बढ़ते राष्ट्रीय संकट में नागरिक समाज की भूमिका पर बेंगलुरु संवाद

‘बढ़ते राष्ट्रीय संकट में नागरिक समाज की भूमिका’ पर आयोजित कर्नाटक राज्य सम्मेलन का उद,घाटन करते हुए न्यायमूर्ति एच. नागमोहन दास ने कहा कि देश में सत्ता पक्ष और नागरिक समाज में परस्पर विश्वास का घटना एक चिंताजनक परिवर्तन है. इसके फलस्वरूप सरकार नागरिकों की अभिव्यक्ति की आज़ादी को देशद्रोह समझने की ग़लती कर रही है और जनसाधारण हर सरकारी फ़ैसले को शक की निगाह से देख रहे हैं.

नागरिक संवाद की शुरुआत सभी प्रतिनिधियों द्वारा महात्मा गांधी की प्रतिमा के समक्ष एक मौन प्रदर्शन के ज़रिए संविधान रक्षक नागरिक समाज की सक्रिय प्रतीक तीसता सीतलवाड की गिरफ़्तारी के विरोध से की गयी.

बेंगलुरू के गांधी भवन के जे. पी. सभागार में जन-आंदोलन महामैत्री, सिटीजेंस फ़ॉर डेमोक्रेसी, जनसंग्राम परिषद और साम्प्रदायिक सद्भावना समाज के संयुक्त तत्वावधान में २५-२६ जून को सम्पन्न इस संवाद में कर्नाटक के ४५ जनसंगठनों ने अंतिम सत्र में ‘बेंगलुरू आवाहन’ स्वीकारा और एक संघर्ष संचालन समिति की घोषणा की. जिससे विविध नागरिक संगठनों की तरफ़ से देश की हर दिशा में नागरिक संवादों का आयोजन किया जा सके.


यह याद रखना होगा कि राजधानी में पिछले साल किसानों की खेती के कारपोरेटिकरण के ख़िलाफ़ एक साल तक चले अहिंसक प्रतिरोध के दबाव में केंद्र सरकार द्वारा तीन विवादास्पद क़ानूनों को वापस लेने का उचित निर्णय लिया. लेकिन अब वैसे ही तीन किसान विरोधी क़ानून कर्नाटक में लागू करने की घोषणा से समूचे ग्रामीण कर्नाटक में बेचैनी का माहौल है.


सिटीजंस फ़ॉर डेमोक्रेसी के राष्ट्रीय अध्यक्ष एस. आर. हिरेमथ ने अपने बीज-वक्तव्य में १९७५ के आपातकाल को प्रधानमंत्री की कुर्सी बचाने की ग़ैरक़ानूनी कोशिश के रूप में देखते हुए २०२२ में की जा रही कोशिशों को ‘नागरिकों की महत्ता’ को नकारने की आत्मघाती चेष्टा बताया. यह भी कहा साम्प्रदायिक तानाशाही को बेपरदा करने के लिए नागरिक संगठनों की सक्रिय एकता एकमात्र उपाय है. १९७५ की इमर्जेंसी का मुक़ाबला करने में जयप्रकाश जैसा करिश्माई लोकनायक देश का मार्गदर्शक रहा. आज यह भूमिका नागरिक संगठनों को आगे बढ़कर निभानी होगी.


सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ वक़ील और मानव अधिकार आंदोलन में १९७० के दशक से लगातार जुटे एन. डी. पंचोली ने न्यायपालिका की गिरती प्रतिष्ठा के लिए केंद्र सरकार को ज़िम्मेदार करार देते हुए न्यायव्यवस्था की मज़बूती के लिए न्यायाधीशों और वक़ील समुदाय से संविधान और नागरिक आज़ादी की रक्षाका दायित्व पूरा करने की अपील की. इस सिलसिले में तीसता सीतलवाड की गिरफ़्तारी के विरोध को ज़रूरी बताया.

दो दिवसीय जन-संवाद में क्रमश: कृषि संकट, संविधान की उपेक्षा, भारत के मूल आधारों पर प्रहार, बहुजन समाज का आगे बढ़ता न्याय अभियान, नागरिकएकता को साम्प्रदायिक ताक़तो की चुनौती, देश दुर्दशा को दूर करने में किसान, श्रमिकों, महिलाओ, दलितों और लोकसंगठनों की भूमिका पर गम्भीर चर्चा के सत्र रखे गए. वक्ताओं में एस. आर. दारापुरी(उत्तर प्रदेश), अशोक दावाले (दिल्ली), दत्ता देसाई (महाराष्ट्र), आनंद कुमार (गोवा),,यशोधम्मा(कर्नाटक) ए. नारायण(कर्नाटक), व राजा पटेरिया (मध्य प्रदेश) सम्मिलित थे. माइकेल फ़र्नांडीस (हिंद मज़दूर किसान पंचायत), टी. आर. चंद्रशेखर (वैज्ञानिक), बदगलपुरा नागेन्द्र (कर्नाटक रैयत संघ), सुगत श्रीनिवासराजू (वरिष्ठ पत्रकार), मोहमद यूसुफ़ कन्नी (जमात ए इस्लाम हिंद), राघवेंद्र कुश्तगी (जनसंग्राम परिषद) और नंदिनी जयराम (जन आंदोलन महामैत्री) ने सत्रों की अध्यक्षता की.
सम्मेलन के संयोजन में किसान संगठनों, श्रमिक संगठनों, महिला संगठनों और रचनात्मक कार्य से जुड़ी संस्थाओं की केंद्रीय भूमिका रही. इसमें कांग्रेस, सी. पी. आई., सी. पी. एम., फ़ॉर्वर्ड ब्लाक, एस. यू. सी. आई., डी.एस.एस., कर्नाटक राष्ट्र समिति पार्टी, सी. पी . आई. (मार्क्सिस्ट-लेनिनिस्ट), आर. पी. आई. और स्वराज इंडिया की सौम्य उपस्थिति भी रही. लेकिन रंगकर्मियों, लेखकों, वकीलों, शिक्षकों, विद्यार्थियों, बैंक कर्मचारियों और पत्रकारों के साथ हिंदू (शूद्र शक्ति, दलित महिला ऊकूटा), ईसाई (कंफेडरेशन ऑफ़ इंडियन क्रुस्ह्चियंस) और मुस्लिम सामुदायिक संगठनों (क़ुरैशी कमेटी, मुस्लिम महिला समिति) के साथ सार्थक सहयोग उल्लेखनीय आयाम रहा।

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