शैव उपासना में सावन और काँवर यात्रा
सार- सावन का महीना रिमझिम फुहारों व हरियाली के लिए जाना जाता रहा है।प्राचीन लोक परम्परा मे यह झूला,कजरी का महीना होता था,महिलायें,कन्यायें हरे वस्त्र,चूड़ियाँ,श्रृगार करती रही है।भारतीय पर्व-त्योहार प्रकृति और कृषि पर केन्द्रित रहे है।बारह महीने प्रत्येक ऋतु केअनुसार त्यौहारो का संयोजन हुआ है। थे।सावन की काली घटायें महाकालशिव एवं शक्ति महाकाली के मोहक आनन्दमय सर्जनात्मक स्वरुप को धरतीपर उतारने का मंत्र है कजरी गीत,जो आज उदण्ड काँवड़ यात्रा में खो गयी है।
सावन साल का पाँचवाँ महीना है,जो रिमझिम फुहारों व हरियाली के लिए जाना जाता है।जिसके शुक्ल पक्ष की तृतीया को हरियाली तीज के रूप में मनाया जाता है।प्राचीन लोक परम्परा मे यह झूला,कजरी का महीना होता था,महिलायें,कन्यायें हरे वस्त्र,चूड़ियाँ,श्रृंगार करती रही है।प्रकृति के संग हो जाने की परम्परायें थी,फागुन की तरह सावन भी उन्मुक्त होने का मौसम था,मक्के,ककड़ी,खीरे,मछली आदि का महीना था,परन्तु लगभग 30-35 सालों मे यह परम्परा अचानक लुप्त सी हो गयी, हरित प्रकृति के विरुद्ध गैरिक रंग हो गया,भोजन मे वर्जनाये आ गयी ।बिहार के कुछ गाँवों की लोकपरम्परा काँवड़ यात्रा ने पूरे उत्तर भारत की संस्कृति को बदल दिया,जिसके बहाने कावड़ियों का उत्पात,उधम की खबरे,मार्ग दुर्घटनाओं की खबरे आम हो गयी। इस बदलाव में मीडिया,नव धर्माचार्यो,राजनैतिक दलों अहम भूमिका है।इस सांस्कृतिक संक्रमण काल में सावन की काँवड़ यात्रा और सावन मास की परम्परा पर गंभीर तथ्यात्मक चर्चा आवश्यक लगती है।
जहाँ तक शिव उपासना का प्रश्न है तो भारत के प्राचीन धर्मो के इतिहास के अनुसार शैव उपासना एक स्वतंत्र धर्म के रूप में मान्य रहा है।इसके अनुसार शिव ही सृष्टि-पालन और संहार करते है।इसकी प्राचीनता प्रगैतिहासिककाल मानी जाती है।यहाँ इनकी मूर्ति के बजाय लिंग पूजा का महत्व है।नवपाषाण युगीन जातियाँ भूमि की उर्वरता के लिए लिंग पूजा करती थी।इतिहासकारों के अनुसार शिव उपासना सैंधव-द्रविण संस्कृति की परम्परा है,जो कालान्तर में वैदिक या आर्य धर्म द्वारा आत्मसात कर लिया गया। मध्य भारत के गोंड जनजातिय संस्कृति में लिंगो की उपासना ही प्रचलित है। वेदो के रुद्र पुराणों में आकर शिव में समाहित हो गये।यहाँ शिव सृष्टि-पालन के बजाय केवल संहार के देवता हो जाते है। पूर्व वैदिक देवता होने के कारणशिव को आनादि,देवाधिदेव महादेव कहा जाने लगता है।वेदो में इनका विनाशक,भयकारी रूप ही अधिक प्रचलित है,इन्हे ज्वरादि महामारियों का स्वामी बताया गया है,क्रुद्ध होने पर ये महामारियाँ फैला देते है, इसकी उपासना से ही उससे बचना संभव है,कही-कही औषधियों के देवता के रुप मे भी दिखते है। सिद्ध वैद्य परम्परा में पारद को शिव का वीर्य कहा गया है जो पार्वती के रज गंधक से साथ संयुक्त होकर सर्वरोग विनाशक अमृतमय औषधि हो जाता है।
कालान्तर में पौराणिक युग आया जिसमें त्रिदेव की परिकल्पना विकसित हुई, जिसमें वैष्णव,ब्राह्मिक सम्प्रदायों में शिव केवल संहार का देवता माने जाने लगे,इसके विपरीत शैव,शाक्तादि तंत्र सम्प्रदायों शिव सृजन,पालन,संहार के साथ प्रेम के देवता बने रहे।इस तरहशाक्त,साँख्य,गाणपत्य,सौर्य,वैदिक-अवैदिक सभी धर्मो में शिव महत्वपूर्णबने रहे । आगे चल कर शैव धर्म अघोर ,कौल, कपालिक, पाशुपत, योग,कालामुख, वीरशैव, लिंगायत, कश्मीरीशैव, सम्प्रदायों में विभाजित हुआ।भयानक तांत्रिक साधनाओं का दौर भी आया। इसी काल विष,रसऔषधियों का विकास भी हुआ।भैरव के अवतार के रुप में माँस,मछली,मद्यादि पंचमकार से शिव का उपासना दौर भी चला जो आज भी कहीं न कहीं तांत्रिक परम्पराओं जीवित है।इतना कुछ होने के बाद भी काँवर यात्रा का उल्लेख कहीं आया है।
पुराणों में एक उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार समुद्रमंथन में विषपान के पश्चात शिव की उग्रता को शान्त करने के लिए देवताओं ने नदियों केजल,गोदुग्ध व शान्तिदायक औषधियों से अभिषेक किया था। इसी परम्परा में आज अभिषेक करने परम्परा विकसित हुई है।कुछ प्रवचन करने वाले व्यावसायिक विद्वान महात्माओं ने काँवड़ को बलात् सिद्ध करने के लिए श्रवण कुमार से जोड़ते है,जबकि श्रवण कुमार अपने माता-पिता को तीर्थ यात्रा कराने के लिए काँवड़ उठायी थी,काँवड़ पर जल उठा कर अभिषेककरने का उल्लेख कहीं नही मिलता है।1980 के दशक तक स्थानीय रूप सेलोक परम्पराओं के रूप में सावन में जलाभिषेक की परम्परा देखने को मिलती है।इसमें बिहार(अब झारखण्ड)में बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का अभिषेक विशेष रूप से प्रचलित रहा है।1978 में धर्मयुग में एक रिपोर्ट छपी थी जिसका शीर्षक था- “सावन में गेरुआ हो जाता है बिहार”,जिसमें कष्ट पूर्ण तप के मनोभाव से अतिरेकता के साथ काँवड़ पर जल ढोने,पैदल चलने,लेटकर मंदिर तक पहुँचने की परम्पराये विकसित हुई।आवागमन व संचार सुविधाओं के विकास के दौर में इसी परम्परा का फैलाव पूरे उत्तर भारत में हो चुका है।बैद्यनाथ धाम के दूरी और भीड़ से बचने के लिए लोगो ने अन्य नजदीकी शिवालयों भी गेरुआ पहन कर,काँवड़ के साथ अभिषेकशुरु कर दिया।हरिद्वार,वाराणसी भी सावन में काँवर यात्रा का गेरुआ भीड़ से पटने लगा है,जबकि इसके पहले सामान्य वस्त्रों में शिव मन्दिरों में पूजन-अभिषेक की परम्परा थी।
इसमें सबसे खास बात यह हुई इस परम्परा को बाजारबाद ने अपहृत कर अरबों के कारोबार में तब्दील कर दिया है तथा शिव के उन्मुक्त स्वभाव को आधार बना कर युवाओं को आकर्षित किया है। शिव के प्रसाद के रूप में गाँजा,भाँग, मदिरा के सेवन के साथ यात्रायें सामान्य होने लगी है।आधुनिक ध्वनिविस्तारक डीजे और बीयर का संयोग तो सोने में सुहागा हो गया।जिससे आगम-निगम वर्णित शिव उपासना की पूरी परिभाषा ही बदल गयी है।इसमें बेरोजगार युवाओं की कुंठा कार-बसो पर हमले के रूप में निकलनी,स्वाभाविक मनोविकार के अतिरिक्त कुछ नही है।
आइये अब सावन की परम्परा की बात करते है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि भारतीय पर्व-त्योहार प्रकृति और कृषि पर केन्द्रित रहे है।बारह महीने प्रत्येक ऋतु के अनुसार त्यौहारो का संयोजन हुआ है।प्रत्येक ऋतु में जैसे-जैसे प्रकृति अपना रंग बदलती है वैसे-वैसे त्यौहारो,महीनों के रंग भी बदलते है।इसे लोक संस्कृति या लोकगीतो में बखूबी देखा जा सकता है।फागुन मे गुलाल की गुलाबी रंगत है तो चैत्र में नवरात्रि आते ही लाल हो जाता है।जेठ,बैशाख की गरमी से शान्ति का प्रतीक पीला रंग हो जाता है।अषाढ आते ही पहली बरसात में धरती धानी हो जाती है।सावन मे प्रकृति हरियाली से भर जाती है।ये बाते भोजपुरी में गाये जाने वाले लोकगीत बारहमासा में स्पष्टरूप से दिखती है।इसे स्पष्ट करने के लिए हम फिर चलते है 1980 के दशक में,जबतक सावन प्रकृति के हरियाली का उत्सवमास था,हरी-हरी साड़ियो-लहँगो-चूड़ियो,झूला और कजरी के धुन से गाँव- नगर गुलजार हो जाया करते थे।सावन की काली घटायें महाकाल शिव एवं शक्ति महाकाली के मोहक आनन्दमय सर्जनात्मक स्वरुप को धरती पर उतारने का मंत्र है कजरी गीत,जो आज उदण्ड काँवड़ यात्रा में खो गयी है।
महाकाल शिव के परम् प्रत्यक्ष विराट स्वरूप आकाश के साथ पराप्रकृतिकाली घटाओं के रुप में महारास कर धरती की गोद को हरितिमा के सृजन से भर देती है।इस प्राकृतिक घटना को शास्त्र देखे न देखे,परन्तु लोक देख लेता है, महसूस कर उन्मुक्त भावविह्वल हो जाया करता है। इसलिए सावन में शिव-शक्ति की उपासना की परम्परा थी।धरती का कण-कण शिव-शक्तिमय हो जाया करता था,पर बाजार और राजनैतिक के छद्म धार्मिकता के गठजोड़ ने प्रकृति के परम घटना को नष्ट कर,अग्नि ज्वाला का प्रतीक गैरिक रंग की कृत्रिमता से भर दिया.परिणाम वो घटायें विलुप्त हो गयी है,सूखे,बाढ़ के विप्लव से धरती त्राहिमाम करने लगी है। लगता है शक्ति के अभाव में शिव उद्विग्न हो गये है जिसका परिणाम दिनो-दिन कम होतीअनियमित-असंतुलित बरसात के रूप में दिख रहा है। महालास(प्रणयनृत्य)महाताण्डव में बदलने लगा है।
(*लेखक कवि,स्तम्भकार,स्वतंत्र विचारक है)