स्वतंत्रता के पचहत्तर वर्षों में भारतीय महिलाएँ

देश के पुनर्निर्माण में महिलाओं का अतिमहत्त्वपूर्ण योगदान

स्वतंत्रता के पचहत्तर वर्षों में भारतीय महिलाएँ दुनिया के अन्य देशों की तुलना में कहाँ ठहरती हैं, एक पड़ताल कर रहे हैं शिक्षाविद पद्मश्री डा रवींद्र कुमार.

Picture of Dr Ravindra Kumar
डॉ0 रवीन्द्र कुमार*

हमारा देश भारत, विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र, अँग्रेजी उपनिवेशवाद से अपनी स्वतंत्रता के पचहत्तर वर्ष पूर्ण करने की ओर बढ़ रहा है। हम अपने देश की स्वाधीनता की हीरक जयन्ती मनाने की तैयारी में हैं। अँग्रेजों से भारत ने जो स्वतंत्रता प्राप्त की है, उसमें देश की महिलाओं के योगदान को, जो जनसँख्या का लगभग आधा हैं, किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है। वर्ष 1857 ईसवीं के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में रानी लक्ष्मीबाई (1828-1858 ईसवीं) और अवन्तीबाई लोधी (1831-1958 ईसवीं) से लेकर वर्ष 1947 ईसवीं में देश की स्वतंत्रता तक भीखाजी कामा (1861-1936 ईसवीं), सरोजिनी नायडू (1879-1949 ईसवीं), अमृतकौर (1887-1964 ईसवीं), कमलादेवी चट्टोपाध्याय (1903-1988 ईसवीं) व लक्ष्मी सहगल (1914-2012 ईसवीं) सहित अनेकानेक वीरांगनाओं, साहसी और बलिदानकर्त्री महिलाओं की राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन में भूमिका, और उनका योगदान देश के इतिहास के सुनहरे पृष्ठों का अभिन्न भाग है।

देश के पुनर्निर्माण में महिलाओं का अतिमहत्त्वपूर्ण योगदान

स्वाधीनता के उपरान्त प्रत्येक क्षेत्र में देश के पुनर्निर्माण में भी महिलाओं का अतिमहत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। समाज, शिक्षा, विज्ञान, राजनीति, कला, साहित्य और संस्कृति, व आर्थिक क्षेत्र में जहाँ-जहाँ भी महिलाओं को अवसर मिले, उन्होंने अपने श्रम, लगन, प्रतिभा और कौशल यह सिद्ध किया कि वे भीसमाज एवं राष्ट्र के लिए वह सब कुछ कर सकती हैं, जो पुरुष कर सकते हैं। यही नहीं, विज्ञान व राजनीति सहित कुछ क्षेत्रों में तो महिलाओं ने अभूतपूर्व कर दिखाया है। हम सब इस सत्यता से परिचित हैं; इसलिए, इसके विस्तार में जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। 

देश की स्वाधीनता के उपरान्त महिलाओं की, जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उनकी भागीदारी के साथ, उन्हें सशक्त करने के उद्देश्य से, समय-समय पर कदम भी उठाए गए, जिनमें अनेक अति उल्लेखनीय स्वीकार किए जा सकते हैं। संविधान में पुरुषों ही के समान मताधिकार व अन्य अधिकारों का प्रावधान, विशेष विवाह अधिनियम वर्ष 1954 ईसवीं तथा हिन्दू विवाह अधिनियम वर्ष1955 ईसवीं, क्रमशः, महिलाओं के लिए उठाए गए कदमों के सन्दर्भ में ही देखे जाने चाहिए। वर्ष 2005 ईसवीं का उत्तराधिकार अधिनियम, बाद में उस पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा, अधिनियम को और प्रभावकारी बनाने के उद्देश्य से, दी गई व्यवस्था भी महिलाओं के सशक्तिकरण की दिशा में एक ठोस प्रयास थी।       

इस दिशा में देश में और भी कार्य हुए हैं। गत कुछ वर्षों में विशाल स्तर पर, विशेषकर गाँवों के घरों में शौचालयों के निर्माण, दूर-दूर तक घरों में गैस कनेक्शन की व्यवस्था आदि जैसे कार्यों को भी, प्राथमिकता से, महिलाओं के लाभ के सन्दर्भ में, उनके सम्मान व स्वास्थ्य के साथ जोड़कर देखा जा सकता हैI 

आरक्षण की व्यवस्था वास्तव में एक क्रान्तिकारी कदम

लेकिन, वर्ष 1993 ईसवीं में, देश की स्वाधीनता के छियालीस वर्षों के बाद, संविधान में 73वें-74वें संशोधनों द्वारा पंचायतों-नगर-निकायों में महिलाओं के लिए तैंतीस प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था, वास्तव में ही, एक क्रान्तिकारी कदम थाI महिला-सशक्तिकरण के मार्ग को प्रशस्त करने वाला था। इस कदम को और बल उस समय मिला, जब बिहार, हिमाचल प्रदेश, केरल, राजस्थान व उत्तराखण्ड जैसे प्रान्तों ने इस महिला आरक्षण को तैंतीस से बढ़ाकर पचास प्रतिशत कर दिया। 

इसने शताब्दियों से लिंग के आधार पर जारी विडम्बनापूर्ण महिला-भेदभाव और असमानता की खाई को पाटने की दिशा में सुदृढ़ न्यूनाधिक कार्य कियाI लेकिन, इस दिशा में तो अभी कुछ और भी किया जाना शेष है। प्राथमिकता से प्रान्तीय विधायिकाओं और संसद में भी इसी प्रकार की व्यवस्था अपेक्षित हैI यह समय की माँग है। इससे निश्चित ही, मूल विधि-निर्मात्री संस्थाओं में ठोस प्रतिनिधित्व के बल पर, महिलाओं की शासन में भागीदारी से उनके सशक्तिकरण व आत्मनिर्भरता की सुनिश्चितता की ओर तीव्रता से कदम बढ़ेंगे।   

यहाँ मैं एक और वास्तविकता को भी रखना चाहूँगा। महिला सशक्तिकरण और आत्मनिर्भरता, वैधानिक व्यवस्थाओं के बावजूद, तभी सुनिश्चित हो सकती है, जब पुरुष-वर्ग समाज और राष्ट्र की उन्नति में महिलाओं के अपरिहार्य योगदान और उनकी भूमिका की सत्यता को स्वीकार करे। इस सम्बन्ध में अपनी मानसिकता को परिवर्तित कर महिलाओं के साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर आगे बढ़े। यह स्थिति कठिन प्रतीत हो सकती है, लेकिन असम्भव नहीं है। यह अब आवश्यक भी है। स्वाधीनता की हीरक जयन्ती के द्वार पर खड़े भारत को, विशेषकर पुरुष-वर्ग को, यह सुनिश्चित करना ही चाहिए।

*पद्म श्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय सम्मान से अलंकृत इण्डोलॉजिस्ट डॉरवीन्द्र कुमार चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालयमेरठ के पूर्व कुलपति हैंसाथ ही ग्लोबल पीस अन्तर्राष्ट्रीय पत्रिका के प्रधान सम्पादक भी हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published.

16 − 12 =

Related Articles

Back to top button