भाईजी एस एन सुब्बाराव की स्मृति में

चंबल में यह कहावत प्रचलित थी, मगर 1960 से यह बदल गई। और इसकी नींव रखी बागी मानसिंह के बेटे तहसीलदार सिंह ने नैनी जेल से पत्र लिखकर बाबा संत विनोबा भावे को चंबल में आने का आग्रह किया और बताया कि कुछ बागी आत्मसमर्पण करना चाहते है। यहां से आत्मसमर्पण की भूमिका बनी।

मेश चंद शर्मा

प्रकृति सदैव सृजन करती रहती है। यह सतत प्रक्रिया है। बदलाव प्रकृति का सहज नियम है। जो नियमित चलता रहता है। सृजन- विसृजन, पैदा होना- खत्म होना, बनना-बिगड़ना, जीवन-मरण, शुरू होना-समाप्त होना, विकास-विनाश यह प्राकृतिक शैली है। इसके बिना प्रकृति चल नहीं सकती। इसके लिए प्रकृति के अपने नियम है। उन नियमों के अन्तर्गत संचालित है, यह सब प्रक्रिया। नियम के बाहर कुछ नहीं है।

प्रकृति में नियम और नियमदाता एक ही है। समग्र और खंड दोनों एक ही नियम से संचालित होते हैं। दोनों के लिए दो नियम होंगे तो परम सत्य अटल कैसे रहेगा। सत्य की सत्ता नहीं प्रभुता स्थापित होती है। सत्ता कितनी भी कोशिश कर ले वह भ्रष्ट हो ही जाती है। सत्य के नाम पर चलने वाली सत्ता भी भ्रष्ट हो सकती है, अगर साधना, सादगी, सरलता, सहजता, स्पष्टता, संवेदना, संकल्प, समर्पण, समझदारी का अभाव हो। अंध भक्ति में अनुयायी झूठ बोलने लगे।

सत्य का अन्वेषण, अन्वेषक हो सकता है। सत्य का शोधकर्ता बनकर सत्य की खोज संभव है। इसलिए सत्य की सत्ता नहीं प्रभुता स्थापित की जाएगी तो सत्य की ओर कदम बढ़ेंगे। बाबा संत विनोबा भावे उनका भी व्यापक प्रभाव क्षेत्र रहा है। अध्यात्म के शोधक, प्रथम व्यक्तिगत सत्याग्रही, भूदान-ग्रामदान के प्रणेता, विभिन्न धर्मों के ज्ञाता, शांति सेना के संस्थापक, जय जगत का उदघोष देने वाले, भारत वर्ष की पैदल यात्रा करने वाले, गांधी विचार को जानने, समझने, मानने वाले संत विनोबा भावे।

चंबल आज हमको शांत, सहज, सरल नजर आ रहा है। यह कभी खौंफ का पर्यायवाची रहा था। लोग रात को आराम से सो नहीं पाते थे, तो दिन में भी चैन की सांस लेना मुश्किल था। हर समय दिल दहस्त से धड़कता रहता था। एक जाना अनजाना भय व्याप्त था। चंबल घाटी का नाम सुनकर क्षेत्र के बाहर के लोगों की भी धड़कन बढ़ जाती थी, सांस की गति तेज हो जाती थी। उसी चंबल घाटी में आज हर समय बेझीझक आवागमन हो रहा है, चहल पहल देखने को मिल रही है। इसका बीज संत विनोबा भावे के हाथों ही रोपा गया था। उसकी एक संक्षिप्त झलक यहां दी जा रही है। कभी समय मिलेगा तो विस्तार से भी लिखा जा सकता है।


“बागी न तो अपने पैरों से बीहड़ में जाता है और न अपने पैरों से बीहड़ के बाहर आता है।” ‘चंबल के बीहड़ डाकू (बागी) और पुलिस दोनों से ग्रसित थे।’ चंबल में यह कहावत प्रचलित थी, मगर 1960 से यह बदल गई। और इसकी नींव रखी बागी मानसिंह के बेटे श्री तहसीलदार सिंह ने नैनी जेल से पत्र लिखकर बाबा संत विनोबा भावे को चंबल में आने का आग्रह किया और बताया कि कुछ बागी आत्मसमर्पण करना चाहते है। यहां से आत्मसमर्पण की भूमिका बनी।


मेजर जनरल श्री यदुनाथ सिंह बाबा विनोबा के प्रतिनिधि के रूप में जेल में श्री तहसीलदार सिंह से मिले। मेजर जनरल यदुनाथ सिंह, श्री हरसेवक मिश्र आदि ने अपने ढंग से विनोबा जी के मार्गदर्शन में काम किया। इन सबका परिणाम सामने आया।


बाबा संत विनोबा भावे के सामने आत्मसमर्पण करने वाले बीस बागी यह थे–
10 मई, 1960 को रामऔतार सिंह, 17 मई को पातीराम, किशन, मोहरमन, 18 मई को लक्ष्मीनारायण शर्मा (लच्छी), प्रभुदयाल (परभू), 19 मई को पंडित लोकमन दीक्षित (लुक्का), कन्हई, तेजसिंह, हरेलाल, रामस्नेही, दुर्जन, विद्याराम, भूपसिंह (भूपा), जगजीत, मटरे, भगवान सिंह, 20 मई को रामदयाल, बदन सिंह, 26 मई को खचेरे ने आत्मसमर्पण किया।

चंबल घाटी शांति समिति ने (मेजर जनरल यदुनाथ सिंह ने स्थापना की) इन बागियों के मुकदमे लड़ना, इनका, इनके द्वारा पीड़ितों का पुनर्वास करना तथा आर्थिक-सामाजिक विकास के कार्यक्रमों को अपनी शक्ति अनुसार करने का कार्य भार संभाला। संस्थाओं, संगठनों ने समिति को सहयोग प्रदान किया।

अनेक वकीलों ने निशुल्क मदद की। कुछ मुकदमे स्वार्थपूर्ति के लिए झूठे भी बनाए गए थे। बीस में से तेरह बागी तो 1963 में ही छूट गए थे। तीन लोग 1968 में रिहा हुए। एक 1970 में रिहा हुआ। चंबल घाटी शांति समिति ने अभिनव प्रयोग कर जो शानदार काम किया उसने सभी के मध्य सकारात्मक संदेश एवं विश्वास जगाया। जिसका प्रभाव अच्छा रहा। यह बीज अंकुरित हो 14 अप्रैल,1972 में बड़े पैमाने पर देश दुनिया के सामने एक ऐतिहासिक महत्व का, अहिंसा, प्रेम का प्रयास वट वृक्ष के रूप में प्रस्तुत हुआ।


इसके बाद एक प्रयास और शुरू हुआ जगरुप सिंह को माधोसिंह ने विनोबा जी के पास भेजा मगर उन्हें सफलता नहीं मिली। इसके बाद माधोसिंह ने अपना नाम रामसिंह, ठेकेदार बदलकर विनोबा जी, जयप्रकाश जी से मिले। बंगला देश के मामले में व्यस्त रहने, एवं स्वास्थ्य ठीक न होने के बावजूद जयप्रकाश नारायण ने चंबल घाटी के काम को उठाने का निर्णय लिया। जिसने 12 वर्ष बाद चंबल घाटी में फिर से नई आशा की किरण जगाई।

चंबल घाटी शांति मिशन के महावीर भाई, हेमदेव शर्मा को काम सौंपा गया। स्वामी कृष्णानंद भी जुड़े और बिना साधनों के भी इन्होंने शानदार संपर्क, संवाद स्थापित किया। इनको बाद में तहसीलदार सिंह, पंडित लोकमन दीक्षित का साथ, सहयोग सहकार मिला जिससे काम में तेजी आई। इस तरह बागी, सर्वोदय कार्यकर्त्ता, आत्मसमर्पित बागी, संबंधित राज्य सरकारें, केन्द्रीय सरकार सभी के सहयोग से चंबल घाटी की पगारा कोठी पर जेपी के साथ बागियों की बातचीत शुरू हुई। प्रभावती दीदी, देवेन्द्र भाई, नारायण देसाई, भाईजी सुब्बाराव के साथ अनेक जाने-अनजाने कार्यकर्ताओं का समूह सक्रियता के साथ आत्मसमर्पण की तैयारी में ऊर्जा, उत्साह, अचंभित हो सहयोग, सहकार कर रहा था। स्थान,साधन कम मगर उत्साह बेइंतहा, रात दिन काम करने की लगन। भाईजी चंबल में सक्रिय थे। महात्मा गांधी आश्रम, जौरा में पी वी राजगोपाल एवं कुछ अन्य साथी सहयोग सहकार कर रहे थे।


ग्वालियर जैसे शहर में आत्मसमर्पण करने पर भीड़ के बढ़ जाने, इंतजाम करने में कठिनाई, व्यवस्था में चूक का भय आदि के कारण जौरा के महात्मा गांधी आश्रम (पुराने वाला, खादी बोर्ड वाला) में आत्मसमर्पण का आयोजन करने का तय हुआ।

उस समय जो उस दृश्य को देख रहे थे, उन्हें भी आश्चर्य हो रहा था कि यह सपना है या यथार्थ, अपनी ही आंखों पर लोगों को विश्वास नहीं हो रहा था। दो लाख रुपए के ईनाम वाला बागी, डाकू मोहर सिंह जिसका नाम सुनकर व्यक्ति, समूह नहीं क्षेत्र की नींद उड़ जाती थी वह अपने साथियों के साथ हृदय परिवर्तन के दम पर दिन के उजाले में जयप्रकाश नारायण की उपस्थिति में मंच पर बापू महात्मा गांधी के चित्र के सामने हथियार डाल रहे हैं। और जब यह धारा प्रारंभ हुई तो सैकड़ों बागियों ने आत्मसमर्पण कर अपना, अपने परिवार का, समाज का, क्षेत्र का, देश का, दुनिया की शांति का द्वार खोलने का काम किया। एक और मिसाल इतिहास में दर्ज हो गई। अहिंसा, प्रेम, करुणा के माध्यम से आत्मशक्ति का उदय हमने अपनी आंखों से देखा वह भव्य, अद्भुत, निराला, शानदार, गजब का दृश्य।

इस श्रृंखला में सैकड़ों बागियों ने आत्मसमर्पण कर एक नई जिंदगी की शुरुआत की। इसका लाभ समाज के सभी तबकों को मिला। इसमें सभी की जीत हुई, किसी की भी पराजय नहीं। गांधी जी ने सही कहा है “पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।” बदला नहीं बदलाव चाहिए। हाथ लगे निर्माण में, नहीं मांगने, नहीं मारने। हिंसा से कोई मसला हल नहीं होता। शांति, अहिंसा को मौका दे। अहिंसा, प्रेम का कोई विकल्प नहीं है।

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श्रद्धेय सुब्बाराव भाईजी की यादें दिलों से नहीं जाएंगी

भाईजी सुब्बाराव जी एवं उनके नेतृत्व में समर्पण के बाद पुनर्वास का कठिन, जटिलताओं से भरा काम पूरी हिम्मत, उत्साह, मेहनत के साथ उनके साथियों ने किया। चंबल में युवा शिविर की श्रृंखला चली। रचनात्मक कार्यक्रम, सृजनात्मक कार्य प्रारंभ हुए। नये नये साथी जुड़ते गए। राष्ट्रीय युवा योजना परिवार का विस्तार होता गया। देश-दुनिया में भी युवा शिविर, कार्यक्रम आयोजित किए गए। गांधीजी को वन मैन आर्मी कहा गया, यह पंक्ति भाईजी सुब्बाराव पर भी सटीक बैठती है। भाईजी को देश दुनिया में कितने परिवार अपना हिस्सा, अंग मानते हैं, उनको गिनना आसान नहीं है। भाईजी की स्मृति को हार्दिक सादर जय जगत।

आओ मिलकर भाईजी के विचार, कार्य को निष्ठा, संकल्प, समर्पण के साथ आगे बढ़ाने में अपनी क्षमतानुसार सक्रिय हो जाए। जिसका जैसा योगदान संभव है उसे स्वीकार कर साथ चले, आगे बढ़े। विविधता में एकता के दर्शन के साथ शांति, प्रेम, सदभावना, सौह्रार्द, एकजुटता, साझापन, रचना, सृजन, समता, एकता न्याय के कदमों को सशक्त बनाने में मददगार बने।
(रमेश चंद शर्मा, बा बापू 150)

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