सारी दुनिया के इतिहास का अनोखा उदाहरण : गॉंधी जी ने सत्ता अपने हाथ में क्यों नहीं ली


आज गांधीजी की इस बात का मर्म हमारी समझ में भली भांति आ रहा है।जिस समय देश के दूसरे नेता राष्ट्रनिर्माण के लिए राज्य सत्ता पर ही भरोसा रखकर बैठे थे, उस समय गांधीजी अच्छी तरह जानते थे कि उनके सपनों का भारत अकेली एक सरकार के औजारों की मदद से नही गढ़ा जा सकेगा। वे राज्यसत्ता का मूल्य कम नहीं आकते थे। ऐसी भी कोई बात नही थी कि सत्ता के प्रभावकारी और उचित प्रयोग में उन्हें कोई दिलचस्पी न रही हो। वे इस बात के लिए बराबर चिन्तित रहे कि शासन की बागडोर उत्तम हाथों में बनी रहे और वे हाथ सही नीति का अनुसरण करें। फिर भी उनके सामने यह बात बिल्कुल स्पष्ट बनी रही कि केवल राज्य के जरिए ही सारा बेड़ा पार नहीं लग सकेगा। इसलिए जब देश में आजादी आई, और आपने आदर्श के अनुरूप सारे देश के नव निर्माण का अवसर उपस्थितहुआ,तो उन्होंने सत्ता अपने हाथ में नहीं ली।
उन दिनों तो इस घटना का महत्त्व मेरे ध्यान में बिल्कुल ही नहीं आया, लेकिन आज मुझे लग रहा है कि सारी दुनिया के इतिहास मे यह एक ही अनोखा उदाहरण है। दुनिया में बड़ीबड़ी क्रांतियां हुई हैं।जब दुनिया की ये सारी क्रांतिया सफल हुई, तो क्या हुआ? क्रांति का सबसे बड़ा नेता अपने देश के सबसे ऊंचे सिंहासन पर चढ़कर बैठ गया। अपनी क्रांति के उद्देश्यों को सिद्ध करने के लिए, परिवर्तन की प्रक्रिया को पूरा करने के लिए और नए समाज का निर्माण करने के लिए, उनमें से हर एक ने सत्ता अपने हाथ में थाम ली। अमेरिका में जार्ज वाशिंगटन ने यही किया। फ्रांस में एक के बाद एक नेता सत्ता अपने हाथ में लेता चला गया। रूस में लेनिन ने भी सत्ता स्वीकार की। चीन, तुर्किस्तान , अल्जीरिया , क्यूब आदि सब देशों में यही हुआ। अकेले गांधीजी ही एक ऐसे निकले, जिन्हो ने सत्ता अपने हाथ में नहीं ली।
वैसे देखा जाए,तो गांधीजी कोई सन्यासी नहीं थे। वे राजनीति से अलग नहीं रहते थे।
पच्चीस सालों तक उन्हों ने इस देश की राजनीति को अपनी अंगुलियों पर नचाया था। फिर भी जब स्वराज्य आया, तो उन्होंने सत्ता की तरफ झांककर देखा तक नहीं। यदि वे यह मानते होते कि सत्ता में जाने से राष्ट्र का उत्थान हो सकेगा, तो उन्होंने राज्य_ सत्ता अपने हाथ में ली होती। इसके लिए उन्हें कौन रोक सकता था?
लेकिन गांधीजी ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने सारी दुनिया से अलग अपना एक निराला ही रास्ता निकाला। न तो उन्होंने पद
स्वीकार किया, और न वे किसी विधानसभा में या लोकसभा में ही गए। इससे यह बात तो बिल्कुल अस्पष्ट हो जाती है कि इस विषय में गांधीजी दूसरो की अपेक्षा कुछ अलग ही ढंग से सोचते थे।उन्हें पूरा_ पक्का विस्वास था कि उनके अपने जो उदेस्य है, उनकी पूर्ति सत्ता द्वारा नही हो सकेगी। उनके चिंतन का यह एक परिपक्व परिणाम था। सोचसमझकर ही वे इस निष्चय पर पहुंचे थे। लेकिन चूंकि गांधीजी का सारा जीवन राजनीति में बीता था, इसलिए यह बात लोगों के ध्यान में सहसा आती नहीं थी। किन्तु यहां सोचने की बात यह है कि गांधीजी ने जिस राजनीति में भाग लिया था, वह राजनीति किस प्रकार की थी? उन्होंने जो आंदोलन चलाया था, वह तो देश के लिए स्वराज्य प्राप्त करने का आंदोलन था। इस सीमित अर्थ में ही वह राजनीति था। वरना उनकी राजनीति पक्ष की या सत्ता की वह राजनीति तो कभी रही नहीं। भारत का स्वराज्यआंदोल
न एक सर्वोत्तम लोकआंदोलन था। वह राजनीति यानी राज्य की राजनीति नहीं थी, बल्कि लोकनीति यानी जनता की राजनीति थी। जनता की ऐसी राजनीति के लिए ही गांधीजी ने अपना सारा जीवन बिताया, और अपने जीवन की अंतिम घड़ियों में भी वे देश के सामने एक ऐसी योजना रखकर गए , जिससे जनता की राजनीति का विकास हो सके, और लोकशक्ति फूलती
फलती रहे।
_ लोकनायक जयप्रकाश नारायण

Leave a Reply

Your email address will not be published.

two × 2 =

Related Articles

Back to top button