आ गया चुनाव (1)

इस बार विधानसभा चुनाव में जिस दल को सबसे ज्यादा सीटों का फायदा दिखाई दे रहा है,वह सपा है। 2012 में जिस पूर्ण बहुमत की सरकार का नेतृत्व अखिलेश यादव ने किया था, वह जनादेश वास्तव में मुलायम सिंह यादव के लिए था, जिन्होंने अपने पुत्र की ताजपोशी कर दी थी जो पांच साल के कार्यकाल में पार्टी और परिवार दोनों को एकजुट रखने में विफल रहे थे।

अरुण गुप्ता

रोजनामचा रामखेलावन का-70

बरसों पहले किसी आम चुनाव के दौरान दो पंक्तियां उछल कर बाहर आ गईं थीं –
“मंत्री के दौरे बढ़े, नेता घूमें गांव।
अब देरी किस बात की, आया निकट चुनाव।।”

सो चुनाव की शुभ बेला आने वाली है। राजनीतिक योद्धा अपने अस्त्र-शस्त्र तैयार कर रहे हैं। सेनाओं को सन्नद्ध करने का काम जोरों पर है। मित्र दलों के साथ गठबंधन वार्ताओं का क्रम तेज हो गया है। आइए डालते हैं एक नजर हालात पर-

  1. पूरे देश की तरह अपने सूबे में भी शुरुआती दो दशक एक दलीय(कांग्रेस) प्रभुत्व का रहा, लेकिन 1989 के बाद कांग्रेस सत्ता से न केवल वंचित रही है, बल्कि लगातार चौथे नंबर की पार्टी से ऊपर का स्थान पाने में भी सफल नहीं रही है। पार्टी के ब्रह्म(ब्राह्मण, हरिजन, मुस्लिम) फार्मूले के तीनों घटकों का उससे विलगाव अभी भी बना हुआ है। इस चुनाव में कमोबेश यही स्थिति बनी रहने की उम्मीद है।
  2. स्व. कांशीराम के बामसेफ व डीएस-4 आंदोलनों से उपजी बसपा 1985 विधानसभा चुनाव के बाद से लगातार अपनी सीटों का ग्राफ बढ़ाते हुए 2007 में स्पष्ट बहुमत की सरकार चलाने के बाद अगले दो चुनावों में क्रमशः 80 और 19 तक सिमट गयी। पिछले कुछ महीनों में बसपा के कई बड़े नेताओं व मौजूदा विधायकों ने पार्टी छोड़ी है और ज्यादातर ने सपा का दामन थामा है। इनमें राम अचल राजभर, लालजी वर्मा, सुखदेव राजभर, गुड्डू जमाली प्रमुख हैं। यद्यपि बसपा के प्रतिबद्ध मतदाता पार्टी के नेतृत्व व चुनाव चिह्न से जुड़े हैं लेकिन पुराने नेताओं के अलगाव से पार्टी का नुकसान होना तय है।
  3. इस बार विधानसभा चुनाव में जिस दल को सबसे ज्यादा सीटों का फायदा दिखाई दे रहा है,वह सपा है। 2012 में जिस पूर्ण बहुमत की सरकार का नेतृत्व अखिलेश यादव ने किया था, वह जनादेश वास्तव में मुलायम सिंह यादव के लिए था, जिन्होंने अपने पुत्र की ताजपोशी कर दी थी जो पांच साल के कार्यकाल में पार्टी और परिवार दोनों को एकजुट रखने में विफल रहे थे। पिछला विधानसभा चुनाव कांग्रेस और उसके बाद लोकसभा चुनाव बसपा के साथ मिलकर लड़ने के बावजूद सपा को कोई दलगत लाभ नहीं हुआ था। इस बार अखिलेश अब तक जयंत चौधरी के रालोद, ओमप्रकाश राजभर के भासपा,अपना दल (कृष्णा पटेल गुट) सहित कई छोटे दलों से समझौता कर चुनावी मैदान में उतर रहे हैं। उन्हें मुस्लिम मतों के एकजुट समर्थन का भरोसा है। वह पूर्वांचल के कई बाहुबलियों को भी अपने पाले में खड़ा देख रहे हैं।पार्टी को जेल में बंद होने के कारण फायरब्रांड आजम खां की कमी जरूर महसूस होगी। पारिवारिक मतभेद दूर करने की दिशा में अखिलेश देर से ही सही, सक्रिय हुए हैं। इस बार पार्टी अन्य विपक्षी दलों से आगे निकल गई है।
  4. पश्चिमी उ प्र में चौ. चरण सिंह व अजीत सिंह की विरासत संभाल रहे जयंत चौधरी की रालोद को गठबंधन करने का सबसे अधिक अनुभव है जो अब तक सभी प्रमुख दलों के साथ समझौते कर व तोड़ चुकी है। इस बार वह सपा के साथ है। पार्टी साल भर चले किसान आंदोलन के फलस्वरूप व्याप्त नाराजगी में अपना राजनीतिक लाभ देख रही है लेकिन रालोद को अतीत में सबसे ज्यादा फायदा भाजपा के साथ गठबंधन में रहा है। यदि 2013 के सांप्रदायिक हिंसा के बाद जाट-मुस्लिम समुदायों की दूरी खत्म करने में जयंत चौधरी सफल होते हैं, तो वह सशक्त छत्रप के रूप में उभर सकते हैं।
  5. पिछले कई चुनावों में सूबे में कोई खास प्रभाव छोड़ पाने में विफल रही आम आदमी पार्टी इस बार सपा से शुरुआती समझौता वार्ता के बाद अब पूरे प्रदेश में चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है, लेकिन पार्टी का फोकस पंजाब चुनाव में ज्यादा रहने की संभावना है।
  6. 2022 का चुनाव उ प्र में भाजपा के साथ मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ की भी परीक्षा है। गत चुनाव में योगी पार्टी का चेहरा नहीं थे और अखिलेश की तरह उन्हें चुनाव के बाद नेतृत्व मिला था। भाजपा की चिंता यह भी है कि 1985 के बाद कोई भी पार्टी बहुमत के साथ सत्ता में वापसी करने में सफल नहीं रही है, जबकि 1991 में भाजपा, 2007 में बसपा, 2012 में सपा और 2017 में भाजपा को पूर्ण बहुमत के साथ जनता ने सत्ता सौंपी थी। इस बार पुराने सहयोगियों में संजय निषाद की निषाद पार्टी और अनुप्रिया पटेल का अपना दल ही बचे हैं। पार्टी छोटे दलों के बजाय कमजोर क्षेत्रों के मजबूत नेताओं को जोड़ने की रणनीति पर काम कर रही है। रायबरेली से कांग्रेस की अदिति सिंह और आजमगढ़ में वंदना सिंह भाजपा में शामिल हो चुके हैं। पांच साल तक सरकार के कामो का लाभ आम आदमी तक किस सीमा तक पंहुच पाया है। पार्टी के विधायकों का जनता से जुड़ाव भी निर्णायक होगा, खासकर कोरोना काल में। अपने कार्य काल में सरकारी स्कूलों, अस्पतालों, तहसीलों, ब्लाकों और थानों पर आने वाली परेशानियों को किस सीमा तक कम कर पाई है, यह भी एक पैमाना होगा। कहा जाता है कि ज्यादातर विधायक चुनाव जीतने के लिए मोदी जी के नाम की वैतरणी के सहारे बैठे रहे हैं। पार्टी बड़ी संख्या में विधायकों के टिकट भी काट सकती है।इस आशंका से ग्रसित कई विधायक विरोधी दलों के संपर्क में भी हैं। फिर भी मोदी जी और योगी जी की छवि चुनाव में पार्टी के लिए सकारात्मक परिणाम देने में सक्षम दिखाई देती है।
  7. अन्य दलों में पीस पार्टी, महान दल आदि का प्रभाव कम हुआ है। ओवैसी की एम आई एम सिर्फ भाजपा के पक्ष में हिंदू मतों का ध्रुवीकरण करने में थोड़ा बहुत सहायक हो सकती है।

अब तक का चुनावी परिदृश्य 2022 में भाजपा और सपा के बीच मुख्य मुकाबले का मंच तैयार करता दिख रहा है। बसपा व कांग्रेस कहीं कहीं मामले को त्रिकोणीय बनाने का प्रयास कर सकते हैं। फिलहाल भाजपा सपा के सापेक्ष आगे है लेकिन चुनाव की तारीख तक यह अंतर कितना रहेगा, देखना दिलचस्प होगा।

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