जन्मदिन पर विशेष : गणेश शंकर विद्यार्थी के बहाने
गणेश शंकर विद्यार्थी का जीवन और पत्रकारिता
26 अक्टूबर, 1890. इलाहाबाद में एक शिक्षक जयनारायण श्रीवास्तव के घर जन्मे गणेश शंकर विद्यार्थी आजीवन धार्मिक कट्टरता और उन्माद के खिलाफ लड़ते रहे. उन्होंने लिखा था “मैं हिन्दू-मुसलमान झगड़े की मूल वजह चुनाव को समझता हूं. चुने जाने के बाद आदमी देश और जनता के काम का नहीं रहता.” अपनी लेखनी के जरिए जीवन भर लोगों को धार्मिक उन्माद के प्रति सावधान करते रहे गणेश शंकर विद्यार्थी.
समय मनुष्य की असली पहचान बनाता है और इतिहास में उसका स्थान तय करता है. बीसवीं सदी में भारतवर्ष मे उत्कृष्ट मेधा और निष्कपट जीवन के लोग भारत की आज़ादी के लिए अपने अपने तरीके से अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष की जिजीविषा से ओतप्रोत थे. पत्रकारिता और धर्मनिरपेक्षता की शीर्षस्थ प्रतिमूर्ति गणेश शंकर विद्यार्थी अपने बलिदान के नब्बे वर्ष बाद भी उसी प्रखरता से चमक रहे हैं, जैसे अपने जीवन काल में.
मानवीय मूल्यों की गायब होती संवेदनाओं के बीच पत्रकारिता में संवेदना के बचे रहने की उम्मीद करना भी शायद बेमानी ही होगा पर इसी देश में कुछ इतने ऊंचे मापदंड और उस पर चलने वालों की इतनी समृद्ध परंपरा है कि आशा की किरण हर पल कौंधती रहती है.
मेनस्ट्रीम पत्रकारिता को तो मालिकों और सरकार के अनुशासन में ही रहना है. भारी भरकम नाम का दावा करने वाले और दाम वसूलने वाले संस्थानों में सरवाइवल आफ द फिटेस्ट का पाठ पढ़ने वालों को आज गणेश शंकर विद्यार्थी के बहाने पत्रकारिता के मापदंडों पर अपने आकलन की आवश्यकता है. पत्रकारिता करने वालों के लिए किसी संस्थान या विश्वविद्यालय से ज्यादा जरूरी विद्यार्थी जी के जीवन से शिक्षा ग्रहण करना है.
समतामूलक आजाद भारत का स्वप्न लिए गणेश शंकर विद्यार्थी जी, लोकमान्य तिलक को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे पर बाद में वह गांधी जी से प्रभावित हुए. उन्होंने कांग्रेस के विभिन्न आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी की. अंग्रेजी शासन के अत्याचारों के विरुद्ध निडरता से लिखते हुए ब्रिटिश हुकूमत में 5 बार जेल भी गये पर अपने मार्ग से डिगे नहीं. वह क्रांतिकारियों की भी खुलकर सहायता करते थे. गणेश शंकर विद्यार्थी आम भारतीय नागरिक की तरह राष्ट्रवादी आंदोलन की क्रांतिकारी और अहिंसात्मक, दोनों विचारधाराओं के पोषक थे.
आम भारतीय गांधी को भी नायक मानता है और सुभाष चंद्र बोस को भी. वह गांधी को भी मानता है और भगत सिंह का भी दीवाना है. उसकी दृष्टि में दांडी मार्च और काकोरी कांड, दोनों राष्ट्रीय आंदोलन के गौरव के प्रतीक हैं.
जब अंग्रेजपरस्त आब्जर्वर, स्टेटसमैन जैसे अखबार चम्पारण आंदोलन के विरोध में लिखते थे तब गणेश शंकर विद्यार्थी का “प्रताप” सीना ताने खड़ा था और विद्यार्थी यातनाएं भोग कर भी आंदोलन की खबरें छाप रहे थे. दूसरी तरफ उसी प्रताप का दफ्तर चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह जैसे लोगों के लिए हमेशा खुला था. वे विचारधारा के दो ध्रुव पर खड़े नायकों को अपना साथी मानते थे क्योंकि वह जानते थे कि सभी का एक ही उद्देश्य है कि अंग्रेजी हुकूमत का विरोध करके बाहर फेंकना.
आज एक नायक के बर-अक्स दूसरे को खड़ा करने वाले लोगों को शायद यह समझने में मुश्किल हो. आज हमें गणेश शंकर विद्यार्थी के बहाने राष्ट्रीय आंदोलन के मूल्यों को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है.
26 अक्टूबर, 1890. इलाहाबाद में एक शिक्षक जयनारायण श्रीवास्तव के घर जन्मे गणेश शंकर विद्यार्थी आजीवन धार्मिक कट्टरता और उन्माद के खिलाफ लड़ते रहे. उन्होंने लिखा था “मैं हिन्दू-मुसलमान झगड़े की मूल वजह चुनाव को समझता हूं. चुने जाने के बाद आदमी देश और जनता के काम का नहीं रहता.” अपनी लेखनी के जरिए जीवन भर लोगों को धार्मिक उन्माद के प्रति सावधान करते रहे गणेश शंकर विद्यार्थी.
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9 नवंबर 1913 को अपने तीन साथियों के साथ जिस कानपुर में ‘प्रताप’ की नींव डाली थी, उसी कानपुर में 25 मार्च 1931 को शहर में हिंदू-मुस्लिम दंगे में एक-दूसरे की जान लेने पर उतारू लोगों को रोकने निकले गणेशशंकर विद्यार्थी कई लोगों की जान बचाते बचाते उन्मादियों के शिकार बन गये. उन्होंने जो कलम से लिखा,वही वास्तविक जीवन में बलिदान कर के दिखाया. गणेश शंकर विद्यार्थी के बहाने हमें पत्रकारिता और साम्प्रदायिकता, दोनों को जांचने की जरुरत है.
देश को छुआछूत,जातिवाद,धार्मिक उन्माद, साम्प्रदायिकता, पूंजीवादी जकड़न, मिथ्या प्रलाप जैसी स्थितियों से छुटकारा दिलाना ही विद्यार्थी जी को सच्ची श्रध्दांजलि होगी.
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