होली विशेष: टिहरी की ऐतिहासिक होली – एक डूबी हुई परंपरा की गूंज

शीशपाल गुसाईं

टिहरी: इतिहास, परंपरा और जल समाधि

उत्तराखंड का टिहरी शहर, जो अपनी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर के लिए प्रसिद्ध था, अब केवल स्मृतियों में बसता है। लगभग 190 वर्षों तक यह शहर राजाओं की गाथाओं, जनता के संघर्ष और समृद्ध परंपराओं का केंद्र रहा। पहाड़ों के बीच बसा यह शहर अपनी जीवंतता और सामुदायिकता के लिए जाना जाता था।

लेकिन 2005 में टिहरी बांध के निर्माण ने इस ऐतिहासिक शहर और आसपास के लगभग डेढ़ सौ गांवों को जलमग्न कर दिया। बांध का उद्देश्य था देश के 9 राज्यों को बिजली आपूर्ति, उत्तर प्रदेश में सिंचाई व्यवस्था और दिल्ली को पेयजल मुहैया कराना। लेकिन इस विकास की कीमत टिहरी जैसे समृद्ध सांस्कृतिक स्थल को खोने के रूप में चुकानी पड़ी।

टिहरी की होली: जब राजा और प्रजा एक साथ खेलते थे रंगों से

टिहरी केवल अपने भौगोलिक अस्तित्व से नहीं, बल्कि अपनी समृद्ध परंपराओं और त्योहारों से भी पहचाना जाता था। उनमें से एक था टिहरी का ऐतिहासिक होली उत्सव, जो राजा और प्रजा के आपसी प्रेम और समर्पण का प्रतीक था। इस तरह की होली शायद ही किसी अन्य पहाड़ी रियासत में देखने को मिलती थी।

पुराने दरबार में होली का दरबार सजता था

नवमीं से होली महोत्सव की शुरुआत होती थी। टिहरी के महाराजा का मुख्य महल नए दरबार चनाखेत में था, लेकिन होली की महफिल पुराने दरबार में लगती थी, जहां महाराजा नरेंद्र शाह की दादी, महारानी गुलेरिया राज दादी, निवास करती थीं

दरबार में राजा से लेकर सामान्य कर्मचारी तक, हर वर्ग के लोग शामिल होते थे—चाहे वे हिंदू हों, मुसलमान हों या ईसाई। सभी के लिए सफेद पोशाक अनिवार्य होती थी, और सभी अपनी-अपनी जगह बैठते थे।

दरबार की विशेषताएं:

✅ महाराजा की मसनद बिल्कुल सफेद होती थी।

✅ कर्मचारी, अधिकारी, कुटुंबीजन और शहर के लोग अपनी-अपनी श्रेणी के अनुसार बैठते थे।

✅ प्रत्येक व्यक्ति को पीला सूखा रंग और लाल गुलाल दिया जाता था।

✅ रंगों से भरी रकाबियां और चांदी के कुंडों में पानीदार रंग रखे जाते थे।

✅ टेसू के फूल और अन्य प्राकृतिक रंगों से बने गीले रंग बाल्टियों और कुंडों में भरकर परोसे जाते थे।

✅ महाराजा स्वयं चांदी के कुंड में रखे गीले रंगों से होली खेलते थे

जैसे ही सारी तैयारियां पूरी हो जाती थीं, महाराजा अपनी दादी के महल से बाहर आते थे और दरबार में रंगों की होली शुरू होती थी

अष्टमी की होली: जब बद्रीनाथ जी पर चढ़ता था कोरा रंग

होली के इस ऐतिहासिक उत्सव की शुरुआत अष्टमी की सुबह से होती थी। राज्य ज्योतिषी द्वारा तय शुभ मुहूर्त के अनुसार, इस दिन राजपरिवार और जनता शहर के प्रमुख मंदिरों में भगवान शिव, श्री रघुनाथ जी और श्री बद्रीनाथ जी को रंग अर्पित करते थे

क्या थी खासियत?

✔ इस दिन केवल कोरा रंग (सूखा रंग) लगाया जाता था, गीले रंगों का उपयोग नहीं होता था।

✔ बद्रीनाथ मंदिर, जिसे महारानी गुलेरिया ने बनवाया था, इस परंपरा का केंद्र होता था।

✔ यह मंदिर भागीरथी और भिलंगना नदी के संगम के पास स्थित था और इसे टिहरी का बद्रीनाथ धाम भी कहा जाता था।

मंदिर निर्माण की कहानी:

महारानी गुलेरिया बद्रीनाथ धाम की तीर्थ यात्रा पर नहीं जा सकीं, लेकिन उनकी गहरी आस्था ने उन्हें टिहरी में ही बद्रीनाथ मंदिर बनवाने के लिए प्रेरित किया। यह मंदिर न केवल उनकी धार्मिक भावना का प्रतीक था, बल्कि टिहरी की सांस्कृतिक धरोहर का भी महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया।

टिहरी की होली: एक खोई हुई विरासत

आज टिहरी शहर जलमग्न हो चुका है, लेकिन इसकी परंपराएं, त्योहार और ऐतिहासिक महत्त्व आज भी लोगों के दिलों में जिंदा हैं। टिहरी की होली केवल एक त्योहार नहीं थी, बल्कि राजा और प्रजा के बीच गहरे संबंधों की कहानी थी

क्या यह परंपरा फिर से जीवित हो सकती है?

शायद नहीं, क्योंकि टिहरी का भौगोलिक अस्तित्व मिट चुका है। लेकिन इसकी कहानियां, यादें और इतिहास हमेशा जीवित रहेंगे—एक ऐसी विरासत के रूप में, जिसे भुलाया नहीं जा सकता।

“यह लेख श्री शीशपाल गुसाईं द्वारा लिखा गया है, जिन्होंने टिहरी की ऐतिहासिक होली और इसकी सॉंस्कृतिक विरासत को संजोने का सराहनीय प्रयास किया है। उनका लेखन हमें उस खोई हुई परंपराकी याद दिलाता है, जो टिहरी के साथ जलमग्न हो गई, लेकिन दिलों में हमेशा जीवित रहेगी।”

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