भारतीय चिकित्सा पद्धतियों के विकास में बाधक हैं ये काले कानून!!
सरकार जल्दी से जल्दी क़ानून बदले
देश की स्वतन्त्रता के पूर्व, स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों ने यह प्रस्ताव पारित किया था कि स्वतन्त्रता के उपरांत अखंड भारत की चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद, यूनानी और सिद्ध होगी क्योंकि उस समय तक भारत में होम्योपैथी का अभ्युदय नहीं हुआ था। परंतु, स्वतन्त्रता मिलने के पश्चात,उक्त प्रस्ताव के अनुरूप संविधान में आयुर्वेद, यूनानी और सिद्ध के नियमन के लिए कोई प्रबंध नहीं किया गया। जिसका परिणाम यह हुआ कि एलोपैथी को अधोषित रूप से देश की चिकित्सा पद्धति मान लिया गया। चूंकि स्वतन्त्रता के पूर्व चिकित्सा के नियमन और विनियमन हेतु अंग्रेजों द्वारा एलोपैथी को बढ़ावा देने के लिए बनाए गए थे, इसलिए, संविधान लागू होते समय ब्रिटिशकालीन इंडियन मेडिकल कौंसिल एक्त, 1933 काअस्तित्व बना रहा।
हमारे देश में एलोपैथिक औषधियों का निर्माण का कार्य बहुराष्ट्रीय कंपनियों, जो प्रायः विदेशी ही थीं, ने आरंभ किया था,उनका विकास, व्यवसाय एवं मुनाफे में तेजी से वृद्धि हो रही थी। इसलिए इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों का भरसक प्रयत्न यही रहा कि देश की चिकित्सा पद्धति एलोपैथी ही बनी रहे।
उस समय, न तो संचार के साधन इतने सुगम थे न तत्कालीन वैद्य,हकीम और सिद्ध संगठित ही थे। उपयुक्त विनियमों के अभाव में जिसको,जो और जैसी सुविधा हासिल थी, दिशाहीन होकर, वैसी चिकित्सा कर रहा था। जब चिकित्सा कार्य और चिकित्सा शिक्षा के लिए कानून की बात आई तो उक्त अधिनियम का ही पुनर्गठन कर एलोपैथी को ही देश की चिकित्सा मानते हुये इंडियन मेडिकल कौंसिल एक्ट,1956 लागू किया गया। इस अधिनियम में अधिकांश प्रावधान पूर्ववत ही रहे। इस अधिनियम की धारा 2(च) के अंतर्गत स्पष्ट कहा गया:
2 (च) “चिकित्सा (medicine) से आधुनिक आयुर्विज्ञान (आधुनिक वैज्ञानिक चिकित्सा) अभिप्रेत है और इसके अंतर्गत शल्य विज्ञान और प्रसूति विज्ञान भी है किन्तु इसके अंतर्गत पशु आयुर्विज्ञान और शल्य विज्ञान शामिल नहीं हैं”।
ध्यान देने योग्य यह है कि उक्त परिभाषा के अनुसार, आयुर्वेद,यूनानी और सिद्ध चिकित्सा पद्धतियां ‘चिकित्सा’ के अंतर्गत नहीं आतीं।इतना ही नहीं, जून 1964 में उक्त अधिनियम की धारा 15 में एक उपधारा जोड़ी गई जिसमें स्पष्ट प्रावधान था कि कोई ऐसा व्यक्ति जो स्टेट मेडिकल काउंसिल या मेडिकल कौंसिल ऑफ इंडिया में पंजीकृत नहीं है, वह किसी भी राज्य में “मेडिसिन” की प्रैक्टिस नहीं कर सकेगा क्योंकि मेडिसिन कर अर्थ तो आधुनिक वैज्ञानिक चिकित्सा ही थी। ऐसा करते हुये पाये जाने पर जेल और जुर्माने का प्रावधान किया गया था।
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आयुष चिकित्सकों द्वारा की जा रही चिकित्सा अवैधानिक घोषित हो जाने पर इन लोगों पर मुकदमे दर्ज किए जाने लगे तो इन चिकित्सकों द्वारा इस अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने पर भारतीय चिकित्सा पद्धतियों के निमयन के लिए 1970 में भारतीय चिकित्सा केन्द्रीय परिषद अधिनियम बनाया गया। उसमें प्रसूति विज्ञान को शामिल नहीं किया गया। यही स्थिति 1973 में केन्द्रीय होम्योपैथी अधिनियम बनाते समय भी रही। इतना ही नहीं आयुष चिकित्सकों को “मेडिकल प्रैक्टिश्नर” मानने के बजाय “प्रैक्टिश्नर ऑफ इंडियन सिस्टम ऑफ मेडिसिन” और प्रैक्टिश्नर ऑफ होम्योपैथी” कहा गया। स्टेट इंडियन मेडिसिन एक्ट्स में तो इन्हें “रजिस्टर्ड प्रैक्टिश्नर” ही कहा गया। “ रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिश्नर” केवल इंडियन मेडिकल कौंसिल के अंतर्गत पंजीकृत चिकित्सकों को कहा गया।
1976 में, एमटीपी एक्ट लाया गया जिसमें भी “रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिश्नर” के अंतर्गत केवल एमबीबीएस को ही ग्रहण किया गया। 1956 के एक्ट में धारा 15(2) जोड़े जाने के पश्चात, देश के वरिष्ठ आयुर्वेद-यूनानी चिकित्सकों ने इंजेक्शन निर्माण आरंभ किया जो मॉडर्न मेडिसिन से अधिक कारगर थे, आईवी इंजेक्शन पर कार्य चल रहा था,तभी 1 फरवरी 1983 को ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट 1940 की धारा 3(एच) में संशोधन कर यह प्रावधान किया गया कि आयुर्वेद, यूनानी,सिद्धा और होमियोपैथी में ऐसी औषधियों का निर्माण और पेटेंट नहीं कराया जा सकता जो अंत:पेशी, अंत:शिरा या अध:स्तवक प्रयोग की जा सके।
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1994 में पीएनडीटी एक्ट लागू कर स्पष्ट प्रविधानित कर दिया गया कि “रजिस्टर मेडिकल प्रैक्टिश्नर” से तात्पर्य इंडियन मेडिकल कौंसिल एक्ट 1956 के अंतर्गत परिभाषित मेडिकल प्रैक्टिश्नर” से है तथा कोई भी इमेजिंग टेस्ट के उपकरण वही रजिस्टर मेडिकल प्रैक्टिश्नर” खरीद सकेगा जो मेडिकल कौंसिल एक्ट 1956 के अंतर्गत रजिस्टर्ड हो।
1995 में मानव अंग प्रत्यारोपण (टीपीएचओ) अधिनियम 1994 बनाया गया जिसमें रजिस्टर मेडिकल प्रैक्टिश्नर” के अंतर्गत इंडियन मेडिकल कौंसिल एक्ट 1956 में परिभाषित मेडिकल प्रैक्टिश्नर” को ही लिया गया। 1995 में मानव अंग प्रत्यारोपण के लिए नियम बने उसमें भी एमएस (आयुर्वेद) और एमएस (यूनानी) को स्थान नहीं दिया गया। केवल उसी एमएस को मान्यता दी गई जो इंडियन मेडिकल कौंसिल एक्ट 1956 के अंतर्गत परिभाषित पंजीकृत था।
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अभी गत वर्ष, अस्तित्व में आए इंडियन मेडिकल कमीशन एक्ट,2019, मेडिकल कमीशन फॉर इंडियन मेडिसिन एक्ट, 2020 औरमेडिकल कमीशन फॉर होम्योपैथी एक्ट, 2020 अपने पूर्ववर्ती अधिनियमों के कॉपी के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं जो देश की परंपरागत चिकित्सा को हतोत्साहित करने वाले हैं। इसलिए, यदि सरकार वास्तव में भारतीय चिकित्सा पद्धतियों को मुख्य धारा में लाना चाहती है तो इसके लिए इन सभी अधिनियमों में व्यापक बदलाव करने होंगे और देश की आयुष चिकित्सा को राष्ट्रीय चिकित्सा या मुख्य चिकित्सा घोषित करनी होगी। अन्यथा, तथाकथित आधुनिक चिकित्सा के मकड़जाल से इस देश के नागरिकों को कोई राहत नहीं मिलने वाली।
आचार्य डॉ0 मदन गोपाल वाजपेयी, बी0ए0 एम0 एस0, पी0 जीo इन पंचकर्मा, विद्यावारिधि (आयुर्वेद), एन0डी0, साहित्यायुर्वेदरत्न, एम0ए0(संस्कृत) एम0ए0(दर्शन), एल-एल0बी0।
संपादक- चिकित्सा पल्लव,
पूर्व उपाध्यक्ष भारतीय चिकित्सा परिषद् उ0 प्र0,
संस्थापक आयुष ग्राम ट्रस्ट चित्रकूटधाम।
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