता।

अत: एक बार साधना का निश्चय हो जाने पर फिर अंत तक उसका आचरण करते रहना चाहिए।

फिर बीच में प्रत्यक्ष भगवान् के दर्शन जैसी चीज खडी हो जाये, तो भी उसके लिए साधना छोडने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। देह बची है, वह साधना के लिए ही है। भगवान् का दर्शन तो हाथ में ही है, वह जाता कहाँ है ?

*सर्वात्मकपण माझें हिरोनी नेतो कोण*? *मनीं भक्तिची आवडी*-

“ मेरा सर्वात्मभाव कौन छीन ले जा सकता है? मेरा मन तो तेरी भक्ति में रँगा हुआ है।”

इसी भक्ति को प्राप्त करनेके लिए हमें यह जन्म मिला है।

*मा ते सङोऽस्त्वकर्मणि*– इस गीता-वचन का अर्थ यहाँ तक जाता है कि निष्काम कर्म करते हुए अकर्म की अर्थात् अंतिम कर्म-मुक्ती की यानी मोक्ष की भी वासना मत रख।

वासना से छुटकारा ही तो मोक्ष है। मोक्ष को वासना से क्या लेना-देना ?

जब फल-त्याग इस मंजिल तक पहुँच जाता है, तब समझो कि जीवनकला की पूर्णिमा सध गयी। क्रमश:

Leave a Reply

Your email address will not be published.

17 + 2 =

Related Articles

Back to top button