आखिर क्यों सड़कों पर बैठने को मजबूर हैं खेतों में काम करने वाले किसान?

जानें नए कृषि कानूनों को

पिछले साल से भारतीय किसान खेतों में नहीं, सड़कों पर बैठे हैं. जिन हाथों में हल होता था, उनमें अब झंडे और लाठियां हैं. वजह हैं वे तीन नए कृषि कानून, जो केंद्र की बीजेपी सरकार ने देश के किसानों पर जबरदस्ती थोप दी हैं. किसानों को ऐसे किसी कानून की न तो जरूरत महसूस हो रही है और न ही उन्हें यह अपने हित में लग रहा है. जबकि सरकार इसे किसानों के हित में बनाया गया कानून बता रही है. बस यही वजह है कि देशभर में किसान धरने पर बैठे हैं और हाथों में झंडा लिए केंद्र सरकार के विरोध में प्रदर्शन और नारेबाजी कर रहे हैं, रेल रोक रहे हैं, सड़कों पर गाड़ियों का आना जाना तक रोक रहे हैं. इसी क्रम में कई बार कुछ अनहोनी भी हो जा रही हैं. आइए, जानते हैं किसानों के इस आंदोलन को और उन कृषि कानूनों को कुछ करीब से…

-सुषमाश्री

तीन नए कृषि कानूनों के विरोध में देश में पिछले साल 2020 से किसानों ने आंदोलन के रूप में जो ​मुहिम छेड़ी, वह इस साल के अंत तक अब भी अनवरत जारी है. इस साल 26 जनवरी को लाल किले पर तिरंगे के बजाय एक अन्य झंडा फहराने की किसानों के रूप में आतंकियों सी कोशिश करने पर आंदोलन कर रहे किसानों के प्रति देशवासियों की नाराजगी को बढ़ा दिया था, वहीं ​पिछले दिनों लखीमपुर खीरी हिंसा के कारण अपनी जान गंवा चुके 8 किसानों के कारण एक बार फिर जनता की सहानुभूति आंदोलन कर रहे इन किसानों के प्रति देखने को मिलने लगा है.

ऐसे में सवाल यह उठता है कि देश में आखिर किसानों ने यह आंदोलन किया ही क्यों है? आखिर कौन से वे तीन कृषि कानून हैं, जिनकी वजह से किसान इस तरह दो वर्षों से सडक पर बैठने को मजबूर हैं? इस सवाल के अलावा हमारे जेहन में एक और सवाल भी कौंधता है. वह सवाल है कि क्या हमारे देश में किसान आंदोलन का कोई इतिहास रहा है? कृषि प्रधान हमारे इस देश में अपनी मांगें पूरी करवाने के लिए आखिर किसान कब से हमारे देश में ऐसे आंदोलन कर रहे हैं?

भारत में किसान आंदोलन का इतिहास पुराना है. पंजाब, हरियाणा, बंगाल, दक्षिण और पश्चिमी भारत में पिछले सौ वर्षों में कई विरोध-प्रदर्शन हुए हैं. हर बार किसान अपने हक के लिए कानून में कुछ न कुछ बदलाव की मांग करते रहे हैं. ये मांगें वक्त और हालात के साथ बदलती रही हैं. शायद इसलिए क्योंकि समय के साथ उनकी जरूरतें बदलती रहीं, जिसका उनके मांग पर भी असर हुआ.

इस बार भी कुछ वैसा ही हुआ है. संयुक्त किसान मोर्चा के बैनर तले देश भर में तीन नए कृषि ​कानूनों के विरोध में बैठे किसानों का मानना है कि उन्हें जो चाहिए था, वो इस नए क़ानूनों में नहीं है, बल्कि उनके मुताबिक ये कानून उनके हितों की अवहेलना करता दिखता है.

क्या कहते हैं विशेषज्ञ

हालांकि केंद्र की बीजेपी सरकार शुरू से यही कहती रही है कि असल में नया क़ानून किसानों के हित की ही बात करता है क्योंकि अब किसान अपनी फ़सलें निजी कम्पनियों को बेच सकेंगे और ज़्यादा पैसे कमा सकेंगे. लेकिन किसान संगठनों ने इस ऑफ़र को इस बिनाह पर ख़ारिज किया है कि ये तो कभी हमारी माँग रही ही नहीं थी.

बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, टाटा इंस्टीट्यूट आफ़ सोशल साइंसेंस, मुंबई में कृषि-अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर आर. रामकुमार के मुताबिक़, “किसान की माँग यही रही है कि उसे ज़्यादा मंडियाँ चाहिए, लेकिन नए क़ानून के बाद ये सिलसिला ही ख़त्म हो सकता है.”

उन्होंने बताया, “ये भी माँग रही है कि ज़्यादा क्रॉप्स के लिए और ज़्यादा राज्यों में प्रोक्यूरमेंट सेंटर यानि वसूली केंद्र खोले जाएं, जिससे अधिकतम किसानों को इसका लाभ मिले. लेकिन सरकार ने प्रोक्यूरमेंट सेंटर ज़्यादातर पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में ही खोल कर रखा है. इसकी वजह से वहाँ ज़्यादा प्रोक्यूरमेंट होता है और दूसरे प्रदेशों में कम. माँग ये भी रही है कि कॉंन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग कई जगह पर हो रही है लेकिन उसका कोई रेगुलेशन यानि विनियमन नहीं है, उसका रेगुलेशन लाइए”.

ऐतिहासिक तौर से भारत एक कृषि-निर्भर अर्थव्यवस्था रही है तो ज़ाहिर है इसमें बदलाव भी आते रहे हैं. लेकिन ज़्यादातर बदलाव धीमी गति के रहे हैं जिनके केंद्र बिंदु में किसानों के हितों को रखने के दावों पर राजनीति भी हुई है. संसद में इस नए क़ानून को लेकर खींचतान बनी रही और विपक्ष ने सरकार पर किसानों की राय न लेने का आरोप लगाया है.

जानें क्या हैं वे तीन कृषि कानून

  1. कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) विधेयक 2020

किसानों की शंका:

न्यूनतम मूल्य समर्थन (एमएसपी) प्रणाली समाप्त हो जाएगी.किसान यदि मंडियों के बाहर उपज बेचेंगे तो मंडियां खत्म हो जाएंगी. ई-नाम जैसे सरकारी ई ट्रेडिंग पोर्टल का क्या होगा?

सरकार का दावाः

एमएसपी पहले की तरह जारी रहेगी. एमएसपी पर किसान अपनी से उपज बेच सकेंगे. इस दिशा में हाल ही में सरकार ने रबी की एमएसपी भी घोषित कर दी है. मंडियां खत्म नहीं होंगी, बल्कि वहां भी पहले की तरह ही कारोबार होता रहेगा. इस व्यवस्था में किसानों को मंडी के साथ ही अन्य स्थानों पर अपनी फसल बेचने का विकल्प मिलेगा. मंडियों में ई-नाम ट्रेडिंग जारी रहेगी. इलेक्ट्रानिक प्लेटफॉर्मों पर एग्री प्रोडक्ट्स का कारोबार बढ़ेगा. पारदर्शिता के साथ समय की बचत होगी।

  1. कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक 2020

किसानों की शंकाः

कॉन्ट्रेक्ट करने में किसानों का पक्ष कमजोर होगा, वे कीमत निर्धारित नहीं कर पाएंगे. छोटे किसान कैसे कांट्रेक्ट फार्मिंग करेंगे? प्रायोजक उनसे दूरी बना सकते हैं. विवाद की स्थिति में बड़ी कंपनियों को लाभ होगा.

सरकार का दावाः

कॉन्ट्रेक्ट करना है या नहीं, इसमें किसान को पूरी आजादी रहेगी. वह अपनी इच्छानुसार दाम तय कर फसल बेचेगा. अधिक से अधिक 3 दिनों में पेमेंट मिलेगा. देश में 10 हजार फार्मर्स प्रोड्यूसर ग्रुप्स (एफपीओ) बन रहे हैं. ये एफपीओ छोटे किसानों को जोड़कर फसल को बाजार में उचित लाभ दिलाने की दिशा में काम करेंगे. कॉन्ट्रेक्ट के बाद किसान को व्यापारियों के चक्कर नहीं काटने पड़ेंगे. खरीदार उपभोक्ता उसके खेत से ही उपज लेकर जा सकेगा. विवाद की स्थिति में कोर्ट-कचहरी जाने की जरूरत नहीं होगी. स्थानीय स्तर पर ही विवाद निपटाया जाएगा.

  1. आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक-2020

किसानों की शंकाः

बड़ी कंपनियां आवश्यक वस्तुओं का स्टोरेज करेगी. उनका दखल बढ़ेगा. इससे कालाबाजारी बढ़ सकती है.

सरकार का दावाः

निजी निवेशकों को उनके कारोबार के ऑपरेशन में बहुत ज्यादा नियमों की वजह से दखल महसूस नहीं होगा. इससे कृषि क्षेत्र में निजी निवेश बढ़ेगा. कोल्ड स्टोरेज एवं फूड प्रोसेसिंग के क्षेत्र में निजी निवेश बढ़ने से किसानों को बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर मिलेगा. किसान की फसल खराब होने की आंशका दूर होगी. वह आलू-प्याज जैसी फसलें निश्चिंत होकर उगा सकेगा. एक सीमा से ज्यादा कीमतें बढ़ने पर सरकार के पास उस पर काबू करने की शक्तियां तो रहेंगी ही. इससे इंस्पेक्टर राज खत्म होगा और भ्रष्टाचार भी.

नए कृषि कानूनों से किसको फायदा, किसको नुकसान?

सेंटर फ़ॉर पॉलिसी रिसर्च की फ़ेलो और अशोका यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाली मेखला कृष्णमूर्ति का मानना है कि इस आंदोलन के बाद सबकी निगाहें सरकार पर ही रहेंगी.

उन्होंने बताया, “ये जो नया क़ानून है उनका कहना है कि हम ट्रेड को फ़्री कर देंगे कि आपको मंडी में लाइसेंस नहीं लेना पड़ेगा, आप कहीं भी ट्रेड कर सकते हैं. भारत में 22 राज्य ऐसे हैं जहाँ ये पहले से ही लागू है कि आप मंडी के बाहर लाइसेंस लेकर ख़रीद सकते हैं. किसान का शक़ है कि आप मंडी को तोड़ रहे हैं और दूसरी तरफ़ वो किसान जिसके पास मंडी कभी आई ही नहीं है, वो सोच रहे हैं मंडी कब आएगी”.

सरकार और किसानों के बीच सुलह का ‘फ़ॉर्मूला’

सरकार का तर्क है कि नये क़ानून से किसानों को ज़्यादा विकल्प मिलेंगे और क़ीमत को लेकर भी अच्छी प्रतिस्पर्धा होगी. इसके साथ ही कृषि बाज़ार, प्रोसेसिंग और आधारभूत संरचना में निजी निवेश को बढ़ावा मिलेगा. जबकि किसानों को लगता है कि नए क़ानून से उनकी मौजूदा सुरक्षा भी छिन जाएगी.

भारत सरकार की नेशनल कमीशन ऑफ़ फ़ारमर्स के पूर्व सदस्य वाईएस नंदा को लगता है कि कृषि के क्षेत्र में, “प्रयोग ज़्यादा और असल काम कम हुए हैं”.

उन्होंने कहा, “80’s और 90’s में ग्रोथ अच्छी थी. छठे फ़ाइव-इयर प्लान में कृषि की ग्रोथ 5.7% थी और जीडीपी ग्रोथ 5.3% थी. ऐसा दोबारा नहीं हुआ कभी. और 90’s के बाद तो ग्रोथ कम हो गई है. रूरल इंफ़्रास्ट्रक्चर में इन्वेस्टमेंट कम हो गई है जिसकी वजह से कृषि की ग्रोथ कम हो गई है”.

हरित क्रांति के जनक के अहम सुझाव

यानि यह कहा जा सकता है कि 1960 के दशक में शुरू हुई हरित क्रांति का फल अगर अगले दो दशकों तक दिखा तो 90 के दशक में कृषि सेक्टर की रफ़्तार धीमी हुई. शायद इसीलिए हरित क्रांति के जनक कहे जाने वाले प्रोफ़ेसर स्वामीनाथन की अगुआई में बनी एक कमिटी ने साल 2006 में कुछ अहम सुझाव दिए:

1.फ़सल उत्पादन क़ीमत से 50% ज़्यादा दाम किसानों को मिले.
2.किसानों को कम दामों में क्वालिटी बीज मुहैया कराए जाएं.
3.गांवों में विलेज नॉलेज सेंटर या ज्ञान चौपाल बनाया जाएं.
4.महिला किसानों को किसान क्रेडिट कार्ड मिले.
5.किसानों को प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति में मदद मिले.
6.सरप्लस और इस्तेमाल नहीं हो रही ज़मीन के टुकड़ों का वितरण किया जाए.
7.खेतिहर जमीन और वनभूमि को गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए कॉरपोरेट को न दिया जाए.
8.फसल बीमा की सुविधा पूरे देश में हर फसल के लिए मिले.
खेती के लिए कर्ज की व्यवस्था हर गरीब और जरूरतमंद तक पहुंचे.
9.सरकारी मदद से किसानों को मिलने वाले कर्ज की ब्याज दर कम करके 4% की जाए.

सरकार और किसानों के बीच तनाव का कारण

मौजूदा व्यवस्था में किसानों का कहना है कि इनमें से बहुत अभी लागू नहीं हुई हैं और उन्हें ज़्यादा मंडियों और कॉंट्रैक्ट फ़ार्मिंग में सुरक्षा देने वाले क़ानून चाहिए.

जबकि सरकार कहती है कि ख़राब मार्केटिंग के चलते किसान को अच्छा दाम नहीं मिल रहा है, इसलिए निजी कम्पनियों और स्टोरेज वेयरहाउसेज़ को लाने से वैल्यू चेन में किसानों का क़द बढ़ेगा.

बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सेंटर फोर पॉलिसी रिसर्च की ​सीनियर फेलो और अशोका यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान और एंथ्रोपोलॉजी की एसोसिएट प्रोफेसर मेखला कृष्णमूर्ति का मानना है कि “पिछले साल जब से यह किसान क़ानून लाया गया है, पहले ऑर्डिनेन्स के रूप में और अब ये ऐक्ट बने हैं, तभी से यह सुनने को मिल रहा है कि भारतीय किसान अब आज़ाद हो गए हैं, अब वो बाज़ार और मंडी, हर जगह स्वतंत्र हैं”.

सरकार के सामने कृषि कानून रद्द करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं

उन्होंने आगे बताया, “जब मैं 12 साल पहले मध्य प्रदेश की मंडियों में शोध कर रही थी, जब भी मैं मंडी जाती थी, किसान समझाते थे कि देखिए पूरी अर्थव्यवस्था में किसान एक ऐसे उत्पादक हैं जो अपने माल के भाव कभी तय नहीं कर पाता, वो दूसरों का तय किया हुआ भाव स्वीकार करता है”.

इस बीच जहाँ कम से कम उत्तर भारत के किसान सरकारी मंडियों और बीच में मौजूद आढ़तियों के बने रहने के पक्ष में हैं. नया क़ानून इस सिस्टम के आगे की बात कर रहा है.

क्या हो सकता है आगे का रास्ता?

भारतीय कृषि क्षेत्र में बढ़ती हुई चुनौती डिमांड से ज़्यादा सप्लाई की है. किसानों को अपने उत्पाद के लिए नए बाज़ार चाहिए. नए क़ानून में मंडियों का प्रभाव कम करने के पीछे सरकार की शायद यही मंशा है. लेकिन जानकारों का मानना है कि इस प्रक्रिया में एक चीज़ का अभाव रहा है.

प्रोफ़ेसर आर रामकुमार कहते हैं कि, “किसान संगठन और सरकार के बीच अगर अच्छी तरह से चर्चा हो, तो एक दूसरे की दिक्कतें और एक दूसरे के रवैए को समझने की संभावना रहती है”.

कृषि क़ानून पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश किसान आन्दोलन समाप्त करने की ‘बड़ी क़वायद’

उनके अनुसार, “सरकार को ये समझना पड़ेगा कि उसकी नीतियों की वजह से कृषि का संकट बढ़ रहा है. सरकार की जो सब्सिडी पॉलिसी है, जो फ़र्टिलायज़र पॉलिसी है, इन सब नीतियों की वजह से किसान की खेती की लागत बड़े पैमाने पर बढ़ रही है और इस पर सरकार की नज़र नहीं जा रही है”.

किसान संगठनों का कहना है कि नए क़ानूनों के बाद उनकी उपज के कम दाम मिलेंगे जिससे खेती की लागत भी नहीं निकलेगी. उन्हें शक़ है कि फ़िलहाल सरकार की ओर से मिलने वाली न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की गारंटी भी ख़त्म हो जायेगी. लेकिन सरकार का दावा है कि नए क़ानून से किसानों को क़ीमत के ज़्यादा विकल्प मिलेंगे और निजी निवेश को बढ़ावा मिलेगा.

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