विनोबा का नवविचार : विकल्पहीनता में विकल्प की आशा
विनोबा की 125वीं जयंती (11 सितंबर) पर विशेष
डॉ. चन्द्रविजय चतुर्वेदी ,प्रयागराज। लोकतान्त्रिक राजतंत्र और वाणिज्यतंत्र के हाथों कठपुतली की तरह नाचते हुए आज का मानव एक ऐसी स्थिति तक पहुँच चुका है जहाँ उसे वीभत्स भविष्य की संभावनाओं की आहट होने लगी है।
परमाणु अस्त्रों की भयावह छाया में जहाँ युद्ध की विभीषिका होगी, शोषण की क्रूरता होगी, और होगा अराजकता का तांडव, प्रदूषण की घुटन होगी, विश्रृंखलित समाज होगा और होंगे अनैतिक मूल्य।
वैज्ञानिक प्रगति और सभ्यता के विकासक्रम में पूंजीवादी और साम्यवादी दोनों ही पद्धतियों से यद्यपि मानव का भौतिक स्तर ऊंचा हुआ है परन्तु उसके नैतिक स्तर में जितनी गिरावट आती जा रही है, उतनी गिरावट पहले कभी नहीं थी।
औद्योगिक और भौतिक मूल्यों को प्रधानता देने वाली आज की वैज्ञानिक सभ्यता ने जिस समाज का संश्लेषण किया है, उसकी जीवंतता नष्टप्राय है।
समाज का स्वतः विकासमान ऑर्गेनिक नेचर विलुप्त होता जा रहा है।
विगत पांच दशकों से विश्व के लगभग सभी देशों में एक वैकल्पिक समाज और व्यवस्था की खोज की छटपाहट स्पष्ट दिख रही है।
आज सारे विश्व के समक्ष एक गंभीर प्रश्न है उस मानवीय संस्कृति और समाज के निर्माण का, जिससे मानवता की रक्षा हो सके।
विगत पांच दशकों के विश्व का इतिहास साक्षी है कि एक ओर औद्योगिक और भौतिक मूल्यों की संस्कृति का दुष्चक्र, दूसरी ओर वैकल्पिक संस्कृति के निर्माण के खोज की अकुलाहट भरी खीज, दिशाहीन विद्रोह, झूठ, घृणा, हिंसा पर आधारित राजनीती और वैचारिक दासता आदि ने ऐसा संशय और सम्भ्रम उत्पन्न कर दिया है जैसा मानवीय सभ्यता के इतिहास में इसके पूर्व कभी नहीं था।
विनोबा के नवविचार
इस संशय और सम्भ्रम के निवारण की किरणे आचार्य विनोबा भावे के नवविचार के दर्शन में प्रस्फुटित होती दिख रही हैं।
गाँधी के विचार और दर्शन को आध्यात्मिक और वैज्ञानिक प्रसार देने वाले भूदानयज्ञ के संत विनोबा ने लोकजीवन और उसके व्यवस्था की संरचना को हिंसामुक्त और जीवंत बनाने के लिए जो सिंद्धांत प्रतिपादित किये उनपर विचार मंथन आज बहुत प्रासंगिक हो गया है।
विनोबा एक साथ ऋषि, संत, गुरु, कर्मयोगी और सन्यासी की भूमिका में रहे।
सच्चे अर्थों में इस क्रियावान ब्रह्मज्ञानी ने उद्घोषित किया कि नए विज्ञान युग का पदार्पण हो चुका है।
इसके पद के आहटों को सुनो इस वैज्ञानिक युग में राजनीति और धर्मपंथ कालबाह्य -आउटडेटेड हो चुके हैं।
अब विज्ञान और अध्यात्म ही रहने वाला है। जाने के पहले राजनीति और धर्मपंथ बहुत तकलीफ देंगे।
लेकिन इन्हें जाना ही है। लाख कोशिशों पर भी ये बचेंगे नहीं।
हिंसा और दंडशक्ति
आधुनिक युग में भी सामाजिक परिवर्तन और पुनर्निर्माण के लिए दो ही शक्तियों का प्रयोग किया जा रहा है –हिंसा और दण्डशक्ति ,यह हिंसा और दण्डशक्ति चाहे राज्य का हो या धर्मपंथ का।
राजनीति के दुष्चक्र में शासन कर रहे लोकतंत्र, एकतंत्र, समाजवाद, साम्यवाद ने पूरी दुनिया को एक यांत्रिक राजनैतिक तथा संवेदनहीन आर्थिक संगठन के नीचे दबा दिया है।
दुनिया ने धर्म के मूल तत्वज्ञान को समझने के बजाय धर्मपंथ को निषेध के रूप अधिक ग्रहण किया।
अपनी धार्मिकता की पहिचान के लिए दूसरे धर्म पंथ के निषेध की प्रवृत्ति को राजनीति ने बढ़ावा दिया जिससे व्यक्ति और समाज –धर्म -मजहब इंटाक्सिकेटेड होता गया।
धर्म -मजहब में आत्ममुग्ध मदमस्त। क्या है यह -अतिधर्मिकता ,योग्यधर्मिकता ,या धर्महीनता।
धर्म और राजनीती के कुत्सित गठजोड़ से हिंसा और दंड दोनों शक्तियां मानवता की रक्षा में निष्फल साबित हो रहीं हैं।
आवश्यकता है तीसरी शक्ति के उत्सर्जन की। ईसामसीह ने प्रेम से ,बुद्ध -महाबीर ने अहिंसा करुणा से समाज का पुनर्निर्माण किया।
गाँधी ने इसी को संश्लिष्ट करके सत्य अहिंसा प्रेम और सत्याग्रह को परिवर्तन का माध्यम बनाया।
ब्रह्मविद विनोबा ने इसी दर्शन का विस्तार अपने नवविचारवाद में किया।
समाज के चित्त की शुद्धता जरूरी
ऋषि विनोबा ने देखा एक छोर है –ध्यान ,धारणा ,समाधि ,भजन कीर्तन में डूबे रहना –मोक्ष की कामना में, व्यक्ति अपना चित शुद्ध कर रहा है।
समाज का चित शुद्ध नहीं है तो व्यक्ति के चित शुद्धि का कोई अर्थ नहीं है।
प्रह्लाद ने नृसिंह भगवान से प्रार्थना की –इन दीनजनो को छोड़कर मैं अकेले मुक्त नहीं होना चाहता।
प्रह्लाद का अनुसरण करते हुए बाबा का अभूतपूर्व अद्वैत चिंतन है।
वे कहते हैं की बाबा व्यक्ति रहा ही नहीं ,बाबा समूह है और समूह के नाते ही यह देह है।
बाबा सामूहिक मुक्ति के पक्षधर हैं।
बाबा के इस छोर की धारणा है की –जब तक सारी मानव जाति मुक्त नहीं हो जाती तब तक अपने विदेहमुक्ति की वासना को एक बाजू रखकर मैं सूक्ष्मरूप में दुनिया की सेवा करता रहूँगा।
क्रांति का बोध
कर्मयोगी सन्यासी की दृष्टि में दूसरा छोर है –क्रान्ति का बोध। प्रकृतिमें परिवर्तन की गति शनैः शनैः है।
मानवजाति का विकास असत से सत कीओर एक क्रियावान निरंतरता है।
समस्त क्रांतियां -फ़्रांस के राज्यक्रान्ति से लेकर चीनकी क्रान्ति की परिणति अपक्रान्ति ही रही है। बोल्शेविक क्रांति का महानायक ट्राटस्की कहता है -दी रिवोल्यूशन इज बिट्रेड। क्रांतियां हमेशा ही छली गई।
इन दोनो छोरों को विनोबा आध्यात्मिक और वैज्ञानिक परिदृष्टि से संयुक्त करके नवविचारवाद को प्रख्यापित करते हैं।
संयोजन शक्ति में निहित है अध्यात्म का चेतनवाद और विज्ञानं का प्रयोगवाद।
विनोबा ने अपने दर्शन में सर्वसम्मति के तत्व को प्रख्यापित किया। समूह जीवन ही जीवन है।
वेदवाक्य है समानं मनः सह चित माषाय –हमारे चित जितने मिले हुए होंगे, हम जितने समरस होंगे, होमोजिनियस होंगे, जितने एकप्राण होंगे, उतने ही अंशों में हम जीवंत होंगे शेष जड़ है निर्जीव।
परिवर्तन की पहली कड़ी है व्यक्ति का परिवर्तन। यह तभी हो सकेगा जब व्यक्ति पूर्ण स्वतन्त्र और पूर्ण उत्तरदायित्व निर्वाह का होगा।
व्यक्ति के लिए विनोबा का कथन था –यू आर फ्री टू ओबे। कोई दबाव नहीं है ,पूरी स्वतंत्रता है।
यह स्वतंत्रता राज्य और समाज को व्यक्ति को देनी होगी।
पर किस व्यक्ति को –जिसका चित पूर्ण रूप से मुक्त हो ,स्वतन्त्र विचार हो ,आचरण में नियमन हो।
ऐसा व्यक्ति ही समूह के लिए ,समाज और देश के लिए समर्पित होगा।
निरहंकार की शक्ति
समूह के अहंकार की शक्ति जागृत करने के बजाय विनोबा समूह के निरहंकार की शक्ति जागृत करते हैं।
समुदाय, जाति संप्रदाय, धर्म आदि के अहंकार की प्रचंड शक्ति ने विध्वंस ज्यादा किया है, निर्माण कम ही किया है।
विनोबा के व्यक्ति-समूह के निरहंकार की शक्ति सृजनात्मक है प्राकृतिक शक्ति जैसी।
विनोबा का निरहंकारी मानव ही अतिमानव की ओर बढ़ सकता है।
उन्होंने एक स्थल पर कहा की सर्वसम्मति तबतक नहीं हो सकेगी जबतक राजसत्ता चलती रहेगी और जिसको संतपुरुष माना आचार्य माना ऐसे पुरुष की भी सत्ता राजसत्ता से कम रुकावट वाली नहीं होती।
पुरुषविशेष का युग गया। एकता की आकांक्षा समग्र विश्व में इस समय भरी है।
अब जो महापुरुष पैदा होंगे उनकी खूबी होगी की वे सर्वसम्मति की शक्ति से काम करेंगे।
संगठन निरपेक्ष क्रान्ति
विनोबा ने एक दूसरा सिद्धांत प्रख्यापित किया वह है संगठन निरपेक्ष क्रान्ति।
विनोबा का मत था की विचारों को संस्था या संगठन में बैठाने के प्रयास में उन्हें मूर्तरूप प्रदान करने के बजाय मूर्तिरूप प्रदान हो जाता है।
विचारकों के रचनात्मक कार्य को विकसित करने से ज्यादा महत्वपूर्ण उनकी मूर्तियां स्थापित करना हो गया है।
प्रत्यक्षं किम प्रमाणं –यह क्रूर सत्य है की सभी राजनैतिक दल अपने सिद्धांतों को तिलांजलि दे चुके हैं।
कार्यक्रमों के क्रियान्वयन की कहीं कोई बात नहीं है।
अहिंसक तरीके से कार्यक्रम को मूर्तरूप साधनापूर्ण जीवनयापन की भांति होता है।
संगठन के लिए जोड़तोड़ के सर्जन से अधिक आवश्यक है विसर्ज, त्याग।
इसलिए अहिंसक क्रांति के संगठन में विनोबा ने अ -रचना और अ -संगठन में ही शक्ति के दर्शन किये।
विनोबा का मत था की निरहंकारी सेवक -साधकों के अहिंसक प्राण समूह से वह अहिंसक क्रांति संभव हो सकेगा जिसमें नया व्यक्ति नया समाज उभर कर आएगा जो राज्यविहीन लोक -शक्ति स्थापित कर मानवता की रक्षा कर सकने में समर्थ हो सकेगा।
विनोबा के चिंतन को एक वाक्य में परभाषित करते हुए कहा जा सकता है की प्राचीन चेतनवाद अध्यात्म युगों से इसलिए सार्थक है कि वह युगयुगीन वैज्ञानिक दृष्टिकोण को समेटे हुए है।
आज का प्रयोगवादी विज्ञानं प्राचीन आध्यात्मिक मूल्यों को समेट कर ही अपनी सार्थकता सिद्ध कर सकेगा। जय जगत।