हरिद्वार कुम्भपर्व — अमृतत्व का सांस्कृतिक महोत्सव

कुम्भपर्व --आस्था और विश्वास का पर्व

Chandravijay Chaturvedi
डा चन्द्रविजय चतुर्वेदी ,प्रयागराज 

युगों से कुम्भपर्व हमारी उस अटूट आस्था और विश्वास का ऐसा पर्व रहा है जिसने भारतीय संस्कृति की जीवंतता और सनातन धर्म की चेतना को अमृत की धार से सींचा है। आस्था के इस अमृत महोत्सव में ऋषियों ,महर्षियों ,धर्माधिकारियों ,दार्शनिकों सहित समाज के अंतिम व्यक्ति की उपस्थिति का दर्ज होना किसी अंध श्रद्धा की परिणति मात्र नहीं है। यह सहस्रो वर्षों की वह अविरलता है जिसके मूल में गूढ़ आध्यात्मिक और वैज्ञानिक मंतव्य अन्तर्निहित हैं। देश के चार स्थानों पर कुम्भ पर्व पर जुड़ने वाले इस मेले ने भारत की उस सांस्कृतिक धरोहर को समृद्ध किया है ,जिस धरोहर ने प्रकृति के प्रत्यक्ष स्वरूप से ज्ञान और चेतना में सामंजस्य स्थापित किया और ऐसी संस्कृति विकसित की जिसमे ज्ञाता और ज्ञान की विवेचना करके उसे अपने वास्तविक व्यवहार में ,परिष्कृत विचारों और भावनाओं के माध्यम से सम्प्रेषित किया है।

इसी सांस्कृतिक विरासत के कारण भारत अपने जिस गौरव की पराकाष्ठा के लिए विख्यात है ,वह गौरव है समृद्ध ज्ञान और समरसता का अमृतत्व जिससे भारतीय मन और भारतीय आदर्श सदाशयता और आत्मबलिदान के मूल से पुष्पित पल्लवित हुआ। 

हरिद्वार कुम्भ जून अखाड़े की पेशवाई
हरिद्वार कुम्भ जूना अखाड़े की पेशवाई

कुम्भ क्या है ?

कुंभ -दैवी अमृत के पात्र का प्रतीक है। हमारा शरीर ,हमारा समाज ,हमारा राष्ट्र हमारा विश्व  एक कुम्भ सदृश्य पात्र है जो  निरंतर अमृतत्व की तलाश में रहता है। संस्कृत व्याकरण के अनुसार कुम्भ शब्द –कु -उम्भ तथा अच् प्रत्यय के योग से बना है –कु का अर्थ पृथ्वी के आलावा कुत्सित का भी बोध कराता है ,उम्भ से आपूरण और पोषण का बोध होता है। प्रयाग सहित चार तीर्थ हरिद्वार ,नासिक ,उज्जैन में बारहवें वर्ष लगने वाले स्नान पर्व के अर्थ में भी कुम्भ का प्रयोग होता है जिसकी निरुक्ति की जाती है –कुं पृथिवी उभ्यते लघुक्रियते पापप्रक्षालनेन पुण्यवृदध्या च यस्मिन पर्वणि सः कुम्भः —अर्थात जो पर्व प्रयागादि तीर्थ में स्नानादि करनेवाले पापियों के पाप प्रक्षालन और धार्मिक जनो द्वारा किये विविध धर्मानुष्ठानों से जनित पुण्य के प्रभाव से पृथ्वी को पुण्यमय तत्व प्रधान बनाता है उसको कुम्भ कहते हैं। ऋगवेद के मन्त्र 10 /89 /7 में कुम्भ का उल्लेख किया गया है। अथर्ववेद के मन्त्र 19 //53 /3 में कहा गया है की पूर्णकुंभ में संतगण स्नान करके सभी लोकों से ऊपर उठकर परम व्योमलोक में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। अथर्ववेद के एक मन्त्र –चतुरः कुंभश्चतुर्धा ददामि –यह संकेत देता है की एक विराट चैतन्यमयी ईश्वरी शक्ति के द्वारा चार कुम्भ पर्वों का आयोजन होता है। पूर्णकुंभ से अमृत का संबंध भी अथर्ववेद के एक मन्त्र –3 /12 /8 से होता है। 

समुद्र मंथन —

स्कंदपुराण के अनुसार समुद्रमंथन से उत्पन्न अमृत के अधिकार के लिए देवों और असुरों में बारह दिनों तक संग्राम हुआ। उस समय असुरों से बचाने की छीना -झपटी में अमृत कलश चार स्थानों –प्रयाग ,हरिद्वार ,उज्जैन ,और नासिक में गिरा था। चन्द्रमा ने अमृत कुम्भ में से अमृत को भूमि पर छलकने से बचाया , सूर्य उस अमृत कुम्भ को टूटने से बचाया ,वृहस्पति ने उसे असुरों से बचाया था। अतः उस समय ये ग्रह जिस राशि में थे जब उस राशि में पुनः आते हैं तो उस घटना किस्मृति में कुम्भ पर्व मनाया जाता है। समुद्रमंथन का निहितार्थ है की भिन्न भिन्न ऐतिहासिक अंतर्धाराओं में प्रतिस्पर्धा से हिंसा अराजकता उत्पन्न होती है ,इसलिए आवश्यक है की परस्पर विरोधी विचारधाराएं मिलकर मंथन करें और दैवी शक्तियों को अमृतपान कराएं। 

कुंभपर्व –एक खगोलीय उत्तमयोग है —

सूर्य जब मेष राशि में और वृहस्पति कुम्भ राशि में प्रवेश करते हैं तो हरिद्वार में कुम्भ पर्व का आयोजन होता है।इस वर्ष  2021 का कुम्भपर्व 11 मार्च शिवरात्रि को शाही स्नान से प्रारम्भ हो गया है ,12 अप्रैल सोमवती अमावस्या को दूसरा शाही स्नान होगा ,तीसरा शाही स्नान मेष संक्रांति 14 अप्रैल तथा चौथा शाही स्नान चैत्र  पूर्णिमा 27 अप्रैल को होगा। इस वर्ष का कुम्भपर्व  बारह वर्ष के अंतराल के बजाय ग्यारहवें वर्ष ही हो रहा है। प्राचीनकाल से ही भारत की कालगणना सौरचांद्र गणना पर आधारित रहा ,तब सामान्यतया पांच वर्षों का एक युग मानाजाता था।   कालांतर में वृहस्पति के गति के ज्ञान होने पर द्वादशवर्षात्मक युग की परिकल्पना की गई। कुंभपर्व का बारह वर्ष बाद घटित होने का रहस्य इसी बार्हस्पति संवत्सर में निहित है जिसकी गणना में 86 वे वर्ष कुम्भ एक वर्ष पीछे लगता है। ऋग्वेद का मंत्रदृष्टा ऋषि प्राणियों की रक्षा के लिए सूर्य सविता देव का आवाहन करता है –ह्रयामि देवम सवितारमृतये ऋ 1 /35 /1 ऋग्वेद के 1 /35  ,3 /59  ,4 /53 ,5 /81 -82 ,8 /18 मन्त्रों में सूर्य का उल्लेख नाना रूपों में किया गया है। एक मन्त्र में कहा गया की हे सूर्य तुम अकेले ही सभी कर्मों की अनुज्ञा देते हो और अपने किरणों द्वारा तुम ही पूषा बनाते हो। तुम इस समस्त विश्व को धारण करके सुशोभित हो ,ऋषिगण तुम्हारी स्तुति करते हैं। एक दूसरे मन्त्र में ऋषिगण वंदना करते हैं –विश्वनीदेव सवितर्दुरितानि परा सुव। यद्भद्रं तन्न आ सुव –अर्थात हे सूर्यदेव हमारे अमंगल को दूर भगाओ  सभी कल्याणो को हमारे समीप लाओ।चक्षोाः सूर्यो अजायत –विराट पुरुष के चक्षु से उत्पन्न हुआ सूर्य समस्त प्राणियों का देवता और स्वामी है। सूर्य ही प्राण है बिना सूर्य के पृथ्वी पर प्राणियों के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती ,अथर्ववेद में कई मन्त्रों में कहा गया है की सूर्य रोगों को दूर भगाता  है। बृहस्पति प्रशंसनीय लोगों में सर्वोच्च ज्ञानसम्पन्न ,मन की इच्छा पूर्ण करने वाले हैं। ऋग्वेद द्वितीय मंडल के सूक्त 23 -26 तथा दशवें मंडल के 67 -68 के मन्त्रों में वृहस्पति का विस्तार से उल्लेख है। सूर्य प्राण है वृहस्पति बुद्धि है। प्राणबुद्धि का खगोलीय संतुलन ही वह अमृतत्व है जिसे प्राप्त करने के लिए पवित्र नदियों में स्नान हेतु समाज के पहले व्यक्ति से लेकर आखिरी व्यक्ति तक उपस्थित होता है। कुम्भस्नान की महत्ता का वर्णन करते हुए शास्त्रकारों ने कहा –सहस्त्रं कार्तिके स्नानं माघे शतानि च ,वैशाखे नर्मदा कोटि कुम्भस्नानेन तत्फलं –अर्थात एक हजार कातिक स्नान ,एक सौ माघ स्नान तथा नर्मदा के एक करोड़ वैशाख स्नान के समान एक कुम्भ स्नान का फल है। 

हरिद्वार कुम्भपर्व -- अमृतत्व का सांस्कृतिक महोत्सव
हरिद्वार में में गंगा स्नान करते संत महात्मा

कुम्भपर्व और मोक्षदायिनी गंगा —

भारतीय संस्कृति की विशिष्टता प्रकृति केसाथ तादात्म्य है। भारतीय मानस में सबसे अधिक पूजनीय नदी गंगा है ,जिसकी पवित्रता की तुलना में विश्व की कोई भी नदी नहीं थी। पुराणों के साथ साथ आयुर्वेद के ग्रंथों में भी गंगाजल के दैवी गुणों का उल्लेख किया गया है। यह प्यास बुझती है ,थकान दूर करती है ,पेट के विकारों को समाप्त करती है ,आयुवर्द्धक है। गंगाजल की विशिष्टता और अमृतजल का कारण यह है की यह उस पर्वतराज हिमालय से निकली है जो वानस्पतिक और जैविक विविधता को अपने आँचल में समेटे हुए है। हिमालय से निकलने पर अनेक औषधीय वनस्पतियों का घुलनशील कार्बनिक यौगिक गंगाजल में घुलता जाता है।

पर्वत के पत्थर और बलुकाकणों से अकार्बनिक पदार्थ गंगाजल के साथ सम्मिलित होते हैं जो गंगाजल में उपस्थित जीवाणुभोजी वायरस –बैक्टीरियोफेज को जीवनचक्र प्रदान करते हैं। यह वायरस केवल गंगाजल में ही पाया जाता है तथा बीमारियों  के घातक जीवाणुओं का भक्षण करता रहता है।

जो गंगा युगों से हमारे पापों का नाश करती रही है ,आज हमारे पाप ही उस गंगा को मैली कर दे रहे हैं। भारतीय संस्कृति में तीर्थयात्रा पर्यटन से भिन्न रहा है। तीर्थयात्रा में त्याग ,धर्म ,आस्था ,विश्वास होता है जबकि पर्यटन में मौज मस्ती और भोग की प्रवृत्ति होती है।

पर्यटन की प्रवृत्ति से गंगा गंगोत्री से ऋषिकेश के बीच अपने उदगम पर ही प्रदूषित होने लगी। भारतीय संस्कृति की समानधर्मा प्रवृत्ति को संजोये गंगा माँ के रूप में पतितपावनी के रूप में इसलिए प्रतिष्ठित है की यह अपने उदगम स्थल से कई नदियों और जलस्रोतों को आत्मसात करते हुए अविरलता के साथ प्रवाहमान रहती रही। गंगा की भांति भारतीयता भी तमाम धाराओं को आत्मसात करते हुए अविरलता के साथ प्रवाहमान रहते हुए स्फूर्तिवान संस्कृति है। बिडम्बना है की आधुनिक भौतिक युग में दोनों की अविरलता संकटग्रस्त है। 

कुम्भ पर्व का सन्देश —

1915 के हरिद्वार कुम्भ में महात्मा गाँधी हरिद्वार आये उन्होंने अपना चिंतन व्यक्त करते हुए कहा –कुम्भ का दिन आया मेरे लिए यह धन्य घडी थी। मैं यात्रा की भावना से हरिद्वार नहीं गया था। तीर्थक्षेत्र में पवित्रता की शोध में भटकने का मोह कुम्भ कभी नहीं रहा। किन्तु 17 लाख लोग पाखंडी नहीं हो सकते। कहा गया की मेले में 17 लाख लोग आये होंगे। इनमे असंख्य लोग पुण्य कमाने और शुद्धि प्राप्त करने के लिए आये थे ,इसमें मुझे कोई शंका न थी। यह कहना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है की इस प्रकार की श्रद्धा आत्मा को किस हद तक ऊँचा उठाती होगी। गाँधी की यह अनुभूति कुम्भपर्व का एक महत्वपूर्ण सन्देश है। 

कुम्भपर्व और गंगास्नान की श्रद्धा को जीवंत रखने के लिए आवश्यक है की गंगा की अविरलता को मुक्त किया जाये और गंगा प्रदुषण मुक्त हों तभी भारतीयता का उन्नयन हो सकेगा। 

कुम्भपर्व यह सन्देश देता है की सनातन धर्म के विभिन्न विचार ,संस्था और संप्रदाय भले बाहर से अलग दिखाई पड़ें पर उनका आतंरिक मूलस्वरूप प्रकृति और खगोल से आबद्ध है। 

कुम्भपर्व का गूढ़ार्थ वह मूल चेतना है जो युगयुगीन राजनैतिक झंझावातों के बाद भी विकृत नहीं हो सका। सांस्कृतिक एकता ,सौहार्द्य और सहिष्णुता पर आधारित हमारी धार्मिक और सामाजिक मान्यताएं सनातन हैं। द्रविण संस्कृति में रचा बसा रामेश्वरम के प्रति उत्तर भारतीय की आस्था उतनी ही तीव्रतर है जितनी दक्षिण भारतीय की हरिद्वार और प्रयाग के प्रति है। इन सांस्कृतिक मूल्यों को राजनैतिक दुष्चक्र प्रभावित नहीं कर सके। 

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