खेती किसानी का अर्थशास्त्र और अर्थशास्त्र की खेती किसानी
यह अर्थव्यवस्था पूंजीवाद और सामंतवाद के मिश्रित अर्थव्यवस्था का कुचक्र था, जिसने एक निम्नस्तरीय असंतुलित अर्थव्यवस्था के जाल में फंसाकर इस देश को भूखा, नंगा और दरिद्र बना दिया, आर्थिक रूप से जर्जर कर दिया।
भारत एक ऐसा देश है, जिस देश में राष्ट्र की घोषित नीति से हटकर भी एक स्वाभाविक अर्थशास्त्र की अंतर्धारा प्रवाहमान रही है। कृषि उस अंतर्धारा की एक प्रमुख धारा रही है। भारत व्यापकता और बहुलता में बसता है –गाँवो में, कस्बों में, छोटे शहरों में, महानगरों में, जिसके अपने विशिष्ट परिवेश हैं, अपनी अघोषित अर्थशास्त्र की अंतर्धारा है। गांव के कृषि के अर्थशास्त्र की अपनी एक अलग विविधता है।
डा चन्द्रविजय चतुर्वेदी, प्रयागराज।
भारत युगों से कृषि प्रधान देश रहा है, और आज भी है। देश की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था कभी भी कुछ भी रही हो, कृषि का अर्थशास्त्र उसे प्रभावित करता रहा है और अर्थशास्त्र की दिलचस्पी भी खेती किसानी की ओर बढ़ती रही है। गुलाम भारत की अर्थव्यवस्था भारतीयों को दीन हीन बनाये रखने की ही रही। यह अर्थव्यवस्था पूंजीवाद और सामंतवाद के मिश्रित अर्थव्यवस्था का कुचक्र था, जिसने एक निम्नस्तरीय असंतुलित अर्थव्यवस्था के जाल में फंसाकर इस देश को भूखा, नंगा और दरिद्र बना दिया, आर्थिक रूप से जर्जर कर दिया। परंपरागत कृषि और कृषि आश्रित व्यवस्था को नष्ट भ्रष्ट कर दिया था। जिस भारत की गणना पंद्रहवीं से सतरहवीं शताब्दी तक दुनिया के धनी देशों में नंबर एक और दो पर होती थी, वह उन्नीसवीं बीसवीं शताब्दी में गुलामी के दौरान दरिद्र हो गया।
आजाद भारत में जो नियोजित अर्थव्यवस्था प्रारम्भ की गई, वह मिश्रित अर्थव्यवस्था थी –पूंजीवाद और तथाकथित समाजवाद की जो निर्धनता, बेरोजगारी और आर्थिक विसंगतियों को दूर करने में न तो अपेक्षित सफलता प्राप्त कर सकी, और न ही ये कृषि व्यवस्था का पुनरुद्धार ही कर सकी।
1985 से ही देश के राजनैतिक नेतृत्व और अर्थशास्त्री विचारकों ने मुक्त अर्थव्यवस्था और निजी क्षेत्र को अधिक सशक्त और व्यापक बनाने की नीति को बढ़ावा दिया। हम निरंतर इसी पथ पर बढे जा रहे हैं।
भारत एक ऐसा देश है, जिस देश में राष्ट्र की घोषित नीति से हटकर भी एक स्वाभाविक अर्थशास्त्र की अंतर्धारा प्रवाहमान रही है। कृषि उस अंतर्धारा की एक प्रमुख धारा रही है। भारत व्यापकता और बहुलता में बसता है –गाँवो में, कस्बों में, छोटे शहरों में, महानगरों में, जिसके अपने विशिष्ट परिवेश हैं, अपनी अघोषित अर्थशास्त्र की अंतर्धारा है। गांव के कृषि के अर्थशास्त्र की अपनी एक अलग विविधता है। कस्बों के कारीगरों का कुटीर उद्योग कृषि अर्थशास्त्र में समाहित एक अलग पहचान रखता है। छोटे शहरों के बाजारों का अर्थशास्त्र फिर महानगरों के उद्योगों का अर्थशास्त्र। कॉरपोरेट जगत और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अर्थशास्त्र। सबकी अलग अलग नीति है अलग अलग नीयत है। कोई सहयोग, सहकार, सदभाव आश्रित जीवननिर्वाह पर आश्रित है तो कोई शोषण और एकाधिकार पर मत्स्य न्याय का अनुकरण करते हुए। देश में सब एक साथ चले चल रहे हैं।
आजादी के तत्काल बाद इन सब अर्थशास्त्रों को समेट कर कृषि के लिए एक ऐसे जनकल्याणकारी अर्थनीति बनाये जाने की आवश्यकता थी, जो आधुनिकता के परिप्रेक्ष्य में कृषि के परंपरागत स्वरूप को जीवित जागृत करते हुए कृषि समाज में खुशहाली लाता। हरित क्रांति के बाद तमाम क्रन्तिकारी परिवर्तनों के प्रचार प्रसार के बाद भी पिछले बीस वर्षों में डेढ़ लाख किसानों को आत्महत्या करनी पड़ी, सरकार को लाखों करोड़ रुपये की ऋण माफ़ी विगत बीस वर्षों में करनी पड़ी। सीमांत किसानों का पलायन निरंतर बढ़ता जा रहा है।
आज का ग्लोबल अर्थशास्त्र कल्याण अकल्याण के दायरे से बहुत दूर निकलकर केवल अर्थ के दायरे में ही सीमित हो चुका है। भारत की खेती किसानी दुनिया के अन्य देशों से बिलकुल भिन्न है। भारत के लिए कृषि व्यापार वाणिज्य नहीं जीवन जीने की एक संस्कृति है। इस देश में कृषि का विकास परम्पराओं से हर युग के घाघ, भड्डरी जैसे कृषि पंडितों के सूक्ष्म निरीक्षण, परीक्षण से संभव हुआ है। आजादी के बाद यद्यपि तमाम कृषि विश्वविद्यालय खुले, शोध संस्थान स्थापित हुए, जिनका प्रयास रहा कि कृषि को उद्योग बना दिया जाए।
कभी विचार करें कि हमारी खेती किसानी में ह्वीट कल्चर –गेहूं संस्कृति का पदार्पण कैसे हो गया –जिसके लिए देशी मसला कहा जाता है –चार पानी खेत में चार पानी पेट में। गेहूं संस्कृति ने पूरे रबी की फसल को गुलाम बना लिया। कृषि विकास की गति में जैव विविधता समाप्त होती गई, शंकर बीजों के बाद जीन रूपांतरित –जीएम फसलें लहलहाने लगीं।
खेती किसानी के अर्थशास्त्र निर्माण में कृषि वैज्ञानिकों ने कतई गौर नहीं किया कि इस देश की धरती इतनी सक्षम है कि हम अपनी ही प्रजातियों से मनमानी फसलें उगा सकते थे। यह तो समाजसेवी संस्थाओं और किसानों ने जी यम फ़सलों के विरोध में जन जागृति की।
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आज के सन्दर्भ में चिंतन का मुख्य बिंदु है कि कैसे खेती किसानी के अर्थशास्त्र को कल्याणकारी बनाया जाये, किसान न तो ऋण अथवा उपज के आभाव में आत्महत्या करे, न गांव से पलायन करे और कृषि लोक हितकारी और पर्यावरण सम्मत हो। इसके साथ ही खेतों को अर्थशास्त्र की खेती किसानी से बचाया जाए। विगत पचास वर्षों से कारपोरेट जगत इस प्रयास में है कि कृषि को व्यापर बना कर उसे व्यापारिक हाथों में ले लिया जाए। छोटे मोटे प्रयोग निरंतर चलते रहे हैं।
यह कटु सत्य है कि पूंजीवादी, समाजवादी और साम्यवादी आर्थिक विचारधाराओं में जो अर्थतंत्र की संरचना है, उससे खेती किसानी के अर्थशास्त्र में लोक को संप्रभु नहीं बनाया जा सकता, जो केवल स्वराज्य के अर्थशास्त्र में ही संभव है। स्वराज्य की अवधारणा में स्वावलम्बी और जैविक खेती होगी। बीज खाद पानी स्थानीय स्तर पर संरक्षित होंगे। इन्हें समाहित करते हुए राष्ट्रीय कृषि नीति बनाये जाने की आवश्यकता है, जिसकी निरंतर अनदेखी की जा रही है।