दुनिया भी धरती से आती विनाश की आहट को समझे
(COP26) ग्लासगो 26वां शिखर सम्मेलन : क्या पाया?
इस संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन कॉन्फ्रेंस में सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जक देश चीन का नाम पहले लिया गया। उसके बाद दूसरे सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जक देश अमेरिका का नंबर आता है। साथ ही यूरोपीय संघ और भारत को लेकर भी चर्चाएं हुई।लगभग एक पखवाड़े चले इस महत्वपूर्ण सम्मेलन में दुनियाभर के छोटे देश जरूर ज्यादा चिंतित दिखे, वहीं अमीर देश, अब तक तीन चौथाई विकास का स्वाद चखने के बावजूद, विकास के लिए और लालायित देखे गए।
कुमार सिद्धार्थ
स्कॉटलैंड के ग्लासगो में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (COP26) के 26वें शिखर सम्मेलन पर पूरी दुनिया की निगाहें टिकी हुई थी, लेकिन सम्मेलन के समाप्ति के बाद नतीजे या फैसले उतने प्रभावशाली नहीं दिखे, जो पृथ्वी की सूरत को बेहतर बनाने जैसे प्रतीत हो। शिखर सम्मेलन का असल मकसद था कि जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार कार्बन गैसों के उत्सर्जन में इस हद तक कटौती करने पर दुनिया के नेतृत्वकर्त्ताओं के बीच सहमति बनाना कि वैश्विक ताप औद्योगिकीकरण से पूर्व के स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक कम रहे। एक और दुनियाभर के देशों ने जरूर ग्लास्गो जलवायु समझौते पर हस्ताक्षर कर दिये, ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या ये समझौते वास्तव में वैश्विक तापमान को पूर्व-औद्योगिक काल के स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने में कामयाब होंगे?
वैज्ञानिकों का कहना है कि संयुक्त राष्ट्र ने ग्लासगो में तापमान को कम करने के लिए बड़े बदलाव किए जाने की उम्मीद की थी, लेकिन यहां मामूली बदलाव ही देखने को मिले। कई वैज्ञानिको को इस बात पर भी संदेह है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य पा सकेंगे। जबकि पृथ्वी दो डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान बढ़ने की दिशा में आगे बढ़ रही है।
गौरतलब है कि पिछले कुछ दशक से जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर लगातार चिंताभरी रिपोर्ट एवं चेतावनियां आती रही हैं और वैज्ञानिक भी जलवायु में हो रहे परिवतनों के बारे में लगातार आगाह करते रहे हैं। लगभग एक पखवाडे चले इस महत्वपूर्ण सम्मेलन में दुनियाभर के छोटे देश जरूर ज्यादा चिंतित दिखे, वहीं अमीर देश, चूंकि अब तक तीन चौथाई विकास का स्वाद चखने के बावजूद, विकास के लिए और लालायित देखे गए। इन देशों ने पेरिस समझौते के वक्त भी उतनी ही शिदद्त के साथ करारों पर हस्ताक्षर किये थे, बावजूद इन देशों ने अधिक गंभीरता और संवेदनशीलता से इन करारों का क्रियान्वयन नहीं किया। नतीजे में इस संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन कॉन्फ्रेंस में सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जक देश चीन का नाम पहले लिया गया। उसके बाद दूसरे सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जक देश अमेरिका का नंबर आता है। साथ ही यूरोपीय संघ और भारत को लेकर भी चर्चाएं हुई।
यदि हम आंकडों पर नजर डालते है तो पाते है कि साल 1995 में शुरू हुए शिखर सम्मेलन के समय में दुनिया में कार्बन उत्सर्जन 2 हजार 350 करोड़ मैट्रिक टन था। जानकर हैरानी होगी कि वहीं साल 2021 में कार्बन उत्सर्जन सालाना 4 हजार करोड़ मैट्रिक टन पहुंच गया है। यानी 25 सम्मेलन के बाद भी कार्बन के उत्सर्जन में सौ फीसदी वृ्द्धि हुई है, जबकि कार्बन उर्त्सजन का ग्राफ नीचे आता दिख्नना चाहिए था। दुनिया के देशों को जहां कार्बन उर्त्सजन पर ‘ब्रेक’ लगना था, वहीं वे देश तेज गति से ‘विकास’ की जद्दोजेहद और होड़ में मगन है।
विडंबना है कि संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में वार्ताकार कोयले के सभी प्रकार के इस्तेमाल को समाप्त करने और जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को पूरी तरह से खत्म करने के आह्वान से पीछे हटते दिखे। सम्मेलन में जारी नवीनतम मसौदा प्रस्ताव में देशों से कोयले से उत्पन्न होने वाली बिजली और जीवाश्म ईंधन के लिए सब्सिडी को चरणबद्ध तरीके से बंद करने की प्रक्रिया में तेजी लाने का आह्वान किया गया। 40 से ज़्यादा देश, कोयला प्रयोग बन्द करने पर सहमत हुए जोकि कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जनों के लिये सबसे बड़ा कारक है। इन देशों में पोलैण्ड, वियतनाम और चिले जैसे देश भी शामिल हैं, जहाँ कोयले का काफ़ी इस्तेमाल होता है। भारत ने भी अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करते हुए अगले 50 वर्षों में कार्बन उत्सर्जन को ‘नेट जीरो’ का लक्ष्य रखा है। इससे ग्रीन हाउस गैस में वृद्धि नहीं हो पाएगी और पृथ्वी के गर्म होने की गति में मंदी आएगी। फिलहाल वैश्विक आबादी में अपने देश का हिस्सा 17 प्रतिशत के आसपास है और वहीं भारत का कुल कार्बन उत्सर्जन में केवल चार प्रतिशत हिस्सा ही है।
इस यूएन जलवायु सम्मेलन में कुछ उत्साहजनक घोषणाएँ भी हुईं, जिसमें जीवाश्म ईंधन पर सब्सिडी ख़त्म करना, कार्बन की क़ीमत तय करना, निर्बल समुदायों को संरक्षण मुहैया कराना, और 100 अरब डॉलर के जलवायु वित्त पोषण के संकल्प को पूरा करना शामिल हैं। इसके अलावा सबसे बड़ी घोषणा ये भी है कि दुनिया भर के 90 प्रतिशत जंगलों का प्रतिनिधित्व करने वाले 120 से भी ज़्यादा देशों ने वर्ष 2030 तक वन ख़त्म होने की रफ़्तार को विराम देने और वनों को पहले जैसी स्थिति में ही लौटाने का संकल्प लिया है।
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सेंटर फार साइंस एवं एनवायरमेंट की निदेशक एवं पर्यावरण जानकार सुनीता नारायण का मानना है कि जलवायु परिवर्तन भूत, वर्तमान और भविष्य से जुड़ा हुआ है। हम इस सच को मिटा नहीं सकते कि कुछ देश (अमरीका, यूरोपीय संघ-27, यूके, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, जापान, रूस और अब चीन) तापमान में इजाफे को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित करने के लिए जितने उत्सर्जन की आवश्यकता है, उस कार्बन बजट का 70 प्रतिशत हिस्सा इस्तेमाल कर चुके हैं। लेकिन दुनिया की 70 प्रतिशत आबादी को अब भी ‘विकास का अधिकार’ चाहिए। ये देश वृद्धि करेंगे, तो उत्सर्जन में इजाफा ही होगा और जो दुनिया को तापमान वृद्धि के विध्वंसक स्तर पर ले जाएगा।
26वें शिखर सम्मेलन में जारी तमाम वैश्विक जलवायु परिवर्तन से संबंधित रिपोर्टस से जाहिर होता है कि दुनिया के देशों द्वारा जलवायु परिवर्तन के नाम पर किये जा रहे प्रयास केवल ‘तमाशा’ बनकर रह गए हैं। कॉप-26 ग्लासगो समझौते में शामिल देशों ने भी इस बात को स्वीकार किया कि अभी बहुत काम किया जाना बाकी है। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस व्दारा दी गई प्रतिक्रिया से दुनिया के देशों को सबक लेना चाहिए। दुनियाभर में जीवाश्म ईंधन से व्यापक पैमाने पर हो रहे कार्बन उत्सर्जन ‘मानवता’ को विनाश की तरफ धकेल रहा है। वहीं गहरे माइनिंग व ड्रिलिंग जैसी प्रवृत्तियां अपनी ही ‘कब्र’ खोदने जैसा है।
युवा जलवायु परिवर्तन कार्यकर्ता ग्रेटा थुनबर्ग ने भी दुनिया के देशों द्वारा जलवायु परिवर्तन को रोकने की दिशा में अब तक की गई कोशिशों के प्रति अपनी नाराजगी जाहिर की है। उनका मानना है कि जब तक तमाम देश उर्जा के स्त्रोतों के उत्सर्जन पर तत्काल कटौती नहीं करते हैं तो इसका मतलब है कि वे जलवायु संकट पर सिर्फ ‘बातें’ ही कर रहे हैं। हम असफल हैं। हमें सही दिशा में कदम उठाने होंगे।
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विशेषज्ञों का मानना है कि ग्लासगो शिखर सम्मेलन में यद्यपि बातें बड़ी-बड़ी की गईं पर कुछ ठोस परिणाम नहीं निकला। इसका एक मुख्य कारण यह है कि अमीर देश, विकासशील देशों को ग्लोबल वार्मिंग के प्रतिकूल प्रभावों को कम करने के लिए, आर्थिक मदद देने को इच्छुक नहीं हैं।
ग्लासगो जलवायु पैक्ट में 197 देशों से अपनी जलवायु महत्वाकांक्षा के बारे में हुई प्रगति पर, अगले वर्ष मिस्र में होने वाले कॉप-27 सम्मेलन के दौरान ताज़ा जानकारी प्रस्तुत करने का आहवान किया गया।
निश्चित ही दुनिया को ‘कब्रगाह’ न बनने देने के लिए दुनिया के छोटे- बडे देशों को अपने ‘विकास’ की प्रक्रिया पर पुन: चिंतन करने की आवश्यकता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि 25 शिखर सम्मेलनों की तमाम संकल्पनाओं और प्रतिबद्धताओं के बावजूद धरती लगातार गर्म हो रही है। ऐसे वक्त जरूरी है कि दुनिया भी धरती से आती विनाश की आहट को समझे और इसे बचाने के लिए ठोस कदम उठाए।