ख़ालिस इस्लामी तालिबान और चीन की दोस्ती का राज

शिवकांत
शिवकांत, बीबीसी रेडियो के पूर्व संपादक लंदन से

ख़ालिस इस्लामी तालिबान और चीन . सत्ता में वापस क़ब्ज़ा करने वाले तालिबान का साम्यवादी देश चीन की सरकार के साथ दोस्ती का रहस्य क्या है? एक विश्लेषण कर रहे हैं लंदन से शिव कांत.

अफ़ग़ानिस्तान की तालिबान सरकार की बातें सुनकर अंदाज़ा होता है कि राजनीति में पाखंड का बोलबाला किस कदर हो चला है। दुनिया की सबसे ख़ालिस शरीयत पर चलने वाली इस्लामी अमीरी का दम भरने वाले तालिबान के प्रवक्ता ज़बीउल्लाह मुजाहिद ने चीन को अपना “सबसे अहम साथी बताते हुए कहा कि चीन की दोस्ती हमारे लिए एक बुनियादी और असाधारण अवसर की तरह है।”


यह बात कहते वक़्त दुनिया की सबसे ख़ालिस इस्लामी अमीरी को चीनी सरकार के वे ज़ुल्म कतई नज़र नहीं आए जो सिनजियांग के वीगर मुलसमानों को झेलने पड़ रहे हैं। चीन ने लाखों वीगर मुसलमानों को सुधारघरों में क़ैद कर रखा है। उन पर चौबीसों घंटे निगाह रखी जाती है। मजहबी पहनावे और रहन-सहन को बदलने के लिए मजबूर किया जा रहा है। सांस्कृतिक सफ़ाया चल रहा है और लोगों की नसबंदी भी की जा रही है।


इससे साफ़ ज़ाहिर है कि मजहबी जिहाद का असली मक़सद सत्ता हासिल करना है। ग्यारह सितंबर के हमले का असली मक़सद अमरीका को खाड़ी और अरब जगत की उन बनावटी इस्लामी तानाशाहियों की हिमायत करने की सज़ा देना था जिन्हें हटा कर वे मजहबी तानाशाहियाँ क़ायम करना चाहते थे। उनका मानना था कि इरान को छोड़कर बाकी के अर्ध लोकतांत्रिक और तानाशाही इस्लामी देशों की हुकूमतें शरीयत पर चलने वाली ख़ालिस इस्लामी हुकूमतें नहीं हैं।


जैसे इरान में शाह की हुकूमत को हटा कर अयतोल्लाह ख़ुमैनी ने शिया तानाशाही कायम की वैसे ही ओसामा और उनके जिहादी आतंकी सऊदी अरब, मिस्र, जोर्डन, इराक, सीरिया और अफ़ग़ानिस्तान जैसे इस्लामी देशों में ख़ालिस सुन्नी तानाशाहियाँ कायम करना चाहते थे। बाद में यही मुहिम पाकिस्तान, इंडोनेशिया, मलेशिया, तुर्की और भारत जैसे देशों में भी चलाई जाती।


यानी कि फ़िलहाल की लड़ाई इस्लाम और पश्चिम की संस्कृतियों की लड़ाई नहीं थी बल्कि इस्लाम के भीतर ही बिगड़े या भटके हुए और ख़ालिस इस्लामियों के बीच सत्ता की लड़ाई थी। यह लड़ाई जीत लेने के बाद उन के निशाने पर भारत, इस्राइल और रूस जैसे बड़ी इस्लामी आबादी वाले देश और अंत में पश्चिम के इसाई देश भी आने वाले थे।


ख़ालिस इस्लामी अमीरी क़ायम करने की इस लड़ाई के लिए पैसा तेल के पैसे से अमीर बने सऊदी अरब, कुवैत और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों से आ रहा था। ग्यारह सितंबर के हमलों ने इन देशों की आँखें खोलीं और उन्हें समझ आ गया कि जिस पैसे, मदरसों और कट्टर मौलवियों का निर्यात वे कर रहे हैं उनका इस्तेमाल कर उन्हीं के तख़्ते पलटने की तैयारी हो चुकी है।


इसलिए अब तालिबान की ख़ालिस इस्लामी हुकूमत को चीन इतना बड़ा दोस्त नज़र आ रहा है। क्योंकि अब सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात अपने ही तख़्ते पलटवाने के लिए पैसा देने को तैयार नहीं हैं। चीन ने अभी पैसा दिया नहीं है। लेकिन उम्मीद पर दुनिया क़ायम है। 


इसलिए अब तालिबान की ख़ालिस इस्लामी हुकूमत को चीन इतना बड़ा दोस्त नज़र आ रहा है। क्योंकि अब सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात अपने ही तख़्ते पलटवाने के लिए पैसा देने को तैयार नहीं हैं। चीन ने अभी पैसा दिया नहीं है। लेकिन उम्मीद पर दुनिया क़ायम है।


चीन खनिज संपदा के बदले निवेश करने की बातें कर रहा है। इसीलिए इस्लाम की सबसे ख़ालिस हुकूमत को इस्लाम का सबसे बड़ा दुश्मन भी सबसे बड़ा दोस्त नज़र आने लगा है। क्योंकि यदि इतिहास के पन्ने पलटें तो मज़हबों, ख़ासकर इस्लाम का सोवियत रूस और माओवादी चीन की कम्युनिस्ट हुकूमतों से बड़ा दुश्मन न आज तक हुआ है और न शायद होगा।

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