फलत्याग को मिलता है अनंत फल

गीता प्रवचन तीसरा अध्याय

संत विनोबा कर्मयोग पर कहते हैं कि फलत्याग को अनंत फल मिलता है।

भाइयो, गीता के दूसरे अध्याय में हमने सारे जीवन-शास्त्र पर निगाह डाली। अब तीसरे अध्याय में इसी जीवन-शास्त्र का स्पष्टीकरण है।

पहले हमने तत्वों का विचार किया, अब उनकी तफसील में जायेंगे। पिछले अध्याय में कर्मयोग-संबंधी विवेचन किया था।

कर्मयोग में महत्त्व की वस्तु है फलत्याग। कर्मयोग में फल-त्याग तो है, परंतु प्रश्न यह उठता है कि फिर फल मिलता भी है या नहीं?

अत: तीसरे अध्याय में कहते हैं कि कर्मफल को छोड़ने से कर्मयोगी उलटा अनंतगुना फल प्राप्त करता है।

यहाँ मुझे लक्ष्मी की कथा याद आती है। उसका था स्वयंवर। सारे देव-दानव बड़ी आशा बाँधे आये थे।

लक्ष्मी ने अपना प्रण पहले प्रकट नहीं किया था। सभा-मंडप में आकर बोली “ मैं उसी के गले में वरमाला डालूँगी, जिसे मेरी चाह न होगी।”

वे सारे तो ललचाये ही थे। लक्ष्मी नि:स्पृह वर खोजने निकल पड़ी। शेषनाग पर शांत भाव से लेटी हुई भगवान् विष्णु की मूर्ति उसे दिखायी दी।

उनके गले में वरमाला डालकर वह अबतक उनके चरण दबाती हुई बैठी ही है।

*न मागे तयाची रमा होय दासी*– ‘जो नहीं चाहता, उसकी रमा दासी बनती है।’ यही तो खूबी है।

साधारण मनुष्य अपने फल के आसपास बाड़ लगता है। पर इससे मिलनेवाला अनंत फल वह खो बैठता है।

सांसारिक मनुष्य अपार कर्म करके अल्प फल प्राप्त करता है; पर कर्मयोगी थोडा-सा करके भी अनंत गुना प्राप्त करता है।  यह फर्क सिर्फ एक भावना के कारण होता है । टॉलस्टॉय ने एक जगह लिखा है – “ लोग ईसामसीह के त्याग की बहुत स्तुति करते हैं। परंतु ये संसारी जीव तो रोज न जाने अपना कितना खून सुखाते हैं, दौड़-धूप करते हैं! पूरे दो गधों का बोझ अपनी पीठ पर लादकर चक्कर काटनेवाले ये संसारी जीव, इन्हें ईसा से कितना गुना ज्यादा कष्ट, कितनी ज्यादा इनकी दुर्दशा! यदि ये इनसे आधे भी कष्ट भगवान् के लिए उठायें, तो सचमुच ईसा से भी महान् हो जायेंगे। *क्रमश:*

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