खेती किसानी का अर्थशास्त्र और अर्थशास्त्र की खेती किसानी

भारत युगों से कृषि प्रधान देश रहा है ,और आज भी है। देश की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था कभी भी कुछ भी रही हो ,कृषि का अर्थशास्त्र उसे प्रभावित करता रहा है और अर्थशास्त्र की दिलचस्पी भी खेती किसानी की और बढ़ती रही है। गुलाम भारत की अर्थव्यवस्था भारतीयों को दीन हीन बनाये रखने की ही रही है। यह अर्थव्यवस्था पूंजीवाद और सामंतवाद के मिश्रित अर्थव्यवस्था का कुचक्र था जो एक निम्नस्तरीय असंतुलित अर्थव्यवस्था का कुचक्र था जिसने इसदेश को जर्जर बना दिया। परंपरागत कृषि और कृषि आश्रित व्यवस्था को नष्ट भ्रष्ट कर दिया था.

=खेती किसानी
खेती किसानी

आजाद भारत में जो नियोजित अर्थव्यवस्था प्रारम्भ की गई वह मिश्रित अर्थव्यवस्था थी –पूंजीवाद और तथाकथित समाजवाद की जो निर्धनता ,बेरोजगारी और आर्थिक विसंगतियों को न तो दूर ही कर सकी और न ही कृषिव्यवस्था का पुनरुद्धार ही कर सकी।
1985 से ही देश के राजनैतिक नेतृत्व और अर्थशास्त्री विचारकों ने मुक्त अर्थव्यवस्था और निजी क्षेत्र को अधिक सशक्त और व्यापक बनाने की नीति को बढ़ावा दिया। हम निरंतर इसी पथ पर बढे जा रहे है…

=अर्थशास्त्र
अर्थशास्त्र

भारत एक ऐसा देश है जिसदेश में राष्ट्र की घोषित नीति से हट कर भी एक स्वाभाविक अर्थशास्त्र की अंतर्धारा प्रवाहमान रही है कृषि उस अंतर्धारा की एक प्रमुख धारा रही है। भारत व्यापकता और बहुलता में बसता है –गाँवो में ,कस्बों में ,छोटे शहरों में ,महानगरों में। जिसके अपने विशिष्ट परिवेश हैं ,अपनी अघोषित अर्थशास्त्र की अंतर्धारा है। गांव के कृषि के अर्थशास्त्र की अपनी एक अलग विविधता है। कस्बों के कारीगरों का कुटीर उद्योग कृषि अर्थशास्त्र में समाहित एक अलग पहिचान रखता है। छोटे शहरों के बाजारों का अर्थशास्त्र फिर महानगरों के उद्योगों का अर्थशास्त्र। कारपोरेट जगत और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अर्थशास्त्र। सबकी अलग अलग नीति है अलग अलग नियत है। कोई सहयोग ,सहकार ,सदभाव आश्रित जीवननिर्वाह पर आश्रित है तो कोई शोषण और एकाधिकार पर मत्स्य न्याय का अनुकरण करते हुए। देश में सब एक साथ चले चल रहे हैं।

=कृषि समाज
कृषि समाज

आजादी के तत्काल बाद इन सब अर्थशास्त्रों को समेट कर कृषि के लिए एकऐसे जनकल्याणकारी अर्थनीति बनाये जाने की आवश्यकता थी जो आधुनिकता के परिप्रेक्ष्य में कृषि के परंपरागत स्वरूप को जीवित जागृत करते हुए कृषि समाज में खुशहाली लाता। हरित क्रांति के बाद तमाम क्रन्तिकारी परिवर्तनों के प्रचार प्रसार के बाद भी पिछले बीस वर्षों में डेढ़लाख किसानो को आत्महत्या करनी पड़ी ,सरकार को लाखों करोड़रुपये की ऋण माफ़ी विगत बीस वर्षों में करनी पड़ी। सीमांत किसानो का पलायन निरंतर बढ़ता जा रहा है।

विचार और राजनीति की खेती किसानी(Opens in a new browser tab)

ग्लोबल अर्थशास्त्र कल्याण


आज का ग्लोबल अर्थशास्त्र कल्याण अकल्याण के दायरे से बहुत दूर निकलकर केवल अर्थ के दायरे में ही सिमित हो चूका है। भारत की खेती किसानी दुनिया के अन्य देशों से बिलकुल भिन्न है। भारत के लिए कृषि व्यापार वाणिज्य नहीं जीवन जीने की एक संस्कृति है। इसदेश में कृषि का विकास परम्पराओं से हरयुग के घाघ ,भड्डरी जैसे कृषिपंडितों के सूक्ष्म निरीक्षण ,परीक्षण से संभव हुआ है। आजादी के बाद यद्यपि तमाम कृषि विश्वविद्यालय खुले ,शोधसंस्थान स्थापित हुए जिनका प्रयास रहा की कृषि को उद्योग बना दिया जाए।


गेहूं संस्कृति का पदार्पण

कभी विचार करे हमारी खेती किसानी में ह्वीट कल्चर –गेहूं संस्कृति का पदार्पण कैसे हो गया –जिसके लिए देशी मसला कहा जाता है –चारपानी खेत में चार पानी पेट में। गेहूं संस्कृति ने पुरे रबी की फसल को गुलाम बना लिया। कृषि विकास की गति में जैव विविधता समाप्त होती गई ,शंकर बीजों के बाद जीन रूपांतरित –जीएम फसले लहलहाने लगी। खेती किसानी के अर्थशास्त्र निर्माण में कृषि वैज्ञानिकों ने कतई गौर नहीं किया की इस देश की धरती इतनी सक्षम है की हम अपनी ही प्रजातियों से मनमानी फसले उगा सकते थे। यह तो समाजसेवी संस्थाओं और किसानो ने जी यम फ़सलों के विरोध में जन जागृति की।


आज के सन्दर्भ में चिंतन का मुख्य बिंदु है की कैसे खेती किसानी के अर्थशास्त्र को कल्याणकारी बनाया जाये ,किसान न तो ऋण अथवा उपज के आभाव में आत्महत्या करे ,न गांव से पलायन करे और कृषि लोक हितकारी और पर्यावरण सम्मत हो। इसके साथ ही खेतों को अर्थशास्त्र की खेती किसानी से बचाया जाए। विगत पचास वर्षों से कार्पोट जगत इस प्रयास में हैकी कृषि को व्यापर बना कर उसे व्यापारिक हाथों में ले लिया जाए। छोटे मोटे प्रयोग निरंतर चलते रहे हैं।


यह कटु सत्य है की पूंजीवादी ,समाजवादी ,और साम्यवादी आर्थिक विचारधाराओं में जो अर्थतंत्र की संरचना है उससे खेती किसानी के अर्थशास्त्र में लोक को संप्रभु नहीं बनाया जा सकता जो केवल स्वराज्य के अर्थशास्त्र में ही संभव है। स्वराज्य की अवधारणा में स्वावलम्बी और जैविक खेती होगी, न कि ठेका खेती । बीज खाद पानी स्थानीय स्तर पर संरक्षित हों…

Chandravijay Chaturvedi
डा चन्द्रविजय चतुर्वेदी ,प्रयागराज।

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