साबरमती आश्रम और स्वतंत्रता आंदोलन की धरोहरों को कैसे बचाएँ!

स्वतंत्रता आंदोलन की धरोहरों – साबरमती आश्रम, सेवाग्राम और जलियाँवाला बाग आदि को कैसे बचाएँ? बीबीसी संवाददाता राम दत्त त्रिपाठी के ट्विटर प्रश्न पर प्रयागराज से प्रो. स्वप्निल श्रीवास्तव की त्वरित टिप्पणी.

प्रो स्वप्निल श्रीवास्तव, प्रयागराज

साबरमती आश्रम, सेवाग्राम आदि ऐतिहासिक धरोहरों के साथ ही साथ जीवन्त धरोहरें भी हैं। ये सदा हमें स्वराज के पथ पर चलने के लिए प्रेरित करती हैं।

साबरमती आश्रम जहां से गांधी ने डांडी मार्च शुरू किया था
साबरमती आश्रम जहां से गांधी ने डांडी मार्च शुरू किया था

इन जैसी धरोहरों के साथ जितनी बाह्य छेड़छाड़ हो रही है उतनी ही आन्तरिक भी। इनमें सिद्धान्तों के साथ गत्यात्मकता लाकर ही इनका बचाव हो सकता है।

यह भी सोचने की जरूरत है कि अगर महात्मा गाँधी आज जीवित होते और उसी ताकत(भीतरी शक्ति) व ऊर्जा के साथ तो आज की परिस्थितियों में वे क्या करते?

उन्होंने लगातार अंग्रेजों के शासन के विरोध के साथ ही साथ उनके साथ चल रहे आन्दोलन के साथियों को भी सत्याग्रह के लिए प्रेरित किया है।

इस सत्याग्रह की शुरुआत स्वयं से ही होती है परंतु आज तो सत्याग्रह सिर्फ दिखावे की वस्तु बनता जा रहा है। हम विरोध और धरना प्रदर्शन को ही सत्याग्रह समझ बैठे हैं।

बापू कुटी सेवा ग्राम
बापू कुटी सेवा ग्राम

हमें यह बदलाव सबसे पहले स्वयं में ही करना होगा। दिखावे के लिए और सिर्फ यशेषणा के लिए आन्दोलन का इस्तेमाल आन्दोलन नहीं होता है।

आज चारों तरफ इसी की भरमार है।हम राजनीतिक रूप से संख्याबल के सम्मोहन में में फँस गये हैं या कहें कि इस मानसिकता का शिकार हो गये हैं।

संख्याबल की जगह आत्मबल को प्राथमिकता देनी होगी तभी हम शायद अपने अन्दर साबरमती आश्रम, सेवाग्राम आश्रम जैसी ऐतिहासिक धरोहरों को जीवित रख सकेंगे।

बाह्यरूप से इनको बचाना बहुत जरूरी है परंतु आंतरिक रूप से इनको बचाना उससे भी कहीं ज़्यादा जरूरी। अगर आपके अन्दर आत्मबल हो तो धीरे धीरे संख्याबल हो ही जाता है। गाँधी से यही सीखने की जरूरत है।

गाँधी जी सदैव सत्य, अहिंसा के साथ अपने कर्तव्यपथ पर चलते रहे और उन्होंने इन सिद्धांतों और जीवनमूल्यों के साथ समझौता नहीं किया। इस कारण उन्हें अपने प्रियजनों का त्याग भी करना पड़ा और उलाहना भी सुनना पड़ा। इस कारण उनका विरोध भी हुआ और वह आज भी जारी है।

अगर हम गाँधी को सिर्फ ऐतिहासिक पुरूष के रूप में देखेंगे तो यह विरोध कभी कभी सही भी लग सकता है. लेकिन गाँधी ऐतिहासिक से कहीं ज़्यादा आध्यात्मिक थे।

यह बात आप उनकी रचना गीता माता को पढ़कर भी समझ सकते हैं।

आध्यत्मिकता के स्तर पर उतर कर देखने पर ही गाँधी, स्वतन्त्रता आन्दोलन व भारतीय संस्कृति से जुड़ी धरोहरों को हम बचा सकेंगे।

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