अफगानिस्तान में तालिबान सरकार को लेकर भारत सतर्क
अफ़ग़ानिस्तान में औपचारिक रूप से तालीबान सरकार बनने जा रही है. इस बीच अफ़गानिस्तान को लेकर भारत बहुत सतर्क दिख रहा है. पूरे पखवाड़े भर ’वेट एंड वॉच’ की रणनीति के तहत भारत चुप था. दोहा में भारत और तालिबान के बीच वार्ता हुई है जिसमें तालिबान भारतीय हितों का सम्मान करने पर राजी हो गया है.
लगातार हो रही हिंसा के बीच भारत का जोर अपने नागरिकों को अफ़ग़ानिस्तान से सुरक्षित निकालने पर था. तालिबान के वार्ताकार शेर मोहम्मद स्तनेकजई ने भारत को यह भरोसा भी दिलाया है कि अफ़ग़ानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल भारत के विरुद्ध आतंकवाद के लिए नही होने दिया जाएगा.
भारत की चिंताएं
भारत की चिंताएं बहुत हैं. अफ़गानिस्तान में 3 अरब डॉलर से ज्यादा का आर्थिक निवेश खटाई में पड़ता दिख रहा है. सामरिक रूप से अति महत्वपूर्ण ईरान का ’चाबहार बंदरगाह’ और मध्य एशिया को भारत से जोड़ने वाली ’तापी गैस पाइप लाइन परियोजना’ का भविष्य भी अंधकार में लग रहा है. यह सब भारत की दूरगामी नीतियों का प्रमुख हिस्सा मानी जा रही थीं. वहीं दूसरी तरफ तालिबान को चिंता है कि दक्षिण एशिया की एक बड़ी शक्ति भारत से वह इस समय टकराव की स्थिति में नहीं हैं.
भारत का सबसे बड़ा नुकसान इन भौतिक चीजों से इतर हुआ है. भारत पिछले कई वर्षों से अफ़ग़ानिस्तान को पाकिस्तान के खिलाफ एक मजबूत पक्ष के रूप में तैयार कर रहा था. ढांचागत विकास के साथ ही, सैन्य स्तर पर सहयोग से भारत और अफ़ग़ानिस्तान बहुत नजदीक आ गए थे. राजनैतिक उथलपुथल के दौर में मानवीय सहयोग के साथ साथ सेना की ट्रेनिंग में भारत अहम साझीदार बना रहा.
चरमपंथी तालिबान से भारत को खतरा
चूंकि इतिहास में अफ़ग़ानिस्तान चरम पंथियों के लिए एक उपजाऊ जमीन बन चुका था और पाकिस्तान इन चरमपंथी गुटों का इस्तेमाल भारत के खिलाफ करता रहा है, इसलिए भारत मानवीय आधार पर आम अफगानियों के साथ सौहार्द पूर्ण रिश्ते बनाना चाह रहा था. इस प्रक्रिया में भारत को आशातीत सफलता भी मिली थी. आम नागरिकों के साथ साथ चुनी हुई सरकारों ने भी भारत की सामरिक जरूरतों का पूरा सम्मान किया. हालांकि यह पाकिस्तान के साथ उन सरकारों के कड़वे रिश्तों की सबसे बड़ी वजह भी रही.
चरमपंथ का पड़ोस में उदय भारत को भीतर से भी प्रभावित कर सकता है. तालिबान की विजय भारत के अंदर बैठे कई आतंकी गुटों के अंदर एक बार फिर से ऊर्जा फूंक सकती है, जो आतंकवाद के विरुद्ध भारत के हालिया सख्त रवैये की वजह से बेजान पड़ गए थे. दूसरे, पाकिस्तान के अंदर भारत के खिलाफ चलाए जा रहे आतंकी कैंप, जिनकी गतिविधियां एयर स्ट्राइक और सर्जिकल स्ट्राइक के बाद से कुछ मंद पड़ गई दिखती थीं, अब सीमा से हटाकर तालीबानी क्षेत्रों में ले जाई जा सकती हैं.
तालिबान और अन्य आतंकी संगठनों में कलह
31 अगस्त महत्वपूर्ण तिथि थी. अमेरिका का आखिरी सैनिक भी इस दिन अफ़गानिस्तान को उसके हाल पर छोड़ कर निकल गया. जाते जाते दुनिया ने संघर्ष की नई इबारत देख ली. नेपथ्य में जा चुका आतंकी गुट आईएस–केपी फिर से मुख्य भूमिकाओं में आना चाहता है. काबुल पर हुए बड़े हमले की जिम्मेदारी ले कर उसने अमेरिका समेत पूरे विश्व को सचेत कर दिया है कि वह कभी भी किसी के लिए भी खतरा बन सकता है.
तालिबान और अफ़ग़ानिस्तान के अन्य आतंकी संगठनों के आपसी संबंध भी काफी उलझे हुए हैं. कभी एक साथ मिल कर पश्चिमी ताकतों के लिए सरदर्द बने तमाम आतंकी गुटों में अब वर्चस्व की जंग भी देखने को मिलेगी, ऐसे संकेत मिलने लगे हैं. दुर्दांत हक्कानी नेटवर्क तालिबान के साथ सत्ता में अपनी भागेदारी सुनिश्चित कर रहा है. खबरें यह भी हैं कि प्रस्तावित सत्ता को लेकर हक्कानी गुटों में आपस में भी तनातनी है और तालिबान के साथ भी.
उधर आईएस–केपी ने तालिबान के विरुद्ध अपने मंसूबे जाहिर कर दिए हैं. चूंकि इस्लामिक स्टेट दुनिया के एक बड़े भूभाग को लेकर अपनी आतंक नीति बनाता रहा है, वह मानता है कि तालिबान सिर्फ अफ़ग़ानिस्तान केंद्रित हो गया है और यह उनकी जेहाद की वैश्विक परिकल्पना के उलट है.
हैरान करती है तालिबान की विजय
तालिबान के कहर से हलकान अफगान भूमि के बाशिंदे दुनिया की प्राथमिकताओं में कहीं पीछे छूट गए. जिस तरह की तेजी अमेरिका ने अफ़गानिस्तान छोड़ने में दिखाई है, वह हैरान करने वाली है. अफ़गानिस्तान की फौज ने तालिबान के सामने बिना लड़े ही हथियार डाल दिए. करप्शन के आरोपों से कंठ तक डूबा सिविल प्रशासन बिना किसी संघर्ष के घुटने टेक गया. राजनेताओं ने अपनी जान बचाने को प्राथमिकता दी, राष्ट्रपति अशरफ गनी भी अप्रत्याशित रूप से देश को छोड़ कर भाग निकले.
छिटपुट संघर्ष सिर्फ पंजशीर घाटी में देखने को मिला है, जहां अपदस्थ उपराष्ट्रपति अमरुल्लाह सालेह और पंजशीर के शेर के नाम से प्रसिद्ध अहमद मसूद शाह के पुत्र शाह मसूद ने तालिबानी चरमपंथियों को अब तक रोक रखा है. किंतु वास्तविकता के धरातल पर अगर देखें तो पंजशीर का संघर्ष भी सीमित है. तमाम अमरीकी हथियारों पर कब्जा जमाए तालिबानियों की ताकत उनसे कई गुना ज्यादा बड़ी है. वह जानते हैं कि इन परिस्थितियों में बाहरी दुनिया से भी उनको मदद मिल पानी लगभग असम्भव है.
पाकिस्तान को भी है खतरा
दुनिया जल्दी में नहीं है. अफ़ग़ानिस्तान के इस खूनी संघर्ष में सब अपने हितों पर काम करते दिख रहे हैं. भले ही फिलहाल पाकिस्तान को सबसे ज्यादा फायदा मिलता दिख रहा हो, असल में वह भी जानता है कि उसके पाले और बढ़ावा दिए हुए यह आतंकी गुट खुद पाकिस्तान के लिए भी खतरा हैं. अतीत में ’सैनिक स्कूल शूटआउट’ समेत दर्जनों आतंकी हमलों में इन चरमपंथियों का हाथ स्पष्ट रूप से था जो अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता हाथ में आते ही ज्यादा भयानक हो सकता है.
तालिबान से संबंधों में सतर्कता जरूरी
भारत ने अब जब तालिबान से औपचारिक बात करना शुरू कर दिया है तो वह यही चाहेगा कि भारत के हित सर्वोपरि रखे जाएं. तालिबान का शासन आज की सच्चाई है. बदहाल आर्थिक हालात के दौर में तालिबान को भी भारत की जरूरत पड़ेगी, यह भी सच्चाई है. भारत मानवीय सहायता के सहारे अफ़ग़ानिस्तान को मदद के लिए हाथ बढ़ा सकता है, किंतु अपनी शर्तों पर. यह शर्तें स्पष्ट होनी चाहिए, जैसे कि तालिबान अपनी भूमि का इस्तेमाल भारत के खिलाफ नहीं करेगा, भारत के आर्थिक हितों की रक्षा करेगा. अन्य आतंकी संगठनों पर लगाम लगाएगा आदि.
इसके साथ ही आतंकवाद पर जीरो टॉलरेंस की घरेलू पॉलिसी पर भी टिके रहना बेहद जरूरी है, इसके लिए खुफिया एजेंसियों को सतर्क करना पड़ेगा. अभी शुरुआती दौर है, आगे परिस्थितियां जैसा रूप लें, भारत को वैसे रणनीति बनानी चाहिए. क्षेत्र की एक बड़ी राजनैतिक और आर्थिक ताकत होने की वजह से भारत को अफगान खेल का हिस्सा बने रहना होगा. क्योंकि अलग थलग पड़ कर बड़ी जंगें नहीं जीती जाती. यहां जंग आतंक से है.
(लेखक सेवानिवृत्त वायु सेना अधिकारी हैं, मीडिया स्वराज सहित विभिन्न चैनलों पर रक्षा और सामरिक मामलों पर अपनी राय रखते हैं.)