फिल्में : मनोरंजन , समाज और हम

एक फिल्म संस्कृति का निर्माण हो

फिल्में : मनोरंजन , समाज और हम यह एक विशद विषय है जिसकी खोज और विद्वत्तापूर्ण पड़ताल की है प्रयागराज से ओम प्रकाश मिश्र ने.

फिल्में, व्यक्ति, परिवार और समाज एक समुच्चय के रूप में एक्य को प्राप्त करते हैं। व्यक्ति समाज की सबसे मूल इकाई है। परिवार की संकल्पनाए व्यक्तियों के समूह की होगीए तभी परिवार की इकाई का गठन हुआ होगा। प्राचीन पाषाण काल से ही प्रारम्भ परिवार.व्यवस्था थी। अत्यन्त विकृत परिवार.व्यवस्था की घृणित कल्पना केए सिद्धान्त में शासक वर्ग के लिए सम्पत्ति व परिवार के लिए पूर्ण साम्यवाद ;यहाँ तक कि पत्नियों का भी साम्यवाद की कल्पना थीद्ध किया थाए वह किसी भी सभ्य समाज के लिए विषवृक्ष हो सकता था। परन्तु व्यक्ति, परिवार की मूल इकाई ही नहीं वरन् परिवार.व्यवस्था के सामंजस्य तथा सौन्दर्य का आधार भी होता है। यही व्यक्ति व परिवार समाज के निर्माण का तथा विकास का भी कार्य करते है।


समाज के निर्माण व विकास की प्रक्रिया में भोजन वस्त्र आवास की आवश्यकता के उपरान्त चिकित्सा शिक्षा व मनोरंजन की आवश्यकतायें भी जुड़ती गयीं। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । समाज में व्यक्तिगत स्तर पर पारिवारिक स्तर पर व समाज के स्तर पर मनोरंजन की महत्ता समय के साथ साथ बढ़ती गयी। जीविकोपार्जन के लिए कठिन परिश्रम के उपरान्तए अवकाशए विश्राम के क्षणों में मनोरंजन अत्यन्त आवश्यक होता ही है।

मनोरंजन मात्र मनोरंजन नहीं होता…


मनोरंजन मात्र मनोरंजन नहीं होता है वह मनुष्य की व्यक्तिगत व समष्टिगत भावों को जागृत करने का सशक्त माध्यम भी है। फिल्में भी मात्र मनोरंजन का साधन मात्र नहीं है। भारतीय परिपेक्ष्य में फिल्मों का जुड़ाव व्यक्ति समाज राष्ट्र से कुछ अधिक ही है। भारतीय जनमानस कुछ मामलों में पाश्चात्य देशो से इस अर्थ में अलग है कि वह कुछ ज्यादा भावना प्रधान जीवन जीता है।

alt= "आदि पुरूष दादा साहब फाल्के "
आदि पुरूष दादा साहब फाल्के

भारतीय सिनेमा के आदि पुरूष दादा साहब फाल्के की पहली फिल्म ष्ष्राजा हरिश्चन्द्रष् थी यह फिल्म वर्ष 1913 में प्रदर्शित हुई थी। वह समय मूक फिल्मों का था। आरम्भ में पौराणिक व ऐतिहासिक फिल्में ज्यादा बनी थी। यद्यपि ऐसा माना जाता है कि बालीवुड की फिल्मों पर हालीवुड की एक्शन प्रधान फिल्मों का प्रभाव देखा गया था।


मूक फिल्मों के बाद ध्वनि के साथए वाली फिल्में बनीए इस कड़ी में पहली ध्वनि सहित फिल्म ष्ष्आलम आराष् 1931 में प्रदर्शित हुई थी। वास्तव में दृश्य. श्रव्य माध्यम का संयुक्तीकरणय एक क्रान्तिकारी विकास था। क्षेत्रीय फिल्मों में पहली बंगला फिल्म ष्ष्नल दमयंतीष् 1917 तथा दक्षिण भारतीय फिल्मों में ष्ष्कीचक वधमष् मूक फिल्म थी। चूँकि ष्ष्कीचक वधमष् के सारे पात्र तमिल थेए अस्तु इसे तमिल फिल्म माना जा सकता था।


बंगला में पहली ध्वनि सहित फिल्म ष्ष्जमाई षष्ठीष् थी जो 1931 में प्रदर्शित हुई थी। तमिल भाषा में पहली ध्वनि रहित फिल्म कालिदास 1931 में ही प्रदर्शित हुई थी।
1932 में वी0 शांताराम द्वारा निर्देशित फिल्म ष्ष्अयोध्येचा राजाष् मराठी में तथा हिन्दी में अयोध्या का राजा बनाई गई व प्रदर्शित हुई। यह मराठी व हिन्दी दोनो भाषाओं में बनाई गई थी।
1947 के बाद से भारत में उल्लेखनीय व अच्छे परिवर्तन दृष्टि गोचर होते हैं।

सत्यजीत रे विमल राय आदि ने गरीब वर्ग की त्रासदी पर फिल्में बनाई। आगे चलकर सामाजिक सन्दर्भो. दहेजए वेश्यावृत्तिए बहु विवाहए भ्रष्टाचार आदि विषयों पर भी फिल्में बनाई गयीं। ऋत्विक घटकए मृणाल सेन जैसे लोगों की प्रतिभा ने भी आम आदमी की परेशानियों पर दृष्टि डाली।


अन्तर्राष्ट्रीय जगत पर भारतीय फिल्में


अन्तर्राष्ट्रीय जगत पर भी भारतीय फिल्मों ने नाम कमाना आरम्भ किया। इन सभी फिल्मों का एक महत्वपूर्ण पक्ष उत्तम गुणवत्ता का संगीत में रहा है। दृश्य.श्रव्य माध्यम में संगीत की संप्रेषण क्षमता अभूतपूर्व होती है। आगे के कालखण्ड लगभग 1970 से मसाला फिल्मों का बोलबाला शुरू हुआए जिन का लक्ष्य सामाजिक चिन्तन कम तथा बाक्स आफिस ज्यादा रहा है।

जब केवल बाक्स आफिस पर सफलता ही लक्ष्य हो तो फिल्मों का मुख्य लक्ष्य धनार्जन की ही हुई। यद्यपि भारतीय सिनेमा हमारे जीवन से इतना जुडा है कि वह जीवन का हिस्सा जैसा बन गया हैं परन्तु बाक्स आफिस की अर्थलोलुपता ने जीवन मूल्यों के क्षरण की भी प्रवृत्ति दिखाई पड़ती है।
मुझे अपने बचपन के समय देखी फिल्मों का स्मरण है उस समय फिल्म डिवीजन द्वारा बनाई गई न्यूज डाकुमेन्टरी कितने महत्वपूर्ण समाचारों व सूचनाओं को समाहित किए होते थे।

1962 के भारत चीन युद्ध 1965 के भारत पाकिस्तान युद्ध तथा 1971 में हुये भारत.पाकिस्तान युद्ध के बाद देश भक्ति व राष्ट्र रक्षा के अनेक प्रेरक समाचार फिल्मों के पहले न्यूज डाकुमेन्टरी में दिखाये जाते थे। इन समाचारों को दिखाये जाने का प्रभाव जनमानस पर स्पष्टतः दिखता था।
वस्तुतः दृश्य.श्रव्य माध्यमों से मनोरंजन शिक्षा व अन्य क्षेत्रों में प्रचार.प्रसार सम्बन्धी क्रान्तिकारी परिवर्तन दृष्टिगोचर हुये। सिनेमा एक तरफ राष्ट्रीय व सामाजिक दायित्वों का निर्वहन भी करता है।

हिन्दी के प्रसार का महती कार्य

यह महत्वपूर्ण बात हमारे मनोमस्तिष्क में आती है कि विशेषतः हिन्दी सिनेमा ने न केवल देश वरन् विदेशो में भी हिन्दी के प्रसार का महती कार्य किया है। जन.जन में विशेषकर अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में हिन्दी के शब्द भंडार का व्यापक प्रचार.प्रसार व स्वीकार्यता हिन्दी फिल्मों के माध्यम से हुई है।

इसके अतिरिक्त यह भी महत्वपूर्ण है कि फिल्मों में चूँकि दृष्य एवं श्रव्य दोनों ही एक साथ होते हैं तथा व्यक्ति यदि इतर भाषा की फिल्में भी देखता है तो कहे हुये शब्दों को फिल्माये जाने वाले दृश्यों के साथ जोड़कर देखने से विभिन्न भाषाओं का प्रचार.प्रसार अन्य क्षेत्रों में सहज रूप में होता है।

alt= "पूना फिल्म इन्स्टीच्यूूट"
पूना फिल्म इन्स्टीच्यूूट

मैने वर्ष 1977 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पूना फिल्म इन्स्टीच्यूूट के प्रोफेसर सतीष बहादुर द्वारा संचालित एक माह का फिल्म एप्रेसिएशन कोर्स किया था। इस कोर्स में विश्व की अनेक भाषाओं की उत्कृष्ट फिल्में दिखायी गयी थी। उस कोर्स में उन फिल्मों पर विचार विमर्श भी होता था। उस कोर्स से मेरे मानस में विशेषतः बंगला फिल्मों में रूचि जागृत हुई जिनमें फिल्मों का निर्देशन पटकथा और संगीत सभी कुछ सरस स्वाभाविक मनोनुकूल व सामाजिक सन्दर्भो से जुड़ी हुई फिल्मों का निर्माण अधिक संख्या में हुआ है।

स्वस्थ मनोरंजन बच्चों को उनके सर्वांगीण विकास में सहायक

स्वस्थ मनोरंजन बच्चों को उनके सर्वांगीण विकास में सहायक होता है। मनोरंजन की आवश्यकता प्रौढ़ो व वृद्धों को तनाव से दूर रखने में सहायक होती है। इतिहास गवाह है कि विज्ञान व प्रौद्योगिकी की प्रगति के साथ.साथ आदमी अधिक व्यस्त व तनावग्रस्त होता जा रहा है। कभी.कभी सामाजिक तनावों विशेषकर असुरक्षा की भावना कुछ लोगो को मानसिक अवसाद की तरफ भी ले जा सकती है। ऐसे में मनोरंजन का महत्व बढता है।

फिल्मों का महत्वपूर्ण घटक यही भी है कि जितनी देर से हम सिनेमा घर में फिल्में देखते है उतने समय तक हम लगभग पूरे संसार से एक प्रकार का अवकाश सा ले लेते हैं। कहना अनुचित न होगा कि टेलीवीजनए इण्टरनेटए स्मार्ट मोबाइल आदि उपकरणों की उपलब्धता ने जहाँ एक ओर सिनेमा उद्योग को नुकसान पहुँचाया हैं वही दूरदर्शन पर अथवा अन्य तकनीकी माध्यमों से फिल्में देखने पर मेरा यह मानना है कि घर में रहने पर जहाँ एक ओर भले ही थोड़ी सहूलियत हो जाती होए परन्तु घर में रहने पर जहाँ एक ओर उस माहौल से कट पाना कठिन होता हएै वही मनोरंजन का पूरा आनन्द लेना और भी कठिन हो जाता है।

वर्ष 2020 के आरम्भ से ही एक संक्रामक रोग कोरोना ने पूरे संसार को ऐसा आक्रान्त व आतंकित किया कि ज्यादा लोगों के जुटने पर विभिन्न देशों में रोक लगायी गयी परिणाम स्वरूप सिनेमा हालों मल्टीप्लेक्सों और थियेटरों में भीड़ बहुत कम हो रही है। कई महीने तक तो वे विभिन्न देशों में मजबूरी में बन्द भी कर दिये थे। अब धीरे.धीरे वे खुल रहें है परन्तु कई प्रतिबन्धों के साथ एक बात तो स्पष्ट है कि अब शायद उस तरह की भीड़ सिनेमाघरोंए थियेटरोंए मल्टीप्लेक्सों में निकट भविष्य में वैसी भीड़ अब नही जुटा करेगी। इससे फिल्म उद्योग का स्वरूप ढाँचा व आर्थिक साम्राज्य भी परिवर्तत होगाए जिसका प्रारम्भ हो चुका है।

यादगार फिल्में

कुछ यादगार फिल्में जो सामाजिक दायित्वों की दृष्टि से महत्वपूर्ण बन पड़ी थी उनमें काफी वर्षो पहले बनी व प्रदर्शित फिल्म ष्ष्परिवारष्ष् की याद बरबस आ जाती है। छोटा परिवार रखने के आदर्श को परिवार नियोजनध्परिवार कल्याण के लिए यह एक बहुत अच्छी फिल्म बनी थी। उसके बाद इस थीम पर बनी कोई अन्य फिल्म याद नहीं आती।

देश प्रेम भारत के साथ चीन एवं पाकिस्तान से हुये युद्धों तथा आनुशंगिक विषयों पर कई अच्छी फिल्में बनाई गई। 1962 के भारत चीन युद्ध पर बनी फिल्म ष्ष्हकीकतष्ष् बाद में ष्ष्एल0ओ0सी0ष्ष् ष्ष्कारगिलष्ष् ष्ष्बार्डरष्ष् आदि फिल्में युद्धों पर बनी। देश प्रेम व आनुशंगिक विषयों पर मनोज कुमार ने अच्छी फिल्में बनाई जिनमें ष्ष्उपकारष्ष् एक ऐसी ही श्रेष्ठ फिल्म है। बंगाल की पृष्ठभूमि से आये निर्माता निर्देशकों जिनमें सत्यजीत रेए ऋषिकेश मुखर्जी आदि ने श्रेष्ठ कलात्मक फिल्में बनाई। सत्यजीत रे की फिल्म ष्ष्पाथेर पांचालीष्ष् एक उच्चस्तर की विश्वस्तरीय फिल्म थी।

कुछ महत्वपूर्ण फिल्मों जैसे ष्ष्अर्थष् ष्ष्मुगलेआजम ष्ष्लगानष् ष्ष्मेरा नाम जोकरष् आदि बनी। अर्थ पुरूषदंभ को चुनौती देने वाली एक महत्वपूर्ण फिल्म बन पड़ी है जिसमें फिल्म के अन्त में जब शबाना आजमीए कुलभूषण खरबंदा से यह कहती है कि ष्ष्अगर मैने ऐसा किया होता तो तुम मुझे स्वीकार कर लेतेघ् यह प्रश्न पूरी फिल्म के अर्थ को स्पष्ट करता है। फिल्म ष्ष्सारांशष् में एक वृद्ध दम्पति द्वारा असामाजिक तत्वों द्वारा पीड़ित गर्भवती महिला की गुंडो से रक्षा करने का दृश्य जटायु के चरित्र को रेखांकित करता है जब घायल जटायु ने रावण से युद्ध करने का प्रयास किया था। इसी फिल्म में एक ऐसा करूण दृश्य हैए जब अनुपम खेर अपने मृत पुत्र की राख लेने एयरपोर्ट जाता है तो वहाँ व्याप्त भ्रष्टाचार से व्यथित होने का सजीव चित्रण है।

alt=" मुगले आज़म"
मुगले आज़म


फिल्म ष्ष्मुगले आजम व ष्ष्शोले ऐसी फिल्में थी जिनमें भव्य सेट अभूतपूर्व संगीत व सजीव अभिनय के लिए याद की जाती है। सीधी सादी फिल्मों में ष्ष्परिचयष्सत्यकामष् ष्ष्कोरा कागज की याद आती है। राजकपूर की लम्बी फिल्म ष्ष्मेरा नाम जोकरष् के पहले दो भाग उत्कृष्ट हैए तीसरे भाग में विस्तार हेतु संभवतः उन्हे व्यावसायिकता ने मजबूर कर दिया था। मेरा नाम जोकर के दूसरे भाग में रूसी अभिनेत्री तथा राजकपूर के मध्य संवाद भाषाओं के अन्तर को कम करता है। इस फिल्म से संस्कृतियों के संगम की भी अनुभूमि होती है।


शैलेन्द्र की अमर कृति ष्तीसरी कसमष्ग्रामीण भारत की आंचलिक तस्वीर मूलरूप से पेश करती है। ऐसी फिल्में बहुत कम बनती है। फिल्म तीसरी कसम फिल्म फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी मारे गये गुल्फाम पर आधारित है। जिसकी मूल कहानी मैने पढ़ी हैं। मेरा निश्चित मत है कि ष्तीसरी कसमष् फिल्म ष्ष्मारे गये गुल्फामष् की तुलना में कई गुना अधिक प्रभावोत्पादक बन पड़ी है। इस फिल्म में मिथिलांचल की संस्कृति के साथ.साथ आंचलिक संगीतए खासकर नौटंकी शैली का अत्यंत उत्तम प्रयोग है।


ऐसा तो बहुत सारे उपन्यासों व कहानियों के आधार पर बहुत ही फिल्में बनी हैए जिनमें भगवती चरण वर्मा के उपन्यास ष्ष्चित्रलेखाष् प्रेमचन्द्र के उपन्यास ष्ष्गोदानष् व ष्ष्गबनष् पर फिल्में बनी। ष्ष्शतरंज के खिलाड़ीष् भी इसी कड़ी की है। मन्नू भण्डारी की फिल्म यही सच है कि तुलना में उस पर वासु चटर्जी की फिल्म ष्ष्रजनीगंधाष् अत्यन्त प्रभावोत्पादक बन पड़ी है। फिल्मों की उपरोक्त सूची या चयन कहीं किसी आब्जेक्टिव पर नहीं वरन् वैयत्रिक.व्यष्टिवादी परख पर ही आधारित है।

alt="राजकपूर"
राजकपूर

1956 में प्रदर्शित राजकपूर की फिल्म ष्ष्जागते रहोष् एक बेमिसाल व अत्यन्त उत्कृष्ट फिल्म है। अमित मैत्रा तथा शम्भू मित्रा का अत्यन्त श्रेष्ठ निर्देशन इस फिल्म की निधि है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत के समाज पर एक व्यंग्य है। इसने समाज के सामने एक चेतावनी प्रस्तुत किया जिससे समाज का चारित्रिक अधः पतन रूक सके।


यह एक प्रयास था समाज में मौजूद मासूमियत को बचाये रखने के लिए। इसका एक गीत ष्ष्मैं कोई झूठ बोल्याष्ष् अदभुद बन पड़ा है। इस फिल्म को भारतीय सिनेमा का मील का पत्थर माना जा सकता है। फिल्मों की सूची बहुत लम्बी भी हो सकती हैए परन्तु वर्तमान काल.खण्ड के पिछले भाग यानी लगभग 30.40 साल के दरम्यान बनी ज्यादातर फिल्में मसालाए नग्नताए मारपीटए हिंसाए प्रतिशोधए अपराधियों.माफियाओं के महिमा मंडनए आदि पर इसलिए बनाई गई क्यों कि बाॅक्स.आॅफिस उन निर्माताओं के मन.मस्तिष्क में रहा होगा।

आवश्यकता इस बात की है कि हमारी नई पीढ़ी के लिए मिलिट्री शिक्षाए योगए स्वास्थ्य.शिक्षाए कम्प्यूटरए संचारए विज्ञान. प्र्रौद्योगिकीए भारतीय जीवन मूल्यों व आदर्शोए हमारी कुटुम्ब.व्यवस्था आदि को केन्द्र में रखकर हल्की.फुल्कीए उद्देश्यपूर्णए सुरूचिपूर्णए साफ.सुथरी फिल्में बनाई जायें। आजकल की फिल्मों में पी0टी0 करते जैसे नृत्यप्रधान व बिना अर्थ बाले गीतों व दुहरे अर्थो वाले गीतों से भरी निरर्थक फिल्मेंए जिनमें अंग प्रदर्शन व नग्नता ही रहती है। हमारे समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों को केन्द्र में रखकर फिल्में बनाया जाना श्रेयस्कर होगा
हाल के कुछ महीनों में फिल्में व्याप्त परिवारवाद व कार्टेल की चर्चा सामने आयी हैए ;जो कार्टेल हैए उसे अर्थशास्त्र की भाषा में कुछ लोगो का एकाधिकार ; व्स्प्ळव्च्व्स्ल्द्ध समझा जा सकता है। जिसमें कुछ व्यवसायीए व्यवसाय में प्रवेश ही न कर सकेंद्ध

परिवारवाद तो भारत की राजनीति पर कुछ हद तक हावी हैए उसी तरह फिल्म.उद्योग पर भी कुछ खास परिवार एकाधिकार ;डव्छव्च्व्स्ल्द्धजैसा बनाये हुये है। ऐसी ही चर्चा आती रहती है कि अन्डरवल्र्डएमाफिया व धन तंत्र तथा परिवारवाद का ऐसा कुचक्र रचा गया है कि सीधे सादे लोगए अब इस व्यवसाय में प्रवेश ही न कर सकें।

कुछ ऐसी भी चर्चा आती है कि सौ करोड़ की फिल्म क्लबए दो सौ करोड़ की फिल्म का क्लब आदि.आदि। बाॅक्स आफिस की सफलता के जो आकड़े सामने लाये जाते हैं तो उन्हें समझना बहुत मुश्किल होता है। कई बार तो उन पर विश्वास करना भी अत्यन्त कठिन होता है। कई फिल्मों को तो ऐसा प्रचार प्रसार किया जाता है कि अमुक देश में इतने करोड़ की कमाई हुईए जबकि सामान्य ज्ञान के आधार पर उस विशेष देश के भाषा.भाषियों के अनुसार वह फिल्म वहाँ शायद ही चल सकती हो।

एक प्रश्न हमारे सामने और भी है कि क्या कुछ उद्योगों की तरह ही फिल्म उद्योग भी एक या दोध्तीन स्थानों पर ही केन्द्रित क्यों रहे। जब सभी उद्योगों के लिए विकेन्द्रीकरण श्रेयस्कर है तो फिल्म उद्योग के लिए क्यों नहींघ् आखिर अधिकांश हिन्दी फिल्मों का निर्माण केवल मुम्बई में ही क्यों होता हैए शायद मुम्बई में फिल्म उद्योग के केन्द्रीयकरण के कारण ही माफिया अन्डरवल्र्ड का कारोबार भी विकसित हुआ हो। ऐसी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने का सबसे उत्तम तरीकाए फिल्म उद्योग का विकेन्द्रीकरण ही है। मुंबई में फिल्म उद्योग में निर्माता निर्देशकों को जिस आक्रामक मठाधीशी का सामना करना पड़ता हैए उससे मुक्ति का मार्ग भी खुलेगा। यह सभी को मालूम है कि मुंबई में फिल्म बनाने का जोखिम कोई भी फिल्म निर्माता भाँति भाँति की यूनियनों को नाराज करके फिल्म नहीं बना सकता है।

राज कपूर और दिलीप कुमार – दो फ़िल्मी हस्तियां, साम्य भी, जुदा भी!(Opens in a new browser tab)

आवश्यकता इस बात की भी हैए फिल्म निर्माण के ऐसे केन्द्रए सरकारी प्रयासों से विकसित किए जायें जिनमें एक फिल्म संस्कृति का निर्माण हो तथा उस क्षेत्र विशेष का भी विकास हो पायंे। साथ ही साथ उस क्षेत्र में रोजगार के अवसर भी उपलब्ध होंगे। एस क्षेत्र विशेष की संस्कृति का भी संवर्द्धन हो सकेगा। खासकर प्रौद्योगिकी के विकास से इन नये क्षेत्रों में फिल्म उद्योग का विकेन्द्रीकृत विकास हो सकेगा। इस हेतु निजी उद्यमिता का भी विकास होगा।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के कालखण्ड में नई पीढ़ी का जितना आकर्षण फिल्मी हीरोध्हिरोइनों व क्रिकेट के स्टार खिलाड़ियों के प्रति देखा गया वैसा समाज के आदर्श लोगो के लिए नहीं दिखा। इसलिए फिल्मों की गुणवत्ता में सुधार की आवश्यकता और भी है। कोरोना काल व उसके उपरान्त फिल्म उद्योग नई चुनौतियों का सामना कर रहा हैए उसका भविष्य कैसा होगा यह यक्ष प्रश्न है।

ओम प्रकाश मिश्र पूर्व रेल अधिकारी व पूर्व प्राध्यापक अर्थशास्त्र विभागए इलाहाबाद विश्वविद्यालय 66 इरवो संगम वाटिकाए देव प्रयागम
झलवाए प्रयागराज उ0प्र0 पिन कोड़. 211015
मोबाइल. 7376582525

Leave a Reply

Your email address will not be published.

5 + 18 =

Related Articles

Back to top button