कृषि कानूनों का रद्द होना और कृषि क्षेत्र की समस्याएं: कारण और प्रभावों की समीक्षा
कृषकों के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुद्दा कृषि उत्पाद का मूल्य: यह प्रारंभ से ही कृषि क्षेत्र की सबसे प्रमुख समस्या रही है. इस विषय पर स्थाई रूप से केंद्र सरकार द्वारा एक "कृषि मूल्य आयोग" स्थापित किया गया था.
केंद्र सरकारों द्वारा कृषि पर बजट, योजनाओं के निर्माण, किसानों को राहत दिए जाने को प्राथमिकता दी जाती रही लेकिन, बड़े सुधारों द्वारा कृषि को लाभदायक बनाने के प्रयास नहीं हुए. इस संबंध में अधिकांश छोटी जोतों का हवाला देते हुए किसी परिवर्तन या सुधार के लिए इसको बाधक माना जाता रहा है. तथापि, वृहद पैमाने पर सहकारी खेती को जनांदोलन बनाने के प्रयास भी नहीं हुए. महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों में जहां ऐसे प्रयोग स्वैच्छिक संगठनों के प्रयासों और सरकारी सहयोग से किए गए, वहां इसके लाभदायक परिणाम कृषि, उत्पादन और लाभ के रूप में सामने आए और किसानों की आय और आर्थिक स्तर पर सकारात्मक प्रभाव प्राप्त हुए.
कृषि के महत्व, योगदान, उपयोगिता एवम उस पर निर्भरता के कारण राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र कृषि है. अर्थव्यवस्था का सर्वाधिक समस्याग्रस्त क्षेत्र भी कृषि ही है. देश की जनसंख्या के एक महत्वपूर्ण भाग की जीविकोपार्जन हेतु कृषि पर निर्भरता के कारण भी कृषि से प्राप्त लाभ और हानि से यह बड़ा तबका प्रभावित होता है. इन स्थितियों में पिछले एक वर्ष पूर्व बनाए गए कृषि कानूनों को रद्द किया जाना, किसानों के आंदोलन के संदर्भों में इसकी पृष्ठभूमि और अंतर्निहित समस्याओं को समझना और हल किया जाना आवश्यक है.
कृषकों के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुद्दा कृषि उत्पाद का मूल्य: यह प्रारंभ से ही कृषि क्षेत्र की सबसे प्रमुख समस्या रही है. इस विषय पर स्थाई रूप से केंद्र सरकार द्वारा एक “कृषि मूल्य आयोग” स्थापित किया गया था. इस आयोग में देश के प्रतिष्ठित कृषि अर्थशास्त्री की अध्यक्षता में विभिन्न कृषि उत्पादों की लागत क्या परीक्षण करते हुए कृषि उत्पादों के मूल्य हेतु सिफारिशें की जाति रही हैं. लेकिन इसके बावजूद इन आयोगों की सिफारिशें पूर्णरूपेण लागू नहीं किए जाने से किसानों को उत्पादन लागत के अनुसार मूल्य प्राप्त नहीं हुए.
वर्ष 2004 में एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में केंद्र सरकार द्वारा ” नेशनल कमीशन फॉर फार्मर्स” बनाया गया था. इस आयोग ने वर्ष 2006 में 5 रिपोर्ट सौंपी थीं. तब से ही कृषि क्षेत्र में मूल्य के संदर्भ में इसे महत्वपूर्ण और कृषि और किसानों के लिए उपयोगी और लाभदायक माना जाता रहा है एवम इसकी सिफारिशों को लागू किए जाने की मांग की जाती रही है.
संक्षेप में इसकी दस महत्वपूर्ण सिफारिशें थीं कि कृषि को समवर्ती सूची में लाया जाए, कृषि उत्पादों के उत्पादन लागत से 50% ज्यादा दाम दिए जाएं, कृषकों को कम दामों में गुणवत्तापूर्ण बीज दिये जाएं, गांवों में ज्ञान चौपाल की स्थापना एवं महिला किसानों को किसान क्रेडिट कार्ड दिए जाएं, किसानों को प्राकृतिक आपदा में मदद दी जाए, सरप्लस और उपयोग न की जाने वाली भूमि का वितरण किया जाए, प्रत्येक फसल हेतु फसल बीमा लागू की जाए, खेतिहर जमीन और वन भूमि को गैर कृषि उद्देश्यों हेतु कार्पोरेट्स को न दिया जाए, खेती के लिए कर्ज की व्यवस्था हर जरूरतमंद तक पहुंचे एवं सरकारी मदद से किसानों को मिलने वाले कर्ज की ब्याज दर कम कर के 4% की जाए. निश्चित ही यह सिफारिशें महत्वपूर्ण थीं लेकिन, कुछ आसान सिफारिशों के अतिरिक्त शेष का क्रियान्वयन नहीं हुआ. किसानों की मांग स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने की भी रही है.
वर्ष 2020 के तीन कृषि कानून एवम उनके निहितार्थ :
यह कृषि कानून :
- आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून 2020 के अंतर्गत अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज, आलू को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटाने का प्रावधान किया गया था और इन्हें बाजार में प्रतियोगी कीमतों पर बेचने को स्वीकृति प्रदान की गई थी. जाहिर है कि, इसके कारण किसानों को मूल्य की गारंटी और बाजार में कीमत नियंत्रण समाप्त हो जाता.
- कृषि उत्पादन, व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) कानून 2020 के अंतर्गत कृषि उत्पादन विपणन समिति के बाहर भी उत्पादन बेचने की छूट दी गई थी. इससे समर्थन मूल्य पर कृषि उपज मंडियों में उत्पाद के निश्चित मूल्य पर शासकीय क्रय की व्यवस्था समाप्त हो जाती. विगत एक वर्ष में ही तेजी से घोषित एवम अघोषित रूप से देश में कृषि उपज मंडियों का बंद होना इस कानून के क्रियान्वयन का एक कदम था.
- कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार कानून 2020 के द्वारा किसानों को निवेशक/पूंजीपति से समझौते द्वारा उत्पादन के पूर्व ही फसल का सौदा तय करने की छूट का प्रावधान किया गया था. यह सर्वाधिक विवादास्पद पहलू रहा, जिसमें बड़े पूंजीपतियों द्वारा उत्पाद का उचित मूल्य न दिए जाने से लेकर जमीन पर कब्जे और किसानों के विभिन्न प्रकार से शोषण की आशंकाएं शामिल थीं.
स्वतंत्रता के पश्चात से ही कृषि के प्रमुख मुद्दों की उपेक्षा :
दरअसल, केंद्र सरकारों द्वारा कृषि पर बजट, योजनाओं के निर्माण, किसानों को राहत दिए जाने को प्राथमिकता दी जाती रही लेकिन, बड़े सुधारों द्वारा कृषि को लाभदायक बनाने के प्रयास नहीं हुए. इस संबंध में अधिकांश छोटी जोतों का हवाला देते हुए किसी परिवर्तन या सुधार के लिए इसको बाधक माना जाता रहा है. तथापि, वृहद पैमाने पर सहकारी खेती को जनांदोलन बनाने के प्रयास भी नहीं हुए. महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों में जहां ऐसे प्रयोग स्वैच्छिक संगठनों के प्रयासों और सरकारी सहयोग से किए गए, वहां इसके लाभदायक परिणाम कृषि, उत्पादन और लाभ के रूप में सामने आए और किसानों की आय और आर्थिक स्तर पर सकारात्मक प्रभाव प्राप्त हुए.
इसे भी पढ़ें:
कृषि सुधार की दिशा में ही “एग्रो क्लाईमेटिक जोन्स” बना कर क्षेत्र अनुसार जलवायु, मिट्टी, वर्षा आदि के आधार पर खेती की योजना भी वांछित उद्देश्यों के अनुरूप क्रियान्वित न हो सकी. इनके अतिरिक्त ” खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों” की चर्चा बहुत हुई लेकिन, खेती को फूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्रीज से संबद्ध करने के काम को भी वांछित सीमा तक क्रियान्वित नही किया जा सका. आशय यह है कि, कृषि को लाभ का क्षेत्र बनाने की असफलता के कारण पूर्व से ही कृषि और किसानों की समस्याएं बढ़ती ही रहीं. पिछले वर्षों में इन्हीं समस्याओं के कारण और कृषि उत्पादन की अस्थिरता, समुचित मूल्य नहीं मिलने और सूखे और अतिवृष्टि से उत्पन्न “कर्ज की समस्या” का परिणाम महाराष्ट्र, कर्नाटक और पंजाब सहित देश भर में किसानों की बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति के रूप में भी सामने आया है. कृषि के क्षेत्र में “भारतीय खाद्य निगम” की भूमिका का सीमित होना और उपज के भंडारण हेतु शासकीय व्यवस्थाओं का नहीं किया जाना, सहकारी प्रयत्न न होना एवम निजी पूंजीपतियों को सरकार द्वारा अनुमति दिया जाना भी ऐसे पहलू हैं, जो कृषि और किसानों के हितों को संरक्षण प्रदान किए जाने में सरकार की अपनी भूमिका से पीछे हटने को स्पष्ट करते हैं एवम इनके विपरीत प्रभाव कृषक हितों पर हो रहे हैं.
वर्तमान कृषि समस्याएं, कानूनों का रद्दीकरण, अर्थव्यवस्था और लोकतंत्र : वर्तमान स्थितियों में इन सबके मध्य स्पष्ट, सीधे, गहरे और दूरगामी संबंध हैं. सर्वप्रथम, एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता के एक बड़े वर्ग को संतुष्ट किए बिना उन्हें प्रभावित किए जाने वाले कानून का निर्माण होना एवम उसके कारण देश में जन, धन का इस सीमा तक प्रभावित होना है. दूसरा मुद्दा, देश की अर्थव्यवस्था और जनता की बुनियादी समस्याओं को दर किनार कर तेजी से किया जाने वाला निजीकरण है. यह कानून भी उस दिशा में ही थे. तीसरा महत्वपूर्ण मुद्दा लोकतंत्र की स्थिति से संबंधित है. अर्थात, यदि सरकार ही जन हित को प्रभावित करने वाली नीतियां बनाए और जनता उनके प्रति इस हद तक अशंतोष व्यक्त करे तब लोकतंत्र का भविष्य क्या होगा? इस संबंध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका न्याय पालिका की भी रही कि, समस्या की वास्तविकता एवम विकरालता के परिप्रेक्ष्य में निरंतर मध्यस्थता एवम् निराकरण हेतु आवश्यक पहल एवम दिशा निर्देश दिए जाते रहे.
(अर्थशास्त्री डॉ. अमिताभ शुक्ल विगत चार दशकों से शोध, लेखन, अध्ययन, अध्यापन के क्षेत्र में सक्रिय हैं. देश एवम् अन्य देशों में सघन यात्राएं अध्ययन, शोध करते हुए अनुभव जन्य शोध- दृष्टि के साथ 100 शोध पत्र एवम् 10 किताबों का लेखन एवम् अनेकों संस्थाओं में सक्रिय योगदान किया है. कृषि अर्थशास्त्र पर विशेष रूप से अध्ययन, शोध एवम शोध परियोजनाओं पर कार्य किए हैं. भारतीय अर्थव्यवस्था का कोरोना त्रासदी के संदर्भ में गहन अध्ययन एवम् लेखन करते हुए 20 से अधिक लेख एवम् दो किताबों का प्रकाशन पिछले एक वर्ष में किया है. शोध कार्य हेतु अनेक संस्थाओं एवम् भारत सरकार द्वारा सम्मानित किए गए.)
(सम्प्रति : स्वतंत्र अध्ययन एवं लेखन.)
इसे भी पढ़ें: