वोट बैंक – एक चुनावी दृष्टि
अपने प्रदेश सहित कई अन्य राज्यों में विधानसभा चुनाव की दुंदुभि बजने लगी है। सभी राजनीतिक दल अपने-अपने जनाधार सहेजने लगे हैं। इस जनाधार को राजनैतिक विश्लेषकों ने वोट-बैंक का नाम दिया है। इसी संदर्भ में प्रस्तुत है एक अर्थशास्त्रीय कविता। आशा है कि अर्थशास्त्र जानने वाले और न जानने वाले सभी को पसंद आएगी ☺️☺️
रोजनामचा रामखेलावन का
आ गया चुनाव
अपने प्रदेश सहित कई अन्य राज्यों में विधानसभा चुनाव की दुंदुभि बजने लगी है। सभी राजनीतिक दल अपने-अपने जनाधार सहेजने लगे हैं। इस जनाधार को राजनैतिक विश्लेषकों ने वोट-बैंक का नाम दिया है। इसी संदर्भ में प्रस्तुत है एक अर्थशास्त्रीय कविता।
आशा है कि अर्थशास्त्र जानने वाले और न जानने वाले सभी को पसंद आएगी ☺️☺️
मानवीय संवेदनाओं पर करारी चोट है।
आदमी इंसान नहीं, महज एक वोट है।।
वोट का है अर्थशास्त्र, स्वीकारता है तर्कशास्त्र,
अर्थशास्त्र के सभी नियम, ह्रासमान या वृद्धिमान।
वोट मे है विद्यमान।।
उत्पादन के सभी उपादान, वोट मे निहित हैं।
आप भी विदित हैं।।
वोट भूमि है, वोट है श्रम।
वोट है पूंजी, वोट उद्यम।।
संगठन वोटों का कहलाता वोट-बैंक,
बैंकों में सबके खाते हैं,
कुछ चालू, कुछ बंद।
कुछ शार्ट-टर्म, कुछ लांग-टर्म,
कुछ सन सैंतालिस से चले आ रहे हैं।
कुछ नये खुलते हैं, कुछ बंद हो रहे हैं।।
परंतु एक यक्ष प्रश्न, सबके मन को उद्वेलित करता रहा है,
जनता अपना वोट,
पांच साल में हर बार,
बीच में कभी कई जमा
वोटों की पूंजी और ब्याज,
हर बार, हर साल,
बढ़ने के बजाय घटता जा रहा है।
इस प्रश्न का उत्तर,
आप में से जिसके पास हो, बतला देना।
और जो भी इस प्रश्न का उत्तर दे सके,
उसे अगले चुनाव में जितवा देना।।
(स्वरचित – अरुण कुमार गुप्ता)
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