क्या बदल जाएगा अब बापू का आश्रम?

बदलाव प्रकृति का नियम है लेकिन क्या सभी बदलाव इसी प्रक्रिया का हिस्सा होते है या कुछ जान बूझकर किये ही जाते है ऐसा ही कुछ शायद घटित हो रहा है बापू के आश्रम में।

मोहन जब महात्मा बनकर लौटे.

दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह में सफलता मिलने के बाद महात्मा गांधी 1915 में भारत वापिस आते है लेकिन अब तक मोहनदास केवल एक बैरिष्टर नही रह गए थे. माना जाता है कि दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह के बाद ही मोहन अब महात्मा हो गए थे. सत्याग्रह की ताकत का एहसास स्वयं बापू को और पूरी दुनिया हो चुका था. बापू को अपना ब्रह्मास्त्र मिल चुका था लेकिन उससे कहीं ज्यादा उस अस्त्र पर विश्वास जोकि बापू को एक लंबे संघर्ष के बाद मिला था. भारत वापिस आने पर मुंबई बन्दरगाह पर गांधीजी का स्वागत मानो ऐसे हुआ कि कोई योद्धा युद्ध में विजयश्री लेकर वापिस आया हो लेकिन ये विजय सत्याग्रह के हथियार से प्राप्त हुई थी. बंदरगाह पर महात्माजी के नाम के नारे लगते है लेकिन एक चिर शांति लिए सिर पर पगड़ी बांधे बापू अपनी पत्नी के साथ चेहरे पर कृतज्ञता का भाव लिए उतरे और सभी का धन्यवाद देते हुए लोगों को सम्बोधित किया. मालूम होता है कि ये भाव इसलिए दिखा क्योंकि जो मोहनदास दक्षिण अफ्रीका केवल एक मुकदमे की वजह से गए थे और जब वापिस आते है तो महात्मा कहलाने लगते है.

1917 से 1930 तक गांधी जी का रहा निवास

बापू अपनी आत्मकथा में लिखते है कि भारत वापिस आने के बाद वो मुंबई में ही गोखले जी से मिले जिन्होंने उन्हे पूरा देश घूमने और एक वर्ष तक किसी भी सार्वजनिक मंच पर बोलने की मनाही की सलाह दी और फिर गांधी पूरे देश को घूमना शुरू करते है. 25 मई 1915 को दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद भारत में अपना पहला आश्रम अहमदाबाद के कोचरव क्षेत्र में बनाते है लेकिन करीब दो वर्ष बाद ही आश्रम को साबरमती नदी के किनारे बंजर भूमि पर स्थानांतरित कर दिया जाता है. इस स्थान के चयन को गांधीजी ने इसलिए भी चुना क्योंकि एक ओर श्मसान और दूसरी ओर जेल थी और फिर भारत की स्वतंत्रता के लिए उनके संघर्ष को इन दोनों ही जगहों से भली भांति परिचित रहने की आवश्यकता मालूम हुई ही होगी. साबरमती आश्रम का (ह्रदयकुंज) बापू का निवास बना. साथ ही खादी, गौपालन, खेती वाला जीवन जीना बापू ने शुरू किया लेकिन सवाल है क्या इतने से ही केवल आश्रम बन गया? साबरमती आश्रम जो कि आज भी जीवंत उदाहरण है बापू के सत्य और अहिंसा का देखते ही देखते भारतीय स्वतंत्रता की लड़ाई का केंद्र बन गया. चंपारण सत्याग्रह की बात हो, असहयोग आंदोलन की बात हो या दांडी यात्रा की इन सभी का केंद्र यह आश्रम रहा. 12 मार्च 1930 के बाद से गांधी फिर कभी अपने इस आश्रम में वापिस नही आ सके क्योंकि उन्होंने भारत की स्वतंत्रता तक 12 मार्च 1930 दांडी यात्रा के शुरुआत में ही वापिस ना आने की शपथ ली और फिर एक सत्याग्रही का जीवन ऐसा ही होता है. वो अपने कथन पर अडिग और पूरे विश्वास से खड़ा रहता है. ऐसा ही उदाहरण महात्मा जी ने उस समय दिया. जब तक बापू यहां रहे वो कई प्रकार के अपने सत्य के प्रयोगों के साथ आश्रम को आदर्श रूप में संचालित ही नही किये बल्कि कई आंदोलनो और अंग्रेजी शासन को यहां से समय-समय पर पत्रों और सत्याग्रह से जवाब भी देते रहे. आज यही आश्रम पूरे विश्व के सत्याग्रहियों का पवित्र स्थान बना हुआ है.

क्या बदल रहा है अब आश्रम?

जो आश्रम 1917 से 1930 तक भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्र रहा जहां से गांधी ने पूरे विश्व को शांति का संदेश दिया, जहां से बापू ने सत्य और अंहिसा के सिद्धांत को जीवंत करके दिखलाया. क्या वो अब बदला जा रहा है और क्या यह बदलाव बापू के आश्रम के विचारों को कुछ अलग तरह से दिखलाने की कोशिश है? या फिर ये बदलाव प्राक्रतिक बदलाव का ही हिस्सा है जो कि जरूरी कारणों से किया जा रहा है. ऐसे कई सवाल है जिसका जवाब फिलहाल साफ तौर पर नजर नही आता है। सरकार ने हाल ही में महात्मा गांधी साबरमती आश्रम मेमोरियल ट्रस्ट के नाम से वेबसाइट बनाई है जिसमें वीडियो के माध्यम से आश्रम से जुड़ी पुनर्निर्माण की जानकारी दी है जोकि प्राथमिक रूप से सन्तोषजनक नही मालूम होती है. सरकार वीडियो में कई दावे कर रही है लेकिन वास्तविकता में कैसे क्या होगा? क्या बदला जा रहा है? कैसे बदला जाएगा? यह बात अभी स्पष्ट नही है. आश्रम के निर्माण में जब इस तरह की बात सामने आती है तो सवाल उठता है कि चल क्या रहा है आश्रम में?

आश्रम को 1200 करोड़ की आवश्यकता क्यों?

बात कुछ ऐसी है के 2020 में कुछ इस तरह की ख़बरें चर्चाओं में आई कि गुजरात सरकार साबरमती आश्रम के पुनर्निर्माण में 1200 करोड़ खर्च करना चाहती है और इस तरह से खबर अंदर ही अंदर सभी ट्रस्टियों के बीच में पहुँची जिसपर कई तरह के सवाल उठने लगे. आखिर क्या आवश्यकता आ गई कि सरकार गांधी के आश्रम में ट्रस्टियों से सलाह लिए बिना ऐसा क्यों करना चाहती है, क्या सरकार की कोई और मंसा है? आश्रम के पुनर्निर्माण से सरकार का क्या मतलब है? यह सवाल तब और ज्यादा मायने रखने लगते है जब हम देखते है कि महात्मा गांधी जी स्वयं किसी प्रकार की सरकारी सहायता लेने से खुद को दूर रखते थे और फिर आश्रम के ट्रस्टियों ने भी इस तरह का कोई ठोस प्रस्ताव सरकार को कभी नहीं दिया था. खैर बात आई और गई-सी हो गई लेकिन 2021 के 9 अक्टूबर को अहमदाबाद (THE HINDU) में ”महेश लंगा” जी की रिपोर्ट आई जिसमें कई चीजें साफ तौर पर समझ में आने लगी. इस रिपोर्ट में कहा गया कि गुजरात सरकार 1200 करोड़ खर्च करके साबरमती आश्रम का पुनर्निर्माण करवाना चाहती है जो कि सीधे तौर पर PMO यानी प्रधानमंत्री कार्यालय की निगरानी में होगा. रिपोर्ट में दावा किया गया कि इस परियोजना की निगरानी खुद प्रधानमंत्री जी करेंगे. गुजरात सरकार साबरमती आश्रम का पुनर्निर्माण करके इसे 5 एकड़ से बढ़ाकर 55 एकड़ तक करने की योजना के साथ 1200 करोड़ खर्च कर रही है. क्योंकि यह एक महत्वाकांक्षी योजना है. इसलिए पुनर्निर्माण में 1917 में महात्मा जी के समय के भवनों का पुनःनिर्माण होना है. वहां पर रहने वाले परिवारों को स्थानांतरित करना है. आने-जाने वाले लोगों के लिए गाँधी जी के जीवन दर्शन को जीवंत करना शामिल है. सरकार दावा कर रही है कि जब महात्मा जी ने आश्रम को स्थापित किया था तब यह 120 एकड़ में था लेकिन आज केवल 5 एकड़ जमीन की ही पहचान पूरे विश्व में है. इस रिपोर्ट में दावा किया गया है कि जब आश्रम का निर्माण हुआ था तब इसकी इमारतें 47 एकड़ में फैली हुई थी और 1930 तक आश्रम क्षेत्र में 63 भवन थे। आज, मूल इमारतों में 43 ही शेष है आजादी के 75 वर्ष पूरे होने पर आश्रम के पुनर्निर्माण के लिए खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रतिबद्ध है. अब यह निर्माण 55 एकड़ में होना है जिसमें सभी 43 इमारतों को शामिल किया गया है.

बेचैनी और विवाद का कारण

इस विचार पर देश के गांधीवादियों ने अपनी लगभग एकमत होकर प्रतिक्रिया दी है. सभी का मानना है कि क्यूंकि यह परियोजना सीधे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की निगरानी में रहेगी तो सम्भव है के यह व्यापारिक ना हो जाए हाल ही में बने गुजरात के मुख्यमंत्री एक व्यापारिक क्षेत्र से आते है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भी छवि व्यापारिक राजनेता की रही है यहां तक की विपक्ष भी यह कहता रहता है कि मोदीजी की सरकार चंद व्यपारियों की सरकार है और पिछले कुछ आंकड़े भी यही बाताते है जिस तरह से मोदीजी के करीबी ”गौतम अडानी” की संपत्ति लगातार बढ़ रही है तो दूसरी ओर देश हैप्पीनेस इंडेक्स में अपने कई पड़ोसी देशों से पीछे जाकर 136वें स्थान पर है. ऐसे में गांधीवादियों का एक बड़ा हिस्सा इस बात की आशंका में है कि कहीं गांधी के मूल्यों के इतर जाकर आश्रम का पुनःनिर्माण भव्यता और खर्च पर जाकर केवल न सिमट जाए क्योंकि महात्मा गाँधी अपने पूरे जीवन में भव्यता और खर्च से दूर आधारभूत जीवन का संदेश देते रहे है. ऐसे में अगर आश्रम का इतने बड़े रूप में निर्माण होगा तो यह गांधी के मूल विचारों से एकदम उल्टा होगा जो कि वैचारिक रूप से बिल्कुल उनके जीवन और आश्रम की मूल-भावना के इतर माना जायेगा. मूल-भावना और आश्रम को बचाने के लिए पिछले वर्ष ही राष्ट्रीय गांधी स्मारक निधि के सचिव संजय सिंह, गांधी शांति संस्थान के अध्यक्ष कुमार प्रशांत एवं राष्ट्रीय गांधी स्मारक निधि के अध्यक्ष एवं देश के वरिष्ठ गांधी वादी विचारक ”रामचंद्र राही जी” के नेतृत्व में सेवाग्राम से साबरमती तक सन्देश यात्रा का नेतृत्व किया गया और देश के गांधीवादियों को शामिल करके 17 अक्टूबर को शुरू की गई इस यात्रा का अंत 24 अक्टूबर को अहमदाबाद में किया गया था. इस यात्रा के माध्यम से सरकार को जगाने और लोगों को जागरूक करने का प्रयास किया गया था.

सवाल कई हैं लेकिन जवाब अब केवल सरकार को ही देना है. सरकार को इसबात पर भी गौर करना है कि साबरमती आश्रम किसी एक सरकार, देश या कुछ ट्रस्टियों की विरासत नहीं है. अब यह आश्रम पूरे विश्व की धरोहर है. सरकार को इस प्रकार के सभी आक्षेप का भी खुलकर स्पष्टीकरण देना चाहिए कि आखिर सरकार पुनःनिर्माण के माध्यम से आश्रम में करना क्या चाहती है. यह जिम्मेदारी सरकार की तब ज्यादा बन जाती है जब सरकार राज्य और केंद्र दोनों जगह पूर्ण बहुमत में है. सरकार की जवाबदेही के साथ-साथ आम जनमानस को भी इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि राष्ट्रपिता कुछ एक समुदाय, कुछ विशेष लोग या केवल बुद्धिजीवी वर्ग के नही है. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी पूरे विश्व और भारत की विराट पहचान है. जरूरी है कि जायज सवाल के जायज जवाब भी मिलना जनता का अधिकार है और सरकार को सभी प्रकार के संदेहों का जवाब देने की जिम्मेदारी लेनी होगी. महात्मागांधी की विरासत और उनसे जुड़े हुए सभी प्रकार के आश्रम और प्रतीकों को बचाने की जिम्मेदारी चंद गांधीवादियों की ही नहीं बल्कि पूरे जन-मानस की है।

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