उत्तराखंड में जल विद्युत परियोजनाओं का विनाश और धन संग्रह

केदारनाथ की आपदा का संदेश भी अनसुना

उत्तराखंड में जल विद्युत परियोजनाएँ और चार धाम आल वेदर रोड परियोजना हिमालय और उससे निकलने वाले नदी नालों का विनाश कर रही हैं. ये बिजली परियोजनाएँ हिमालय में भूस्खलन और तबाही का कारण बन रही हैं. लेकिन स्थानीय जनता के विरोध, विशेषज्ञों की आपत्ति और अदालत की मनाही के बावजूद ये परियोजनाएँ क्यों नहीं रुक रही हैं, इस रहस्य से पर्दा हटा रहे हैं देहरादून से वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत.

गंगा नदी पर जल विद्युत परियोजनाएँ

विष्णु प्रयाग जल विद्युत परियोजना की सुरंग के ऊपर बसा चमोली जिले के जोशीमठ ब्लाक का र्चाइं गांव जब अक्टूबर 2007 में धंसने लगा तो राज्य सरकार ने खानापूरी करने के लिये जमीन के इस धंसाव की जांच आपदा प्रबंधन समेत विभिन्न विभागों के संयुक्त दल से कराई। जैसा अक्सर होता है इस सरकारी विशेषज्ञ दल ने सच्चाई सामने लाने के बजाय बिजली परियोजना को क्लीन चिट दे दी।

जब मैंने दल में शामिल एक भूवैज्ञानिक से पूछा तो कहने लगे हमने भी दस्तूर ही निभाया है। इस घटना की जांच अपने स्तर से चिपको आन्दोलन के प्रणेता चण्डी प्रसाद भट्ट ने भी कराई और उन्होंने अपने लेख में इस धंसाव के लिये सीधे तौर पर बिजली परियोजना की सुरंग के रिसाव को जिम्मेदार बताया। उन्होंने लेख में यह भी कहा कि इसी प्रकार उत्तरकाशी में मनेरी-भाली परियोजना की सुरंग के ऊपर स्थित जामक गांव पर भी सुरंग का असर पड़ा और नतीजतन अक्टूबर 1991 के उत्तरकाशी भूकंप में सबसे अधिक नुकसान भी इसी गांव में हुआ था।

गौरी गंगा नदी पर जल विद्युत  परियोजनाएँ

केदारनाथ की आपदा का संदेश भी अनसुना

उन्होंने उसी समय धौलीगंगा पर बन रही तपोवन-विष्णुगाड परियोजना से तपोवन क्षेत्र के लिये खतरे से भी आगाह कर दिया था। ये चेतावनियां तो नकार खाने की तूती बनी ही मगर केदारनाथ की आपदा का संदेश भी बिजली परियोजनाओं की बंदरबांट करने वालों ने अनसुना कर दिया गया। केदारनाथ आपदा से सबक लेने के बजाय पुनर्निर्माण के नाम पर वहां इतना भारी निर्माण करा दिया गया जो कि भविष्य के लिये दूसरी आपदा का कारण बनेगा। आल वेदर रोड के नाम पर पहाड़ों का सत्यानाश कर दिया है।

अलकनंदा घाटी पर जल विद्युत परियोजनाएँ


सर्वोच्च न्यायालय ने केदारनाथ आपदा के बाद उत्तराखण्ड के पर्यावरणीय दृष्टि से अति संवेदनशील क्षेत्रों में लगाई जा रही जिन 24 परियोजनाओं पर रोक लगाई थी उनको दुबारा शुरू कराने के लिये केन्द्र एवं राज्य सरकारें पूरा जोर लगा रही हैं।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा रोकी गयी परियोजनाओं में ऋषि गंगा प्रथम (70 मे0वा0) एवं ऋषि गंगा द्वितीय (35 मे0वा0) के साथ ही लाता-तपोवन (171 मे0वा0) भी शामिल हैं। ये तीनों परियोजनाएं हाल ही में जलप्रलय प्रभावित क्षेत्र में ही स्वीकृत हैं। अगर कोर्ट द्वारा इनको रोका गया न होता तो आज धौलीगंगा की बर्फीली बाढ़ की विभीषिका अकल्पनीय हो सकती थी।

मंदाकिनी नदी पर जल विद्युत परियोजनाएँ

बाढ़ में क्षतिग्रस्त होने वाली एक निजी कंपनी की मूल ऋषिगंगा परियोजना 2013 में सुप्रीमकोर्ट की रोक से तो बची मगर 2016 में बादल फटने के बाद आयी बाढ़ से नहीं बच पायी और यह जब दूसरी बार बन कर तैयार हुयी तो 7 फरबरी को दुबारा बाढ़ में बह गयी। इस उच्च हिमालय क्षेत्र की रोकी गयी लाता-तपोवन परियोजना में 7.51 किमी लम्बी हेड रेस और 320 मी0 टेल रेस सुरंगें बननी थीं। अब कल्पना की जा सकती है कि इन सुरंगों के लिये अति संवेदनशील क्षेत्र में कितने विस्फोट होते और सुरंगो से निकला मलबा बाढ़ को कितना भयंकर बना देता।

ऋषिगंगा प्रोजेक्ट के अलावा भी उत्तरकाशी में कालीगंगा पर बना प्रोजेक्ट 2013 की बाढ़ में बह गया था जिसका हाल ही में पुनर्निमार्ण हुआ और मुख्यमंत्री ने स्वयं उसका उद्घाटन किया। इसी प्रकार उसी दौरान केदारनाथ घाटी की बाढ़ में रामबाड़ा का प्रोजक्ट पूरी तरह नष्ट हो गया था। उत्तराखण्ड राज्य के गठन के समय नये राज्य को 23 लघु जलविद्युत परियोजनाएं मिली थीं जिनमें से लगभग सभी आज गायब ही हैं।

अत्यधिक ढाल के कारण बहुत ही तेज गति से बहने वाले नदी नालों पर बनी ये परियोजनाऐं दूसरी बरसात में बह जाती हैं फिर भी सरकार में बैठे लोग निजी स्वार्थों से प्रेरित हो कर ऐसे नालों पर नयी परियोजनाएं आंबंटित कर देते हैं। इन छोटी योजनाओं के मलबे ने पहाड़ों में त्वरित बाढ़ की विभीषिका को बढ़ाने के साथ ही अलकनन्दा और भागीरथी नदियों का रिवर बेड भी ऊंचा किया जिससे नदियों का रुख प्रभावित हुआ है।

आंख मूंद कर राजस्व कमाने की होड़

आंख मूंद कर राजस्व कमाने की होड़ के साथ ही भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा ने राज्य के अपार जल संसाधनों की लूट खसोट और कच्चे पहाड़ों को बेरहमी से काटने और छेदने की छूट दे दी है। भारत सरकार के नियमों के अनुसार 25 मेगावाट से कम क्षमता की बिजली परियोजनाओं के लिये पर्यावरणीय क्लीयरेंस की कोई जरूरत नहीं है। इसी प्रकार हजार करोड़ से कम लागत की परियोजनाओं के लिये भी केन्द्र सरकार से अनुमति लेने की जरूरत नहीं है।

इसी ढील का लाभ उठा कर निजी कंपनियों के हाथों छोटी परियोजनाओं का बेतहासा आबंटन होता रहा और निजी कंपनियां उच्च स्तर से मिले अनैतिक संरक्षण के बलबूते हिमालय पर बेरोकटोक अत्याचार करते रहीं। नन्दादेवी बायोस्फीयर रिजर्व से लगी फूलों की घाटी के निकट निजी कंपनी को आबंटित भ्यूंडार बिजली परियोजना की क्षमता 24.3 मेगावाट से कम रखे जाने का मकसद समझा जा सकता है।

सवाल उठता है कि कहीं पर्यावरण क्लीयरेंस के झंझट से बचने के लिये इस प्रोजेक्ट की स्थापित क्षमता जानबूझ कर 25 मेगावाट से नीचे तो नहीं दिखाई गयी? वैसे भी पानी के अभाव में किसी भी परियोजना से उसकी इन्सटाॅल्ड कैपेसिटी या अधिष्ठापित क्षमता के बाराबर बिजली उत्पादन कभी नहीं होता।

बिजली परियोजनाएँ धन संग्रह का ज़रिया

बिजली परियोजनाओं को निजी कंपनियों को बेचना ‘‘हींग लगे ना फिटकरी रंग चोखा-चोखा जाय’’ वाली कहावत चरितार्थ करता ही है साथ ही चुनाव लड़ने के लिये धान संग्रह का भी जरिया बनता रहा है। सरकार द्वारा कंपनियों को विकास के लिये आंबंटित कुल 33 नयी परियोजनाओं में से 24 परियोजनाएं 25 मेगावाट से कम क्षमता की होने से स्वतः ही उन्हें अति संवेदनशील क्षेत्रों में भी पर्यावरणीय बंधनों से मुक्त करा दिया गया।

नवम्बर 2010 में जब इसी तरह की 56 बिजली परियोजनाओं के आंबटन में भ्रष्टचार की शिकायत हाइकोर्ट तक पहुंची तो राज्य सरकार को कोर्ट में सुनवाई से पहले स्वयं ही सारे आबंटन रद्द करने पड़े थे। तब एक शराब माफिया की कंपनियों को भी बिजली परियोजनाएं बेची गयीं थीं। माफियों से गठजोड़ का उदाहरण माफिया के बहुत करीबी को सरकार द्वारा राज्यमंत्री स्तर का पद दिया जाना है।

यमुना और टोंस पर 17 छोटी बड़ी परियोजनाऐं

यमुना और टोंस पर 17 छोटी बड़ी परियोजनाऐं उत्पादन कर रही हैं तथा 20 परियोजनाऐं प्रस्तावित हैं। इसी प्रकार अलकनन्दा कैचमेंट में 6 परियोजनाएं चालू हैं और 8 निर्माणाधीन हैं। जबकि इसी क्षेत्र में 24 नयी परियोजनाऐं विभिन्न विकासकर्ताओं को आबंटित की जा चुकी है। राज्य में इस समय कुल 37 परियोजनाएं उत्पादनरत् हैं और उनमें भी 18 परियोजनाएं निजी हाथों में हैं।

यमुना नदी घाटी पर प्रमुख जल विद्युत परियोजनाएँ

वर्तमान में राज्य सरकार के उपक्रम यूजेवीएनएल को 2723.8 मेगावट क्षमता की 32, केन्द्रीय उपक्रमों को 5801 मेगावाट की 32 और निजी क्षेत्र की कंपनियों को 1360.8 मेगावाट की 33 परियोजनाऐं विकसित करने के लिये आबंटित की गयी हैं। इन 9885.6 मेगावाट की 77 आबंटित परियोजनाओं में से ही 24 को सुप्रीम कोर्ट ने रोका हुआ है। इन्हें खुलवाने के लिये सरकार ने अदालत में दिये शपथ पत्र में कहा है कि राज्य बिजली की गंभीर किल्लत से जूझ रहा है और उसे प्रति वर्ष हजार करोड़ की बिजली खरीदनी पड़ रही है।

उत्तराखण्ड की त्रिवेन्द्र सरकार बार-बार केन्द्र सरकार को नयी परियोजनाओं की क्लीयरेंस और रोकी गयी परियोजनाओं को खुलवाने का आग्रह करती रही है।

जनविरोध को देखते हुये अब बांध की जगह बैराज वाली रन आफ द रिवर परियोजनाएं ही चलनी हैं। इतनी सारी परियोजनाओं की मुख्य निर्माण गतिविधियां पहाड़ों के गर्भ में सुरंग आदि के रूप में होनी हैं। उत्तरकाशी में मनेरी भाली प्रथम में 8.6 किमी और द्वितीय चरण में 16 किमी, विष्णु प्रयाग में 11.33 किमी सुरंगें पहले बन चुकी हैं। इनके अलावा कई सुरंगे पहले ही बनी हुयी हैं.

अभी हिमालय के अंदर सेकड़ों किमी लम्बी सुरंगें प्रस्तावित हैं, जिनमें विष्णुगाड-पीपलकोटी की 13.4 किमी, लाता तपोवन में 7.51 किमी तथा मलारी-जेलम की 4.5 किमी सुरंगें भी शामिल हैं। कुल मिला कर उत्तराखण्ड हिमालय के पहाड़ों के अन्दर लगभग 700 किमी लम्बी सुरंगें बननी हैं।

चारधाम आल वेदर रोड

हिमालय के साथ भयंकर अत्याचार का ताजा नमूना निर्माणाधीन चारधाम आल वेदर रोड भी है जिसके लिये लगभग 50 हजार पेड़ और लाखों झाड़ियां काटी गयी। कोर्ट का हस्तक्षेप तब हुआ जबकि पहाड़ काटने का 70 प्रतिशत काम पूरा हो गया।

बदरीनाथ का हुलिया बिगाड़ने का मास्टर प्लान

बद्रीनाथ मंदिर

केदारनाथ में पुनर्निर्माण के नाम पर वहां सीमेंट कंकरीट का ऐसा ढांचा खड़ा कर दिया जिसे भूगर्ववेता अगली आपदा की तैयारी मान रहे हैं। केदारनाथ के बाद अब बदरीनाथ का भी हुलिया बिगाड़ने का मास्टर प्लान बन चुका है। बदरीनाथ जैसे अति संवेदनशील क्षेत्र में सीमेंट कंकरीट का इतना बड़ा ढांचा बनवाना आपदा को दावत देने ही माना जा रहा है।

जयसिंह रावत, वरिष्ठ पत्रकार देहरादून से
ई-11, फ्रेंड्स एन्लेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
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