कांशी राम : जिन्होंने देश भर के दलितों को आवाज दी
— त्रिलोक दीप , वरिष्ठ पत्रकार
जब मैं कांशी राम जी से पहली बार मिला तो वे रहगड़पुरा के एक छोटे से कमरे में रहते थे । वहीं से वे अपना सारा काम किया करते थे। पुणे से शिफ्ट होकर जब वे दिल्ली आये तो उनका पहला ठौर यही था। एक छोटे से कमरे में। जब मैं उनसे बात करने के लिए पहुंचा, वे पंजाबी में बोले, ” बैठो कभी बड़ा कमरा भी हो जायेगा। हालात आगे चल कर बेहतर ही नहीं बहुत बेहतर होने वाले हैं। मेरी मेहनत रंग ला रही है। लोगों को मेरी बातों में सच्चाई दीखने लगी है। आजकल काफी लोग मिलने भी आ रहे हैं। “बिना मेरे किसी सवाल के उन्होंने अपने जज्बात का खुलासा किया। उन दिनों रहगड़पुरा में ज़्यादातर मोची और दलित रहा करते थे।उनके सांसदों में नवल प्रभाकर, टी सोहनलाल, धर्मपाल शास्त्री, कृष्णा तीर्थ आदि रही हैं। अब तो रहगड़पुरा में पंजाबी और बनिया परिवार भी रहने लगे हैं। पंजाबी होने के नाते कांशी राम की पंजाबियों से तो निकटता थी ही बाकी सभी जातियों और संप्रदायों से भी उनका राब्ता था और वे उन्हें अपने सोच और मंसूबों के बारे में बताया करते थे।
15 मार्च, 1934 को अविभाजित भारत के पंजाब के रोपड़ जिले के रोरापुर में एक रैदासी सिख के घर जन्मे कांशी राम के सात भाई बहन थे – दो भाई और चार बहनें। कांशीराम सब से बड़े थे और सब से ज़्यादा शिक्षित भी। रैदासी सिख वह होते हैं जिन्होंने अपना मूल धर्म छोड़ कर सिख धर्म अपनाया होता है। इस तरह के कई परिवार आपको बिहार के पूर्णिया और सहरसा में मिल जायेंगे, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, तेलंगना, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक आदि राज्यों में भी। इन दिनों बहुत से विदेशी भी सिख धर्म अपना चुके हैं और उसकी ओर आकर्षित हो रहे हैं।
बहरहाल, कांशीराम मूलरूप से पंजाबी थे औऱ हम लोग ठेठ पंजाबी में ही बतियाते थे। 1958 में बीएससी में कामयाब होने के बाद उनका आरक्षित श्रेणी में सिविल सर्विसेस में चयन हुआ औऱ पुणे में रक्षा उत्पादन विभाग में सहायक वैज्ञानिक के पद पर नियुक्त हुए। अपनी नियुक्ति के कुछ समय बाद ही वहां उन्हें एक अजब तरह की घुटन और बेचैनी महसूस होने लगी। वे बताते थे कि लगता है हम लोग छले जा रहे हैं। आरक्षणरूपी यह कृपा उन्हें ‘प्रतीकवाद’ से अधिक नहीं लगती थी। उन्हें महसूस होता था कि काम हम लोग करते हैं और श्रेय दूसरा ले जाता है। अपनी इस पीड़ा को अपने जैसे लोगों से वह अक्सर साझा किया करते थे। कांशीराम बताते थे क्योंकि मैं अकेला था शाम को अपने साथियों के घर चला जाता औऱ उन्हें अपने विचारों से अवगत किया करता था। कुछ लोग और उनका परिवार मेरी उलझनों और विचारों से सहमत होते तो कुछ कहते’हमें क्यों मरवाता है। खुद छड़ाछांड है, तुम्हें जो ठीक लगे, करो हमें अपने हाल पर छोड़ दो। सदियों से हम लोग ‘सेवा’ करते आये हैं और बड़े लोगों का ज़ुल्म सहते आये हैं , अब मालिक बनने के ख्वाब कैसे देख सकते हैं।’
उनके जवाब से कांशीराम कभी निरुत्साहित नहीं हुआ करते थे। उन्हें कहीं भीतर से यकीन था कि उनके कहे पर ‘ विरोधी स्वर’ वाले लोग सोच ज़रूर रहे होंगे। वे अपनी ज़मीन तैयार करने में जुटे रहे। आखिरकार अपने भीतर के द्वंद को उजागर करते हुए 1965 में उन्होंने डॉ. भीमराव आंबेडकर के जन्मदिन पर सार्वजनिक अवकाश रद्द करने के विरोध में संघर्ष का रास्ता अख्तियार कर अपने अधिकारियों से रद्द हुई छुट्टी को बहाल करने की मांग कर कांशीराम ने अपने मन की कसक को उजागर कर ही दिया। जो लोग दुविधा की स्थिति में थे वे भी इस मुद्दे पर कांशीराम के संग हो लिये। इस घटना के बाद उन्होंने पीड़ित समाज के लिए लड़ने का मन बना लिया। उन्होंने देश में व्याप्त सम्पूर्ण जातिवादी प्रथा औऱ डॉ.आंबेडकर के कार्यों का गहन अध्ययन किया। यह काम समय मांगता था लिहाज़ा उन्होंने 1971 में नौकरी से इस्तीफा दे दिया।
अब उनके पास अपने सोच को कार्यान्वित करने के लिए वक़्त था औऱ लोगों को एकजुट करने का अवसर भी। शुरू शुरू में उन्होंने अनुसूचित और अनुसूचित जनजाति व अन्य पिछड़ी जाति और अल्पसंख्यक कर्मचारी कल्याण संस्था की स्थापना की। जब इस संस्था से लोग जुड़ने लगे तो कांशीराम का हौसला बढ़ गया और 1973 में उसे व्यापक रूप देते हुए BAMCEF यानी पिछड़ी व अल्पसंख्यक जाति कर्मचारी संघ का गठन किया और इस के माध्यम से उन्होंने डॉ.आंबेडकर के विचारों के प्रचार प्रसार का कार्य किया और पुणे से दिल्ली आ गये। सन् 1980 में उन्होंने ‘आंबेडकर मेला ‘ नाम से पद यात्रा शुरू कर दलित, शोषित, पिछड़े हुए लोगों को जोड़ने का काम शुरू किया।जब उनकी संस्था का फैलाव होने लगा तो उसे राजनीतिक दल का स्वरूप देते हुए 1984 में ‘ बहुजन समाज पार्टी ‘ का गठन किया। यह सारी कथा खुद कांशीराम ने मुझे बतायी थी। उन्होंने तो यह भी बताया था कि दिल्ली आते हुए रास्ते में बारिश आ गयी और उससे बचने के लिए उन्होंने अपना लोहे का संदूक सिर पर रखकर दौड़ लगायी थी। वह बहुत ही सहज और सरल इंसान थे। आम पंजाबी परिवार के घरों में लोहे के एक या एक से अधिक संदूक होते हैं।
उन दिनों कांशीराम के पास लोहे का एक छोटा संदूक ही था जिसके साथ वह रहगड़पुरा में रहते थे। उनकी अपनी ज़रूरतें कभी भी ज़्यादा नहीं रहीं।
अब कांशीराम बहुत सक्रिय हो गये थे। लोग भी उत्सुकवश उनसे मिलने के लिए आने लगे। वे विधिवत राजनेता बन गये थे। छोटी छोटी सभाएं भी करने लगे। कुछ नुक्कड़ सभाएं युवाओं को, विशेषकर तथाकथित निचली जाति के, संबोधित करने लगे। उन्हें लगा कि बड़े बूढ़े उनके विचार और जज्बात समझेंगे नहीं इसलिए युवाओं को डॉ. आंबेडकर के विचारों के साथ अपनी योजनायें बताने लगे। उन्होंने लोगों को आंकड़ों से समझाना शुरू किया कि बताओ हम लोगों की कितनी आबादी है। हम लोगों से कितना काम लिया जाता है। हम लोगों से हर पार्टी कई तरह के वादे करती है। क्या कभी कोई भी पार्टी अपने वादों पर खरी उतरी? उत्तर मिलता, नहीं।
कांशीराम कहा करते थे कि उसका जवाब है बहुजन समाज पार्टी। यह पूछे जाने पर कि मायावती जी आपकी पार्टी से कैसे जुड़ीं। कांशीराम ने बताया कि अपनी पढ़ाई और टीचर की नौकरी करने के साथ हमारी संस्था के लिये भी वह काम किया करती थीं। मैं उनकी बहादुरी के बारे में जानता था कि किस प्रकार 1977 में जनता पार्टी की जीत का जश्न मनाते वक़्त रायबरेली से इंदिरा गांधी को हराने वाले और केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री राज नारायण को उस समय आड़े हाथों लिया जब वह अनुसूचित जातियों के लिए’हरिजन’ शब्द का बार बार प्रयोग कर रहे थे।मायावती ने मंच पर खड़े होकर उनको ललकारते हुए कहा था कि जब’हमारे भगवान डॉ. आंबेडकर अनुसूचित जातियों का नाम लेते हैं हमारे लिये हरिजन शब्द का इस्तेमाल करने की आपकी हिम्मत कैसे हुई।’ उसी दिन से निडर मायावती के लिए मेरे मन में इज़्ज़त बढ़ गयी और मैं खुद चल कर उनके घर गया और उन्हें अपनी पार्टी में शामिल हो अपना हाथ बंटाने के लिए कहा।
उन दिनों वे आईएएस की तैयारी कर रही थीं। इसपर मैं ने उनसे कहा था कि ‘मैं तुम्हें ऐसा बनाना चाहता हूं कि आईएएस तुम्हारे दस्तखत लेने के लिए तुम्हारे आगे पीछे फिरें।’ मांबाप के विरोध के बावजूद वे मेरे साथ काम करने के लिये अपना घर बार छोड़ कर आ गयी थीं। कांशीराम की दूरदर्शिता की दाद देनी चाहिये कि उनमें संभावित और ऊर्जावान व्यक्ति को पहचानने की कितनी क्षमता थी। उन्होंने बताया था कि बेशक़ मायावती बहुत दिलेर और निडर हैं। बसपा में सक्रिय हो जाने से मैंने पहले पहल उत्तरप्रदेश की कमान उसके हाथ में सौंप दी जहां उसने पार्टी को खड़ा करने में खूब मेहनत की। तीन तीन उपचुनाव हारने के बाद उसके हौसले पस्त नहीं हुए और आखिरकार 1989 में बिजनौर से भारी मतों से लोकसभा का चुनाव जीत कर बसपा की धाक जमा दी।अब बसपा को राष्ट्रीय स्तर पर अहमियत मिल गयी। मैं पार्टी संगठन के काम में व्यस्त रहा और मायावती को उत्तरप्रदेश में पार्टी की जड़ें मजबूत करने का ज़िम्मा सौंपा।
दिसंबर, 1992 में बाबरी मस्जिद शहीद होने के बाद मुस्लिम भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों से मायूस हो गये थे। पिछड़ी जातियों का समर्थन हमें लगातार मिल ही रहा था और 1993 के विधानसभा चुनाव में मुसलमानों के ज़्यादातर मत हमें और समाजवादी पार्टी को मिले जिसके चलते हमारी दोनों पार्टियों की सदस्य संख्या इतनी हो गयी कि हम सरकार बनाने का दावा पेश कर सकते थे। अब हमने एक और नया प्रयोग किया। सपा के साथ मिलकर सरकार बनाने का। हमने सपा को बाहर से समर्थन दिया। मिलीजुली सरकार करीब दो साल चली भी लेकिन वह अपने पीछे कटुता छोड़ गयी।यह प्रयोग हमें रास नहीं आया। इसकी खासी कटु यादें हैं जिनकी मैं पुनावृत्ति नहीं करना चाहता। मई, 1995 में मायावती उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री का पद संभालने वाली पहली दलित महिला बनी।बसपा ने अपना यह सपना साकार कर दिया कि अगर पिछड़ी जातियां और मुस्लिम मिलकर काम करें तो कमाल कर सकते हैं। अब मुझे लगा कि दलितों की अहमियत कुछ हद तक बढ़ी है। उनको एकजुट करने और रखने का दायित्व मायावती को सौंप मैं दूसरे राज्यों में बसपा की जड़ें जमाने के काम में लग गया। पंजाब का मैं हूं ही, वहां के लोगों ने, खास तौर पर निम्न जाति के, मेरी दलीलों को सुन कर अमल किया और वहां पार्टी मजबूत करने में मदद की। हरियाणा की कमान भी मैंने अपने पास ही रखी।
कांशीराम मुझे अपनी रणनीति बता रहे थे।इस बीच मैं भी ‘दिनमान ‘ छोड़ ‘ संडे मेल ‘ में आ गया लेकिन कांशीराम से मेरा संपर्क बना रहा। अब वह हुमायूं रोड में सांसदों की कोठी में रहने लगे थे। मायावती और उनकी बहन मुन्नी भी अपने परिवार के साथ वहीं रहती थी। मुन्नी ही उन दोनों के खाने का ख्याल रखतीं और मेहमानों के लिए चाय देने की ज़िम्मेदारी भी उन्हीं की थी। कभी कभी कांशीराम की मां भी अपने बेटे से मिलने के लिए आ जाया करती थीं। एक बार मैंने कांशीराम से पूछा कि आपने एक ही बार लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीता, उसके बाद फिर न लड़ने का फैसला क्यों लिया, तो उनका उत्तर था, ‘वहां बैठ कर वक़्त ज़ाया करने से बेहतर मैंने पार्टी संगठन को मजबूत करना समझा। ‘वे 1996-97 में लोकसभा के सदस्य रहे । अब अक्सर मेरी कांशीराम से मुलाक़ातें होने लगीं। कभी दिल्ली में उनके घर तो कभी कई राज्यों के दौरों के दौरान। वह बताते थे कि अभी मेरे लक्ष्य की सम्पूर्ण प्राप्ति नहीं हुई है। हम लोग देश की आबादी का 70 फीसदी से ज़्यादा हैं। आप खुद ही जोड़ कर देख लें। अनुसूचित औऱ अनुसूचित जनजातियों के अलावा अन्य पिछड़ी जातियां, आदिवासी, अल्पसंख्यक और उनसे जुड़ी तमाम उप- जातियां। जनगणना के आंकड़े उठाकर देख लीजिये, हक़ीक़त आपके सामने आ जायेगी। इन ‘सांपनाथ और नागनाथ ‘ पार्टियों यानी कांग्रेस और भाजपा ने हमारा जितना शोषण कर अपना अपना उल्लू सीधा किया है, उसका हिसाब तो इन्हें ही बेबाक करना होगा।
मैंने पूछा कि जिन्हें आप सांपनाथ और नागनाथ पार्टियां कहते हैं, वक़्त बेवक्त इनसे मिलकर आप सरकारें भी तो बनाते आये हैं। उनका जवाब था, ‘ वे अपनी गरज से हमें बाहर से समर्थन दिया करती थीं। ‘ मायावती 1995, 1997, 2002-03 तथा 2007-12 तक उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं। 2007 से 2012 तक पहली बार पूरे पांच बरस तक वह सत्ता में रहीं। पहले के दो कार्यकाल छह महीने के आसपास थे जबकि तीसरा पंद्रह माह का ही था। एक बार जब कांशीराम से पूछा कि बसपा ने राम विलास पासवान को बहुत नुकसान पहुंचाया है, तो उनका जवाब था, कोई किसी को हानि नहीं पहुंचाता, उसकी अपनी नीयत इसके लिए ज़िम्मेदार होती है। वह तो मुख्यतया बिहार के नेता हैं जबकि हमारी पार्टी अखिल भारतीय पार्टी स्तर की बन गयी है। मुझे कांशी राम के साथ मध्यप्रदेश के जबलपुर भोपाल, रायपुर, ओड़िसा के संबल, भुवनेश्वर, पुरी, पंजाब के जालंधर, लुधियाना, दक्षिण के हैदराबाद, बंगलुरू, चेन्नई के अतिरिक्त गोवा आदि जाने के अवसर मिले। उन सभी जगहों पर बसपा के अपने ऑफिस और समर्पित एवं कर्मठ कार्यकर्ता मिले । वे सभी कांशीराम को ‘साहब’ कह कर संबोधित करते थे। अपने भाषणों में वे इस बात पर ज़ोर दिया करते थे कि हम ‘बहुजन’ हैं लेकिन हमें देश में वह दर्जा प्राप्त नहीं है जिसके हम हक़दार हैं। संविधान में सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त हैं परंतु हमारे साथ भेदभाव बरता जाता है, हम पर अत्याचार किये जाते है, हमें दबा कुचला माना जाता है, ऐसा क्यों? हमें इन भेदभावों को मिटा कर अपने हक़ की लड़ाई लड़नी है।हमें इस असमानता, शोषण और उत्पीड़न जैसे अन्याय के खिलाफ अपनी एकजुटता का प्रदर्शन करना होगा तभी मौजूदा ताकतों को हमारी शक्ति का अहसास होगा।
मध्यप्रदेश, ओड़िसा, हरियाणा, पंजाब जैसे राज्यों में तो वे हिंदी में भाषण दिया करते थे जबकि दक्षिणी राज्यों में अंग्रेज़ी में। बंगलुरु में आयोजित सभा में दोनों भाषाओं का इस्तेमाल भी कर लिया करते थे। कमोबेश इन सभी राज्यों की सभाओं में मैं कांशीराम के साथ रहा करता था। उत्तर भारत के वे पहले ऐसे दलित नेता थे जिनकी पूरे देश में इज़्ज़त और स्वीकृति थी और उन्हें सभी स्थानों पर पूरे आदर सम्मान के साथ सुना जाता था। अगर वे हैदराबाद में लोगों को अंग्रेज़ी में संबोधित कर रहे हैं तो एक दुभाषिया तेलुगू में अनुवाद करने को तैयार रहता था। इसी प्रकार बंगलुरू में कन्नड़ और चेन्नई में तमिल भाषाओं के दुभाषिये उपलब्ध रहा करते थे। कांशीराम की सार्वजनिक सभाओं में अच्छी खासी भीड़ रहा करती थी। दक्षिण के इन राज्यों के दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों के लोगों को लगता था कि देश में कोई ऐसा नेता भी है जो उनकी समस्याओं को राष्ट्रीय स्तर पर न केवल उठा रहा है बल्कि उनके कार्यान्वयन की दिशा में भी प्रयासशील है। बसपा की उत्तरप्रदेश में समय समय पर बनने वाली सरकारों का भी दक्षिणी राज्यों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव था।
कांशीराम के पक्ष में यह बात भी जाती थी कि वे फक्कड़ हैं, सांसद बनने की उनकी इच्छा नहीं, बस एकमात्र लक्ष्य बसपा के पार्टी संगठन को देश भर में मजबूत करना है। कांशीराम के प्रति इसी नज़रिये से दक्षिणी राज्यों के उनके कार्यकर्ता पार्टी के प्रति बहुत समर्पित थे। उन कार्यकर्ताओं से भी मेरी बातचीत होती थी। जो पूरे विश्वास के साथ कहा करते थे कि ‘साहब’ जैसा बेलाग और बेबाक नेता उन्होंने पहले कभी नहीं देखा है। एक बार 15 मार्च उनके जन्मदिन पर मैं चेन्नई में मौजूद था। वहां के समुद्र के किनारे एक विराट समारोह हुआ जिसमंह बड़ी संख्या में लोग जुड़े थे। कांशीराम को जन्मदिन के उपहार स्वरूप उनके सिर पर एक ताज रखा गया और उनकी फोटो से युक्त सिक्के भी उन्हें भेंट किए गये। जन्मदिन का वह समारोह जल्दी ही जनसभा में तबदील हो गया था इसलिए अपने कार्यकर्ताओं की ख़ुशी के लिये सभी तोहफे तब उन्होंने स्वीकार कर लिये लेकिन बाद में पार्टी कार्यकर्ताओं को हल्की सी झिड़की देते हुए कहा कि यदि हम लोग भी दूसरी पार्टियों की तरह यह सब प्रपंच करते रहेंगे तो हमारी अपनी अलग पहचान कैसे बनी रह सकेगी।
सभा को अंग्रेज़ी में संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि हम दलित लोग सिर्फ अपने संवैधानिक अधिकार की मांग कर रहे हैं। हम लोग देश की जनसंख्या का 70 प्रतिशत से अधिक हैं , हमारा शोषण तथाकथित बड़ी पार्टियां और उच्च जातियां ,जो कई दशकों से कर रही हैं , उन्हीं के खिलाफ हमारी लड़ाई है। अन्याय और उत्पीड़न का यह सिलसिला केवल देश के एक हिस्से या राज्य तक ही सीमित नहीं है पूरा देश उसकी गिरफ्त में है। अगर हम लोग ‘वाद ‘ के चक्कर में न पड़कर एकजुट होकर अपने हक़ की लड़ाई लड़ेंगे तो हमारी जीत यकीनी है। कांशीराम धाराप्रवाह अंग्रेज़ी में अपना भाषण दिये जा रहे थे और उसी प्रवाह में तमिल दुभाषिया भी अनुवाद किये जा रहा था और लोग दत्तचित्त हो ‘साहब’ को सुन रहे थे और बीच बीच में तालियां भी बजा रहे थे।
कांशीराम अथक परिश्रमी नेता थे। पार्टी को खड़ा करने के फेर में उनका खाना पीना, सोना जागना सभी कुछ अनिश्चित हो गया था। एक ही धुन सवार थी देश के बहुसंख्यक लोगों के हितों की आवाज़ के लिये एक दमदार राजनीतिक दल का गठन। इस सोच और मेहनत की वजह से वे मधुमेह और उच्च रक्तचाप से पीड़ित रहने लगे। 1994 में उन्हें दिल का दौरा भी पड़ा। बावजूद इसके उनकी सक्रियता बरकरार रही। मेरे यह पूछने पर कि कुछ हलकों में आपको ‘दलितों का मसीहा ‘ कहा जाता है तो सवाल का सीधा जवाब न देकर उन्होंने इतना भर कहा कि ‘ मेरा मकसद बहुजन के लिए इज़्ज़त और सम्मान की ज़िंदगी बसर करने की आवाज़ पैदा करना था जो मुझे लगता है बहुजन समाज पार्टी की स्थापना कर मैं कमोबेश उसमें कामयाब रहा।बसपा आज किसी एक प्रांत या स्थान की आवाज़ न होकर पूरे देश की आवाज़ बन गयी है ।’
‘एक बार मैंने उनसे यह सवाल भी किया था कि किस आधार पर आपने मायावती जी को यह भरोसा दिलाया था कि आईएएस अफसर तुम्हारे दस्तखतों के लिये आगे पीछे फिरेंगे। इसके जवाब में बोले, ‘अपनी बेलाग मेहनत, लोगों का निरंतर मिलने वाला समर्थन तथा एक ठोस राजनीतिक विकल्प का उभरने का विश्वास। ‘ इसके अतिरिक्त मायावती की निडरता मेरा बहुत बड़ा संबल था। जो लड़की प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की उपस्थिति में सारी जनता के सामने उनके धाकड़ मंत्री की बखिया उधेड़ सकती है, वह जीवन में कुछ भी कर सकती है। उसका यह आत्मविश्वास मुझे बहुत मुतासिर कर गया।’ आजकल आप बीमार रहने लगे हैं क्या बसपा रूपी यह पौधा वटवृक्ष बन पाएगा। बिना लागलपेट के उन्होंने कहा था कि ‘मुझे मायावती की क़ाबलियत पर पूरा भरोसा है।’ इसी भरोसे के चलते ही उन्होंने मायावती को सिंतबर, 2003 में विधिवत अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।
एक दिन मैं उनके हुमायूं रोड स्थित उनके निवास पर बैठा था तो क्या देखता हूं कि कांग्रेस नेता अजित जोगी आये, कांशीराम को झुक कर नमस्कार किया और उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछा। इतना पूछने के बाद वे चले गये। संभव है मुझे वहां बैठा देखकर ज़्यादा बातचीत न करना चाहते हों।
अजित जोगी के जाने के बाद मैंने कांशीराम से पूछा, क्या दूसरी पार्टियों के लोग भी आपसे मिलते रहते हैं। उत्तर में थोड़ा मुस्कराये और बोले, अक्सर , कोई दिन में तो कोई देर शाम को आता रहता है। जोगी तो पिछड़ी जाति के हैं वे अपना दर्द बांटने आये होंगे। अब तो सवर्ण जातियों के लोग भी आने लगे हैं। उनमें भी दो तरह के लोग होते हैं, एक सवर्ण जातियों का निचला तबका जिसकी स्थिति दलितों से भी बदतर होती है। वे लोग अपनी जाति के बड़े और धनवान लोगों की ज़्यादतियों और शोषण का शिकार होते हैं और बसपा को पनाहगाह के तौर पर देखते हैं औऱ दूसरा वर्ग वह होता है जो अपनी अपनी पार्टियों से चुनावी टिकट से वंचित होने पर बसपा की शरण में आता है। हम सभी को खपाने का प्रयास करते हैं। आपने भी गौर किया होगा कि बसपा में दलितों और अन्य पिछड़ा दलों के अलावा भी बहुत लोग हैं, कुछ स्थानीय निकायों में, कुछ विधानसभाओं में तो कुछ पार्लियामेंट में भी। अब आप ही तय कीजिए कि बसपा सही मायने में ‘ बहुजन ‘ है कि नहीं। आज उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम किसी न किसी क्षेत्र में बसपा की उपस्थिति आप पायेंगे।
बसपा को देश की राजनीति में इस मुकाम तक पहुंचाने में किसी ने तो ईमानदारी और घोर परिश्रम से अपना खून पसीना बहाया ही होगा। एक मजबूत और पूरी तरह से संगठित दल का गठन ही मेरा अभीष्ट था, मेरा लक्ष्य था। इस कार्य में मैं अपने आप को काफी हद तक सफल मानता हूं।’ मेरे यह पूछने पर कि भगवान न करे आपके न रहने पर क्या पार्टी की यह एकजुटता कायम रहेगी, उनका दोटूक जवाब था,’बिल्कुल । न सिर्फ कायम ही रहेगी बल्कि इस का विकास और विस्तार भी होगा। इसके लिये मुझे मायावती पर पूरा भरोसा है। ‘
दसियों बार कांशीराम से मैं मिला था। यह बातचीत कई बैठकों में हुई थी। मुझ से वह खासी बेबाकी से बातें किया करते थे। उन्होंने मुझे यह भी बताया था कि दलितों की शिक्षा और स्वास्थ्य बहुत बड़ा मुद्दा है। इसके लिए भी ठोस प्रयास करने होंगे।
एक दिन पता लगा कि ग़ाज़ियाबाद में एक अस्पताल के निर्माण की चर्चा चल रही है। पूछने पर बताया था कि कुछ लोग प्रस्ताव लाये थे। हमें इस बात की व्यवस्था करनी होगी कि किसी मरीज़ के साथ भेदभाव न हो और दलितों का पूरा ख्याल रखा जाये। कुछ वक़्त के बाद जानकारी मिली कि संतोष अस्पताल कांशीराम के सौजन्य से स्थापित हुआ है।
इसी प्रकार उन्होंने नोएडा और ग़ाज़ियाबाद में कई शिक्षण संस्थानों को भी प्रोत्साहन दिया था। इस बात पर उनका ज़ोर रहता था कि किसी के साथ यह समझ कर मतभेद या भेदभाव न किया जाये कि वह दलित है या अन्य किसी पिछड़ी जाति से उसका संबंध है। कांशीराम से जुड़ी ये यादें उस निर्लिप्त, निर्विकार और निरवैर व्यक्ति की याद दिलाती रहती हैं । यह उस बन्दे के अकीदे की कहानी भी बयां करती है जिसने किसी की आलोचना की परवाह किये बिना अपना मकसद अपनी मेहनत, दूरदर्शिता और लगन से प्राप्त किया था। कांशीराम जी की याद को सादर नमन।