मनुस्मृति के अनुसार दंड ही राज्य का प्रहरी होता है

लोकतान्त्रिक व्यवस्था  में जनता जनार्दन रूपी ईश्वर से राज्य और राजा अस्तित्व में आते हैं

 डा चन्द्रविजय चतुर्वेदी ,प्रयागराज  

 ऋग्वेद में मनु का उल्लेख मिलता है –विश्वो हि ष्मा मनवे विश्ववेदसो -8 /27 /4  ,यामथर्वा मनुष्पिता -1 /80 /16 ,यान मनुरवृणीता पिता -2 /33 /13 जिसमे मनु को विश्वदेव कहा गया ,जो समस्त प्रजाओं के पिता हैं। मनु को मनुष्य जाति  का कुलपुरुष अथवा पूर्वपुरुष माना जाता है। मनुष्य से समुदाय बना समुदाय से धीरे धीरे समाज बना ,समाज से राज्य अस्तित्व में आया। मनुस्मृति के सातवें  अध्याय के श्लोक तीन में कहा गया की इस जगत में राजा न होने से सब भय से व्याकुल होते हैं इसलिए इन सब की रक्षा के लिए ईश्वर ने राजा को उत्पन्न किया। राज्य की अवधारणा व्यवस्था के लिए बनी और राजा ईश्वर का प्रतिनिधि माना गया। 

      लोकतान्त्रिक व्यवस्था  में भी जनता जनार्दन रूपी ईश्वर से राज्य और राजा अस्तित्व में आते हैं। लोकतान्त्रिक संस्थाएँ जनता जनार्दन रूपी ईश्वर के प्रतिनिधि हैं। मनुस्मृति के सातवें अध्याय के श्लोक चौदह में कहा गया की राज्य की व्यवस्था  लिए ,राज्य के हित के लिए ईश्वर ने पहले से ही प्राणियों का रक्षक धर्मरूप और ब्रह्मतेजरूप अपने पुत्र दंड को उत्पन्न कर रखा था। इस प्रकार दंड भी राजा के समतुल्य ईश्वर अर्थात जनता जनार्दन द्वारा स्थापित है। दंड कोई राजा की इच्छा नहीं है। दंड धर्मानुसार ज्ञानपूर्ण तरीके से स्थापित व्यवस्था है। सातवें अध्याय के श्लोक सत्रह  के अनुसार दंड ही राजा ,दंड ही पुरुष दंड ही राज्य का नेता और शिक्षक होता है। ऋषियों ने दंड को ही चारों आश्रमों  के  साक्षी कहा है। 

      मनुस्मृति के अनुसार दंड ही राज्य का प्रहरी होता है –दण्डः सुप्तेषु जागर्ति –जब दुनिया सोती रहती है तो यह दंड ही जागता रहता है। पंडितों ने इसीलिए दंड को धर्म कहा है –दण्डं धर्मं विदुर्बुधा। दंड की महत्ता को देखते हुए दंड देने वाले की पात्रता महत्वपूर्ण हो जाती है। सातवें अध्याय में श्लोक छब्बीस में पात्रता के सम्बन्ध में कहा गया की –दंड देनेवाले को सत्यवादी ,विचारकर काम करनेवाला भली प्रकार से धर्म ,अर्थ ,काम जैसे पुरुषार्थ की बारीकियों का ज्ञाता तथा बुद्धिमान होना चाहिए। इस प्रकार दंड देने वाले की पात्रता महत्वपूर्ण हो जाती है इसी अध्याय के श्लोक सत्ताईस में कहा गया –यदि राजा भली प्रकार विचारकर दंड देता है तो धर्म अर्थ ,काम की वृद्धि होती है और जो राजा नीच ,कामी और अनुचित दंड देने वाला होता है वह उसी दंड से मारा जाता है। 

ये लेखक के निजी विचार हैं. 

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चंद्रविजय चतुर्वेदी

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