दूषित और अलोकतांत्रिक लोग_तंत्र उर्फ भारतीय चुनाव पद्धति

यह देश के प्रत्येक चुनाव का ढर्रा है. अर्थात केंद्र से लेकर राज्यों और नगरपालिकाओं से लेकर ग्राम पंचायतों तक में यही मान्य पद्धति है. अल्पमत में वोट प्राप्त करके भी सरकार बनती है. जनता की प्रतिनिधि सरकार चुनने की क्या यह पद्धति लोकतांत्रिक है? क्या यही लोकतंत्र है?

डॉ.अमिताभ शुक्ल

जब भारतीय संविधान और निर्वाचन पद्धति का सृजन हुआ होगा, तब उनके बुद्धिमान निर्माताओं को यह आभास भी नहीं होगा कि आगे चलकर यह उच्च कोटि का संविधान और भारतीय चुनाव पद्धति अनेक समस्याओं को जन्म दे सकती है. भारत में जिस लोकतांत्रिक निर्वाचन/चुनाव पद्धति को स्वीकार किया गया था, वह इतनी अलोकतांत्रिक सिद्ध होगी और राजनैतिक दलों की क्रियाएं इतनी करतबी हो जाएंगी कि लोकतंत्र एक मजाक बनकर रह जायेगा, यह कल्पना से परे था.

बहुमत/ अल्पमत एक साथ:

आजादी के बाद से अब तक अर्थात विगत 75 वर्षों के इतिहास में केंद्र में सत्ता प्राप्त किसी भी राजनैतिक दल को 51 प्रतिशत मत प्राप्त नहीं हुए. इसकी एक बानगी इस प्रकार है :

 वर्ष                                         सत्ता प्राप्त दल को प्राप्त मतों का प्रतिशत:

 1952                                        36.4 

 1957                                  47.8            

 1962                               44.7         

 1967                                       40.8                    

 1971                             43.7      

 1977                                         41.3 

1980                            42.7    

 1984                                   48.1    

 2014                       31.4        

 2019                          37.4            

उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि 100 में से 30, 40, 42, 45 इत्यादि मत प्राप्त दल सत्ता प्राप्त करते हैं, जबकि, शेष 70, 60, 58 और 55 प्रतिशत जनता/ वोट उनके पक्ष में नहीं होते हैं. अर्थात अल्पमत में वोट प्राप्त करके भी सरकार बनती है. यह देश के प्रत्येक चुनाव का ढर्रा है. अर्थात केंद्र से लेकर राज्यों और नगरपालिकाओं से लेकर ग्राम पंचायतों तक में यही मान्य पद्धति है. जनता की प्रतिनिधि सरकार चुनने की क्या यह पद्धति लोकतांत्रिक है? क्या यही लोकतंत्र है?

दल बदल, पार्टियों के भीतर अलोकतंत्र और उचित विकल्पों का अभाव:

ये समस्याएं विकराल रूप धारण कर चुकी हैं. विदित और स्वीकार्य हो चुका है कि दलबदल, जिसमें चुने हुए प्रतिनिधि दल बदल कर सरकार तक बदल देते हैं. अर्थात् जिस दल के उम्मीदवार के रूप में वे जनता द्वारा चुने गए, उन मतों के विरुद्ध होकर भी वह जन प्रतिनिधि बने रह पाते हैं. इस संबंध में यद्यपि, दल बदल विरोधी कानून है, लेकिन अनेकों स्थितियों में वह प्रभावशाली सिद्ध नहीं हो पाता है. राजनैतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव, अनेकों राजनैतिक दलों के होने पर भी उचित विकल्प वाले उम्मीदवार का अभाव इत्यादि के कारण भी जनता के पास विकल्प का अभाव क्या 75 वर्षों की परिपक्व लोकतांत्रिक चुनाव पद्धति में सही दिशा और दशा का सूचक है?

जातिवादी राजनीति और धन का प्रभाव :      

प्रजातंत्र की परिभाषा में “शिक्षित और जागरुक मतदाता को लोकतंत्र की अनिवार्य पूर्व शर्त” माना जाता है अर्थात् मतदाता लोकतंत्र का सजग प्रहरी होते हुए किसी प्रलोभन, स्वार्थ, जातिगत भावनाओं से परे हो कर मतदान करें. इस संबंध में बिना विस्तृत व्याख्या के जाहिर है कि भारतीय मतदाता, राजनैतिक दल और चुनावी समीकरण इन्हीं तत्वों द्वारा संचालित हो रहे हैं और इनका प्रभाव विकास के साथ साथ विकसित होता जा रहा है.

चुनाव सुधार की प्रक्रियाओं का धीमा हो जाना :

वर्ष 1974 में “लोकशाही अभियान” के साथ जोर पकड़े चुनाव सुधार की चर्चाएं अनेक आयोगों और समितियों की सिफारिशों के साथ ठंडे बस्तों में बंद हो चुकी हैं. एक उदाहरण के तौर पर “चुने गए प्रतिनिधि को जनता द्वारा वापस बुलाने के अधिकार” पर पर्याप्त चर्चाओं के बाद भी इस पर प्रस्ताव आगे नहीं बढ़ सका.

इसे भी पढ़ें:

असहमति को कुचलना लोकतंत्र नहीं है

राजनैतिक दलों की बढ़ती संख्या :

 चुनाव एक अच्छा खेल और सुविधा प्राप्ति का यंत्र है. अतः अनेकों कारणों से देश और राज्यों में राजनैतिक दलों की संख्या बढ़ती ही जा रही है. वर्तमान में चुनाव आयोग के द्वारा दिनांक  21 सितंबर 2021 को जारी प्रकाशन के अनुसार देश में पंजीकृत राजनैतिक दलों की संख्या 2858 है, जिनमें 8 राष्ट्रीय दल, 54 राज्यस्तरीय दल और 2796 गैर मान्यता प्राप्त राजनैतिक दल हैं. यद्यपि संविधान में 73वें और 74वें संसोधनों के द्वारा पंचायती राज व्यवस्था के चुनावों की पद्धति को क्रांतिकारी परिवर्तन मानते हुए लोकतंत्र को शक्तिशाली बनाने की दिशा में मील का पत्थर माना गया था. तथापि, इसके अंतर्गत हुए परिवर्तनों, जिनमें इन चुनावों में राजनैतिक दलों की उपस्थिति को अमान्य किया गया था, के बावजूद  सारे तंत्र और मंत्र पर राजनैतिक दलों का वर्चस्व कायम रहा है.

चुनाव पद्धति और विकास का सह संबंध :

एक लोकतांत्रिक और जिम्मेदार सरकार के गठन में जनता की भूमिका सर्वोपरि होती है. बिना राज्यों और राजनैतिक दलों का उल्लेख किए यह जिक्र करना आवश्यक है कि, जिन राज्यों की जनता अपेक्षाकृत रूप से अधिक जागरूक है, वे तुलनात्मक रूप से अधिक जिम्मेदार प्रतिनिधियों और सरकार का गठन कर पाते हैं. यह भी एक सीधा सह संबंध है कि, एक जिम्मेदार सरकार ही जनता के हितों और कल्याण के लिए समुचित नीतियों का निर्माण और क्रियान्वयन करेगी, अन्यथा भारत में सरकारों द्वारा जनता के हितों के विपरीत नीतियों का निर्माण आम बात होती जा रही है.

Leave a Reply

Your email address will not be published.

19 + 5 =

Related Articles

Back to top button