जब जेपी ने बारिश में छाता लेने से मना कर दिया, भीगते हुए बोलते रहे, लोग सुनते रहे

इमर्जेंसी ने सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन को पटरी से उतार दिया 

राम दत्त त्रिपाठी , राजनीतिक विश्लेषक 

लोक नायक जय प्रकाश नारायण एक ऐसे बिरले क्रांतिकारी थे, जिन्होंने अपने को क्रांति की किसी किताब या विचारधारा में बाँधकर नहीं रखा।वह पूरे जीवन सत्ता से दूर रहकर क्रांति की खोज और असली लोकराज  की स्थापना  के लिए सतत लगे रहे।इसीलिए  वह साम्यवाद से गांधीवाद और समाजवाद की यात्रा करते हुए सर्वोदय के पड़ाव पर नहीं रुके। जे पी ने अपने सपनों को शारीरिक सीमाओं में भी बाँधने नहीं दिया, चाहे जवानी में आज़ादी के लिए अंग्रेज़ों की हज़ारीबाग़ जेल की दीवार कूदकर निकलना रहा हो, या फिर बुढ़ापे में जर्जर स्वास्थ्य के बावजूद सम्पूर्ण क्रांति  आंदोलन का नेतृत्व और देश को आपातकाल की तानाशाही से मुक्त कराना।   

आज़ादी के क़रीब पचीस साल बीत जाने के बाद जब उन्होंने देखा कि नयी राजनीतिक व्यवस्था सामाजिक और आर्थिक बराबरी का लक्ष्य पूरा नहीं कर पायी। नौजवान बेरोज़गारी से और आम नागरिक मंह्गाई से परेशान हैं।सरकार में ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार है और जवाबदेही तय करने की व्यवस्था नहीं है।चुनाव बेहद खर्चीला हो गया है और भ्रष्ट अथवा ग़ैरज़िम्मेवार जन प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का कोई क़ानून भी नहीं है। जेपी दहेज और ऊँच नीच जैसी सामाजिक बुराइयों से भी चिंतित थे। ये सारे सवाल जेपी को अंदर से कचोट रहे थे।जे पी समाज और व्यवस्था के हालात से बेचैन थे . उन्हें समाज में 1942 जैसे क्रांति के  हालात नज़र आ रहे थे. 

जे पी से रहा नहीं गया। 1973 के अंत होते- होते जेपी ने युवाओं के नाम अपील जारी की यूथ फ़ॉर डेमोक्रेसी।शायद उन्हें सर्वोदय जगत के लोगों की ताक़त और इच्छाशक्ति पर भरोसा भी  नहीं था। जे पी की अपील पर जगह – जगह युवा मंच का गठन हुआ। जेपी के आह्वान 1974 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में मतदाता शिक्षण एवं चुनाव शुद्धि अभियान चलाया गया. चुनाव ख़र्च कम करने के लिए एक अनोखा प्रयोग करते हुए नागरिक सभाएँ आयोजित हुईं , जिनमें सभी उम्मीदवारों को एक मंच पर बुलाया गया. कुछ ही दिनों बाद गुजरात और फिर बिहार में छात्र आंदोलन शुरू हो गये, जिसमें जेपी अगुआ बने. 

ख़राब स्वास्थ्य के बावजूद आंदोलन को विस्तार देने के लिए जेपी खिल भारतीय छात्र युवा सम्मेलन के लिए इलाहाबाद आए।सम्मेलन के दूसरे दिन  24 1974 जून शाम को पी डी टंडन पार्क में जनसभा थी. सभा शुरू होते हाई के समय पानी बरसने लगा. हम लोगों ने जे पी के ऊपर  छाता लगाना  चाहा , कोई और नेता होता तो ख़ुशी से छाता ले लेता। आजकल नेता लोग गर्मी में मंच पर एसी लगवाकर भाषण देते हैं. लेकिन जो जनता के नेता होते हैं उनके एक -एक संकेत विलक्षण होते हैं।  जेपी ने छाता लेने से मना करते हुए पब्लिक से कहा “आप भीग रहे हैं तो मैं भी भीगूँगा.” उनकी बात का जादुई असर हुआ. लोग हिले नहीं . भीगते हुए भाषण सुनते रहे . 

ख़राब स्वास्थ्य के बावजूद आंदोलन को विस्तार देने के लिए जेपी खिल भारतीय छात्र युवा सम्मेलन के लिए इलाहाबाद आए।सम्मेलन के दूसरे दिन  24 1974 जून शाम को पी डी टंडन पार्क में जनसभा थी. सभा शुरू होते हाई के समय पानी बरसने लगा. हम लोगों ने जे पी के ऊपर  छाता लगाना  चाहा , कोई और नेता होता तो ख़ुशी से छाता ले लेता। आजकल नेता लोग गर्मी में मंच पर एसी लगवाकर भाषण देते हैं. लेकिन जो जनता के नेता होते हैं उनके एक -एक संकेत विलक्षण होते हैं।  जेपी ने छाता लेने से मना करते हुए पब्लिक से कहा “आप भीग रहे हैं तो मैं भी भीगूँगा.” उनकी बात का जादुई असर हुआ. लोग हिले नहीं . भीगते हुए भाषण सुनते रहे . 

स्वतंत्रता  आंदोलन को मुख्यालय होने के नाते देश की राजनीति में इलाहाबाद का अलग प्रभाव रहा है। इलाहाबाद में दो दिनों तक सम्पूर्ण क्रांति की  हुंकार से जेपी आंदोलन को राष्ट्रीय पहचान मिली . जेपी के वापस पटना जाते समय हम लोग उन्हें विदा करने  रेलवे स्टेशन गये . जेपी ने कहा कि बीमार होने के कारण वह बिहार से बाहर ज़्यादा समय नहीं दे सकते , इसलिए हम लोग उत्तर प्रदेश में आंदोलन को फैलाने के लिए पूरा समय दें . वापस आकर मैंने और मेरे साथी भारत भूषण ने जेपी की अपील के अनुसार सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन के लिए पढ़ाई छोड़ने का निश्चय किया। दोनों ने लॉ प्रथम वर्ष की परीक्षा छोड़ दी. जेपी के आह्वान पर हमारे जैसे सैकड़ों युवकों – युवतियों ने आंदोलन में सक्रिय हिस्सा लेने के लिए पढ़ाई छोड़ दी। 

सर्वोदय जगत में  जेपी आंदोलन को लेकर दुविधा थी. इसलिए जेपी ने अपने नायकत्व में छात्र युवा संघर्ष वाहिनी का गठन किया. जून १९७५ आते – आते आंदोलन चरम पर था। इस दरम्यान दो महत्वपूर्ण घटनाएँ हुईं . बारह जून उन्नीस सौ पचहत्तर को कॉंग्रेस गुजरात विधान सभा चुनाव हार गयी और इलाहाबाद हाईकोर्ट ने चुनावी भ्रष्टाचार में इंदिरा गांधी की  लोक सभा सदस्यता रद्द कर दी . 

ग़ैर कांग्रेस दल इलाहाबाद हाईकोर्ट के जजमेंट को आधार बनाकर इंदिरा गांधी को हटाने के लिए  देशव्यापी आंदोलन चलाना चाहते थे। दूसरी ओर जेपी सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन को बड़े शहरों से ग्रामीण इलाक़ों तक ले जाकर जन  संगठनों के माध्यम से प्रत्यक्ष जनता सरकार का प्रयोग करना चाहते थे जिसमें लोक समितियाँ राशन वितरण जैसे काम अपने हाथ में लें। 

जेपी हर चुनाव क्षेत्र में मतदाता परिषदें बनाकर लोक उम्मीदवार का भी प्रयोग करना चाहते जो उनकी निर्दलीय लोकतंत्र की कल्पना का एक हिस्सा था। आंदोलन का एक और महत्वपूर्ण मुद्दा चुनाव ख़र्च में कमी और शासन तंत्र की जवाबदेही के लिए लोक आयुक्त की नियुक्ति थी। 

दो दिन बाद यानी चौदह जून को  जे पी सर्वोदय नेताओं की बैठक के लिए पटना से जबलपुर जा रहे थे . इलाहाबाद में ट्रेन बदलने के लिए उनके पास कुछ घंटों का समय था. संदेश मिलने पर हम कुछ लोग उनसे मिलने रेलवे स्टेशन पहुँचे। आगे क्या करना है इस पर विचार विमर्श के दौरान जे पी का स्पष्ट कहना था कि विपक्षी नेता इस मौक़े पर इंदिरा गॉंधी के खिलाफ बड़े आंदोलन के लिए उन्हें दिल्ली बुला रहे हैं पर वह बिहार में में सम्पूर्ण क्रॉंति आंदोलन को निचले स्तर तक संगठित करना चाहते हैं , इसलिए दिल्ली नहीं जाना चाहते. 

जेपी सरल स्वभाव के व्यक्ति थे। वह इंदिरा गांधी की चुनाव में जनादेश लेने की चुनौती भी स्वीकार कर चुके थे। शायद इसलिए वह आंदोलन को सहयोग देने वाले विपक्षी नेताओं का दबाव टाल नही सके। जेपी को पटना से दिल्ली लाने के लिए जेपी के कुछ क़रीबी  साथियों का भी इस्तेमाल किया गया। 

जेपी पर दबाव बढ़ा। वह दिल्ली आए।25 जून को जेपी ने रामलीला मैदान की ऐतिहासिक सभा में इंदिरा जी के त्यागपत्र को लेकर सत्याग्रह और पुलिस तथा सैनिकों से ग़ैर क़ानूनी आदेश न मानने की पुरज़ोर अपील की. 

कांग्रेस के कुछ सांसद जे पी से मिले और पार्टी छोड़ने के संकेत दिए।इंदिरा जी पार्टी में बग़ावत की एक बड़े जनांदोलन की सम्भावना से घबरा गयीं। बिना मंत्रिमंडल में विचार किए रातोंरात इमर्जेंसी लगा दी गयी।  

अगली सुबह जो देशव्यापी गिरफ़्तारियाँ हुईं .हमने कुछ दिन भूमिगत रहते हुए सत्याग्रह और प्रतिरोध खड़ा करने की कोशिश की .लेकिन वह हो नही सका। आंदोलन को ज़ोरदार समर्थन देने वाला मीडिया सेंशर का शिकार हो गया। अधिकांश बुद्धिजीवी डरकर ख़ामोश हो गए। दिल्ली की सड़कों पर कोई बड़ा आक्रोश नही फूटा। लोगों की यह चुप्पी देखकर जेपी को गहरी पीड़ा और निराशा हुई।

२१ जुलाई १९७५ को चंडीगढ़ में अपनी डायरी में उन्होंने लिखा, “ मेरे चारों ओर मेरी दुनिया बिखर  गयी। मुझे भय है की मैं  अपने जीवन काल में इसे दोबारा फिर से व्यवस्थित होते नहीं देख सकूँगा। हो सकता है। मेरे भतीजे और भतीजियाँ देख पाएँ। हो सकता है।

शायद स्वास्थ्य कमज़ोर होने से भी उनके मन में यह क्षणिक हताशा आयी होगी। पर कुछ ही दिन बाद उनका आत्मविश्वास लौट आया। १० अगस्त को उन्होंने आपातकाल की समाप्ति के लिए आमरण अनशन का निश्चय किया। लेकिन अधिकारियों के मनाने पर संकल्प टाल दिया। 

एक बार सरकार को लगा की जेपी चंडीगढ़ अस्पताल में ही चल बसेंगे। शायद कुछ लोग ऐसा चाहते भी थे। पर कुछ अधिकारियों ने दिल्ली को समझाया कि अब मरणासन्न हालात में जेपी को क़ैद रखने ठीक नहीं तो  १६ नवम्बर को उन्हें रिहा कर दिया गया। 

जेपी आज़ाद होकर जहाज़ में बैठे तो उन्होंने दृढ़ संकल्प लिया, “ मेरा स्वास्थ्य महत्वपूर्ण नही है। देश और लोकतंत्र का स्वास्थ्य ज़्यादा ज़रूरी है। मैं उस महिला को परास्त कर लोकतंत्र बहाल करूँगा।

बाद में मुंबई के अस्पताल में बी बी सी से एक साक्षात्कार में जेपी ने कहा, “ लोकतंत्र को इस आसानी से तानाशाही में बदल देंगी, इसकी मै कल्पना नही कर सकता था।

जेपी ने कहा, “ इसकी कल्पना होती, मुझे यह ख़तरा होता तो निश्चित रूप से मैं ज़्यादा सोचकर रास्ता निकाल लेता।

और ख़ुलासा करते हुए जेपी ने कहा, “ यह कल्पना होती तो मै लगान बंदी, करबंदी इत्यादि सीधी  कार्यवाही की तरफ़ जो जा रहा था, उतनी दूर तक नहीं जाता , दूसरे राजनीतिक क़दम उठाता। चुनाव की तैयारी करता।विपक्ष को एकजुट कर पार्टी बनवाता, हर सीट पर एक उम्मीदवार खड़े करने की कोशिश करता।”

जेपी ने स्पष्ट किया की मैं स्वयं चुनावी राजनीति में नही जाता।

अस्पताल से जेपी ने जनता को संदेश दिया, “ जनता हिम्मत रखे।युवक डटे रहें।अभी अँधेरा लगता है, लेकिन भविष्य उज्जवल है। देश निकलेगा इस अंधेरे से।”

बात में जो हुआ वह सबको मालूम है। लोकतंत्र बहाल हुआ। संविधान में आपातकाल में हुए संशोधन रद्द हुए। लेकिन राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव नहीं हुए।जनता पार्टी नेताओं की आपसी लड़ाई से ढाई साल में ही इंदिरा गांधी वापस  आ गयीं।

जेपी आंदोलन के दौरान उठे सारे मुद्दे इस समय भी भारत की जनता के सामने हैं। 

आर एस एस और जनसंघ के शीर्ष नेताओं ने जेपी को भरोसा दिलाया था कि वे मुसलमानों के ख़िलाफ़ साम्प्रदायिक राजनीति छोड़ देंगे।लेकिन जनसंघ के नए अवतार भारतीय जनता पार्टी ने कुछ ही सालों बाद साम्प्रदायिक राजनीति शुरू कर दी और आज़ादी से पहले का हिंदू राष्ट्र का अपना एजेंडा ज़ोर शोर से चालू कर दिया। परिणाम है की आज देश में हिंदू – मुस्लिम तनाव की नयी समस्या पैदा हो गयी है।

सम्पूर्ण क्रांति का सपना कहीं पीछे छूट गया है। जेपी आंदोलन से निकले  जो लोग सत्ता में गए उन्होंने भी राजनीति में वही हथकंडे अपनाए जिनके ख़िलाफ़ जेपी ने संघर्ष छेड़ा था। हम इन्तज़ार करें कि 1974 की तरह  फिर कहीं से चिंगारी उठे और कोई जेपी उसे सम्पूर्ण क्रांति जैसे एक बड़े सपने से जोड़कर समाज को झँकझोर सके।

 

 

 

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