भोजपुरी में फूहड़ता एवं अश्लीलता कैसे दूर हो
शचीन्द्रनाथ सन्याल ने अपनी आत्मकथा ‘बंदी जीवन’ के प्रथम संस्करण (वर्ष 1922) की भूमिका में लिखा है,’ ”किसी समाज को पहचानने के लिए उस समाज के साहित्य से परिचित होने की परम आवश्यकता होती है,क्योंकि समाज के प्राणों की चेतना उस समाज के साहित्य में भी प्रतिबिम्बित हुआ करती है.”अगर इस कसौटी पर वर्तमान में प्रचलित भोजपुरी गीतों और सिनेमा के आधार पर कोई श्रोता या दर्शक भोजपुरी भाषी समाज को समझने का प्रयास करे तो एक मलिन और छिछले समाज का चित्रण ही उसकी कल्पना में स्थापित होगा.
किंतु वास्तविक भोजपुरी समाज का सही निरुपण इसके यथार्थ लोकगीतों से समझा जा सकता हैं. कन्यादान के समय गाया जाने वाला भिखारी ठाकुर रचित गीत,”ओरी तर ओरी रे तर बइठे बरनेतिया ” एवं निर्गुण ” भँवरवा के तोहरा संगे जाइ ” किसी को भी भावुक कर सकता है. रोजगार हेतु परदेस जाने वाले की पत्नी की पीड़ा को दर्शाता गीत ‘ रेलीया बैरी ना टीकसवा बैरी, पइसवा बैरी ना, पीया के ले गइले रंगूनवा हो.’ पत्नी के उलाहने को प्रकट करता गीत ‘ बटीया जोहत रहीं सारी रतीया, रतीया कहाँ गववला ना.’
ये वास्तविक भोजपुरी है, लेकिन वर्तमान में फूहड़ता एवं अश्लीलता की अतिशयता ही इसका परिचय बन चुकी है. स्थिति यह है की सभ्य परिवारों में अथवा घर की महिलाओं के साथ बैठ कर आप इसे सुन भी नहीं पायेंगे. इनका फ़िल्मांकन सॉफ्ट पोर्न सरीखा होता है.
भोजपुरी की इस दुरावस्था के लिए उत्तरदायित्व
भोजपुरी की इस दुरावस्था के लिए उत्तरदायित्व तय करना ज्यादा कठिन नहीं है. अक्सर व्यावसायिक वर्ग और म्यूजिक कंपनियाँ तर्क देती हैं कि इसका मूल कारण जनता की अभिरुचि है, जो यही देखना और सुंनना चाहती है, एवं हम उसी के अनुरूप अपने व्यवसाय कों गति दे रहें हैं.किंतु यह तर्क अवसरवादिता का पर्याय अधिक लगता है. वास्तविक रूप से सर्वाधिक दोषी भोजपुरी में अपने लिए व्यावसायिक लाभ तलाश करने वाला वर्ग है. इन्होंने सुनियोजित तरीके से भोजपुरी कि आत्मा को खंडित किया है. मसलन अगर आप किसी व्यक्ति को एक विशेष प्रकार के भोजन का आदि बनाते हैं, तो सहज़ ही उसके अवचेतन मन में उस भोजन के प्रति एक प्रकार कि रूचि का भाव स्थायी होने लगता है. भोजपुरी गीत – संगीत के साथ भी ऐसा ही हो रहा है. पिछले दो दशकों से भोजपुरी भाषी समाज को फूहड़ बोलों वाले गीत और तड़क – भड़क वाले संगीत का व्यासनी बनाने का प्रयास होता रहा है. इसमें भोजपुरी गीतकारों का एक बड़ा वर्ग भी उतना ही दोषी है, जो निरंतर ऐसे द्विअर्थी और निम्नस्तरीय रचनाओं में लिप्त हैं. इसके पीछे प्रथम दृष्टया दो कारक नज़र आते हैं, पहला, शिक्षा का स्तर और सामाजिक पृष्ठभूमि, व्यक्ति के विचार और व्यवहार में प्रतिबिम्बीत होतें हैं.
आज कई सारे भोजपुरी गीतकार साहित्य की शिक्षा से कोसों दूर हैं. कई तो स्नातक तक नहीं हैं. अब आप इनसे किस तरह की रचना की उम्मीद कर सकते हैं? यह भी है कि जब ऐसी रचनाएँ लिखी जाती हैं, तभी तो कोई उन्हें गाता होगा.इसकी दूसरी वजह सामाजिक पृष्ठभूमि को माना जा सकता हैं. कुछ पिछड़े क्षेत्रों में गाली – गलौज सामान्य भाषा में इतना गहरा आबद्ध हो चूका है की ऐसे परिवेश से आया व्यक्ति ये समझ ही नहीं पाता की भाषा की मर्यादा कहाँ खंडित हो जाती है?
ऐसे में वह इसे सामान्य रूप में लेता है, जबकि बाहर से इसे देख – सुन रहा व्यक्ति इस अभद्रता को समझ रहा होता हैतुरत – फुरत पैसा कमाने और सस्ती लोकप्रियता की चाह में ऐसे गायक, गीतकार और व्यवसायियों की एक जमात इकठ्ठी हो गयी है. इसका सबसे दुःखद पहलू यह है कि यही लोग स्वयं को भोजपुरी की पहचान के रूप में प्रदर्शित करने का प्रयास कर रहे हैं.भोजपुरी साहित्य की पहचान को धूमिल कर उसे अश्लील बनाने में ऐसे ही वर्ग की भूमिका है. कही ना कही इससे छठी अनुसूची के लिए भोजपुरी के दावे पर भी प्रश्नचिन्ह लगता है.
अश्लीलता के विरुद्ध अभियान
ऐसी समस्या से हिंदी, पंजाबी भी ग्रसित हैं. आज पंजाबी गीत – संगीत की पहचान रेशमा, वडाली ब्रदर्स, बुल्लेशाह या अमृता प्रीतम नहीं बल्कि भोंडे, द्विअर्थी गाने वाले रैपर हो गए हैं ले वहाँ भी प्रो. पंडित राव धरेनवर जैसे लोग इस अश्लीलता के विरुद्ध अभियान चलाते रहें हैं. हालांकि भोजपुरी में यह समस्या अधिक विकट है. यहां भी डॉ. गुरुचरण जी ऐसे लोगों से संघर्ष करते हुए निस्वार्थ भाव से भोजपुरी की सेवा में समर्पित हैं.
भाषा और सांस्कृतिक प्रश्न एक विमीय नहीं होते. भोजपुरी भाषी समाज भी इसकी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता. कहीं ना कहीं समाज ने भी ऐसी चीज़ों को प्रश्रय दिया है. कई बार अपनी संकुचित आनंद के लिए हम ऐसे विषयों को भी अनदेखा कर देते हैं,जो बाद में समाज के लिए घातक हो सकता है.
भाषा दो प्रकार से कर्तव्य का निर्वहन करती है, एक तो यह समाज में अभिव्यक्ति का माध्यम है तो दूसरी तरफ संस्कृति की प्रवक्ता होती है. ऐसे में भाषा की मर्यादा की सुरक्षा हेतु समाज की भूमिका अधिक बढ़ जाती हैं. वर्ष 2013 में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने ‘ मैं हूँ बलात्कारी’ सरीखे अभद्र बोल वाले गाने के लिए एक पंजाबी गायक के विरुद्ध प्रशासन को सख्त कदम उठाने के साथ समाज से उन्हें बहिष्कार करने को कहा. भोजपुरी समाज भी इस निर्णय से निर्देशित हो सकता है. कानूनी कार्यवाही और बहिष्कार के अतिरिक्त अपनी भाषा के प्रति हमारा समर्पण भी अति आवश्यक है. भाषा की शालीनता पर कुठाराघात समाज की संस्कृति, परंपरा और पहचान पर आघात करना होता है. ऐसे तत्वों के विरुद्ध संघर्ष कठिन अवश्य है परन्तु असंभव नहीं. समाज का सहयोग इसे संभव बनाएगा.
शिवेन्द्र प्रताप सिंह
शोधार्थी- सामाजिक विज्ञान संकाय
वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, बिहार
E-mail – Shivendrasinghrana@gmail.Com