प्रकृति नब्ज पर विक्रम संवत्

डा आर अचल
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2 अप्रैल को भारतीय संवत्सर का शुभारम्भ हो रहा है।परन्तु ऐसा नहीं है कि पूरे भारत में इसी दिन नववर्ष की शुरुआत मानी जाती है।सामान्यतः हम उत्तर भारतीय संस्कृति हो भारतीय संस्कृति मान लेते है,जबकि वास्तविकता यह है भारतीय संस्कृति विविध संस्कृतियों का समुच्चय है।इसलिए नववर्ष की चर्चा करते समय सभी भारतीय संस्कृतियों के नववर्ष की चर्चा आवश्यक लगती है।

नववर्ष कालगणना का वार्षिक शुभारम्भ होता है,पूरी दुनियाँ मे 96 तरह की कालगणना प्रचलित है, केवल भारत में ही 36 प्रकार की कालगणना रही है,जिसमे 24 पद्धतियाँ अब विलुप्त हो चुकी है परन्तु 12 कालगणना विधियाँ आज भी प्रचलित है।इस तरह दुनियाँ मे 96 दिन नववर्ष होता है तथा भारत में 12 दिन नववर्ष मनाया जाता है।भारतीय कालगणना मेस्वयंभू, मनु संवत्सर, सप्तऋषि संवत्, गुप्त संवत्, युधिष्ठिर संवत्, कृष्ण संवत्, ध्रुव संवत्, क्रोंच संवत्, कश्यप संवत्, कार्तिकेय संवत्, वैवस्वत मनु संवत्, वैवस्वत यम संवत्, इक्क्षवाकु संवत्, परशुराम संवत्, जयाभ्युद संवत्, लौकिकध्रुव संवत्, भटाब्ध संवत् (आर्य भट्ट), जैन,शकसंवत्, शिशुनाग संवत्, नंदशक्, क्षुद्रक संवत्, चाहमानशक, श्रीहर्षशक, शालिवाहनशक, कल्चुरी या चेदीशक, वल्भिभंगसंवत,फसली संवत्,सरहुल संवत् के अनुसार नववर्ष मनाया जाते है। उत्तर भारत में विक्रम व शक संवत् विशेष प्रचलित है जो चैत्र मास आरम्भ होता है।

कालगणना का मौलिक उद्देश्य प्रकृति के अनुसार जीवनशैली व काम-काज को व्यवस्थित करना होता है।प्रकृति के बदलाओं,मौसम,ऋतुओं,ठंडी,गर्मी,बरसात से मानव जीवनशैली व काम-काज प्रभावित होता है। इसलिए मानव जीवन को समायोजित व प्रबंधित करने के लिए कालगणना की शुरुआत हुई । आज दुनिया में सर्वाधिक प्रचलित व मान्य ईस्वी कलैण्डर है, जिससे राजकीय व दैनिक काम-काज किए जाते है।प्रकृति के परिवर्तनों को जानने के लिए अन्य उपाय व तकनीक की आवश्यकता पड़ती है। परन्तु भारतीय मनीषीयों ने कालगणना के लिए ऐसी पद्धित का विकास किया,जिससे दैनिक कामकाज के अलावा प्रकृति में होने वाले समस्त परिवर्तनों को सूक्ष्मता पहचान करना संभव रहा है।इसे कृतविक्रम व शकसंवत् के नाम से जाता है।इसकी चर्चा करने से पहले भारत में प्रचलित कालगणना का कुछ पाश्चाच्य विधियो का संक्षिप्त परिचय जानना आवश्यक लगता है। कालगणना की सभी विधियाँ सूर्य- पृथ्वी-चन्द्र की गति पर आधारित होती हैं । ग्रेगरियन कलैण्डर- इसे सामान्यतः ईस्वीसन् के नाम से जाना जाता है।वर्तमान मे यह वैश्विक कलैण्डर के रुप में मान्य है।इसका का आधार चन्द्रमा द्वारा पृथ्वी की परिक्रमा व सूर्य पर केन्द्रित है। 354 दिनो मे चन्द्रमा पृथ्वी का 12 चक्कर लगाता है।एक चक्र को एक महीना मानकर ईस्वी सन् मे 12 महीने माने गये है।परन्तु पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा लगभग 365 दिन 5घंटे 8मिनट में करती है इसीलिए महीनो को पृथ्वी के परिपथ के अनुसार समायोजित करने के लिए बार-बार संशोधित करते हुए 7 महीने 31 दिन तथा 4 महीने 30 दिन किए गये है।फरवरी माह को 2 साल 28 दिन व तीसरे साल 29 दिन का किया गया ।जिससे मौसम और महीनो के बीच स्थिरता बनी रहती है ।इसके पहले यह जूलियन कलैण्डर के नाम से जाना जाता था जिसकी त्रुटियों को पोप ग्रेगोरी अष्टम ने सुधार कर व्यवहारिक बनाया।इसलिए इसे ग्रेगरियन कलैंडर कहा जाता है।इसकी गणना ईशा मसीह के जन्म को मध्य बिन्दु मान कर की जाती है।जन्म के पहले के समय को ईसा पूर्व तथा बाद के समय को ईस्वीसन् कहते है।

हिजरी कलैण्डर-यह ईस्लामिक कालगणना है। जिसमें वर्ष में बारह मास तो होते है पर दिनो की संख्या 354 या 355 होती हैं।जिन्हे 12 महीनो मे बाँटने के लिए चन्द्रदर्शन से महीनो की शुरुआत की जाती है। खगोल विज्ञान के अनुसार शुक्ल पक्ष के दूसरे दिन दिखता है। इसलिए हिजरी के महीने लगभग 29 दिन की ही गणना की जाती है।इस कलैण्डर में पृथ्वी की सूर्य परिक्रमा पथ की गणना न किये जाने के कारण हिजरी वर्ष, विक्रम व ईस्व वर्ष से 11 दिन कम होता है।इसके महीने प्रत्येक वर्ष 10-11 दिन पीछे खिसक जाते है।हिजरी कलैण्डर तथा ईस्वी कलैण्डर में 590 वर्ष का अन्तर होता है।यह अन्तर 33 साल बाद क्रमशः 1 वर्ष कम होता जाता है,जैसे-2008 ईस्वी में 1429 हिजरी है,जिसमे 579 वर्ष का अन्तर है जो 2040ई.तक बना रहेगा परन्तु 2041 ईस्वी और 1463 हिजरी मे यह अन्तर 578वर्ष का हो जायेगा।इसलिए हिजरी के महीने मौसम के अनुसार स्थिर नहीं होते है।इसकी शुरुआत हजरत। मुहम्मद के मदीना प्रवास के दिन से हुई। ‘हिज्र’ का तात्पर्य हिन्दी में ‘प्रवास’ होता है, इसलिए हिजरी कहते है।ईस्लामिक त्योहारों का निर्धारण इसी क्लैण्डर से किया जाता है।

शकसंवत्- इस संवत् की कालगणना विक्रमसंवत की शैली में ही की जाती है।मौसम, ऋतुएँ, महीने, पक्ष, सप्ताह, दिन, घटी, पल, सभी एक जैसे होते है,केवल एक अन्तर यह होताहै कि शक संवत् की शुरुआत चैत्र माह का कृष्णपक्ष बीतने के बाद शुक्लपक्ष के पहले दिन(शुक्लप्रतिपदा) से की जाती है, जबकि विक्रम संवत् की शुरुआत चैत्र मास के कृष्ण पक्ष के पहले दिन से ही मानी जाती है।इतिहासकारो के अनुसार यह पश्चिमोत्तर भारत में प्रचलित था।इसका प्रयोग कई राजाओं द्वारा किया गया।इसकी शुरुआत 78ई.से माना जाती है।ऐसा भी माना जाता है,शक राजा चेष्टन मे इसकी शुरुआत की, कुछ इतिहासकार कुषाणवंश के राजा कनिष्क द्वारा शुरु किया गया मानते है,पर इतिहासकारो में इस मान्यता के संबंध मे मतभेद है क्योकि शक के नाम से इससे पूराने कई संवत् मिलते है,जैसे-नंदशक्, क्षुद्रक संवत्,चाहमानशक, श्रीहर्षशक, शालिवाहनशक,कल्चुरी या चेदीशक। इस विषय में तथ्यो का विवेचन करने से ऐसा लगता है कि यह पूर्व प्रचलित विक्रम संवत् में महीनों के शुरु होने का दिन कृष्ण से शुक्ल पक्ष करके 78ईस्वी में राजा कनिष्क नये सिरे से जारी किया है।शायद ऐसा इसलिए किया गया है कि महीनो का नामकरण पूर्णिमा के दिन वाली नक्षत्रो के आधार पर किया जाता है।इसलिए महीनो की शुरुआत भी शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से की गयी हो । आगे चलकर भागवत पुराण की कथा का यह प्रसंग भी जुड़ गया कि इसी दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि की आरम्भ किया। इस संबध में विद्वानो का संदेह है कि प्राचीन काल में जब यह कलैंडर था ही नहीं तो इससे ब्रह्मा की सृष्टि का दिन कैसे निश्चित किया जा सकता है।फिलहाल यह आस्था और मान्यता का विषय ।

राष्ट्रीय शकसंवत्- भारतीय गणराज्य के गठन के पश्चात भारतीय पर्व-त्यौहारो के निर्धारण में ईस्वी सन् से समस्या होने लगी। इसलिए भारतीय कलैण्डर की आवश्यकता महसूस हुई।भारत में प्रचलित अनेक कलैण्डरों में ईस्वी के समामन्तर शक संवत् सिद्ध हुआ जिसे अधिक स्पष्ट प्रायोगिक बनाने के लिए प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. मेघनाद साहा की अध्यक्षता में ज्योतिर्विदो-वैज्ञानिको की एक समिति गठित की गयी।जिसके द्वारा संशोधित शकसंवत्पंचांग तैयार किया गया।जिसे सरकार द्वारा 21 मार्च 1957 (1 चैत्र 1879 शक) को राष्ट्रीय शकसंवत-पंचांग घोषित किया गया । राष्ट्रीय पंचांग मे 365.2422 दिनों का एक वर्ष होता है।वर्ष की गणना सूर्य के विषुवत रेखा पर होने के दिन (21)22 मार्च (लीप यानी लोंद वर्ष में 21 मार्च) से किया जाता है। इस दिन रात-दिन बराबर होते है।वर्ष के दूसरे से लेकर छठे महीनों में 31 दिन होता है। शेष सातवें से बारहवें महीने 30 दिन के होते है। लीप-वर्षों में पहला महीना चैत्र 31 दिन का होता है। राष्ट्रीय शक संवत् में भी लीप-वर्ष,ग्रेगोरी कैलेंडर में लीप-वर्ष मे ही होता है। दिन का आरंभ अर्धरात्रि से माना जाता है।राष्ट्रीय पंचांग उज्जैन के अक्षांश (23 डिग्री 11') और ग्रिनिच के 5 घंटा 30 मिनट पूर्वी देशांतर 82 डिग्री 30') के लिए बनता है। इनके महीनो का नाम चैत्र, वैशाख,जेष्ठ,आषाढ़,श्रावण आदि विक्रम संवत के ही अनुसार रखा गया है। शक व विक्रम संवत् का नववर्ष- शकसंवत् के बाद विक्रम संवत की चर्चा के पहले दोनो संवतो के आरम्भ होने के दिन के संबंध मे चर्चा करनी आवश्यक है,क्योकि इसके विषय में आम लोगो के साथ ही विद्वानों में भी भ्रम है।जैसा की शक संवत् के प्रसंग में विवरण दिया गया है कि शकसंवत् की शुरुआत चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होती है। जबकि शकसंवत से 135 वर्ष पहले शुरु होने वाले कृत या विक्रम संवत् की गणना चैत्रकृष्ण प्रतिपदा से ही की जाती है।

लोकपरम्परा भी यही रही है।इस दिन को होली,फगुआ,मदनोत्सव,फाग आदि के रुप में मनाने का प्राचीन परम्परा रही है। शक व विक्रम संवत् के प्रचलन से पहले प्राचीन शैवागम ग्रंथ वर्ष क्रिया कौमुदी मदनोत्सव से नये की शुरुआत करने का संकेत मिलता है।इस प्रकार लोक मानस व शास्त्र-ज्योतिष गणना के अनुसार कृत या विक्रम संवत् का नववर्ष होली का पर्व ही है। इसकी परम्परा आज भी जारी है पर विविध पौराणिक कथाओं के प्रसारित होने के कारण उसके अर्थ व मायने बदल गये है।इधर कुछ वर्षो में जनसंचार माध्यमो का प्रसार के कारण यह वैज्ञानिक तथ्य बिल्कुल ही खो चुका है,जबकि भोजपुरी क्षेत्र के गाँवो में आज भी नये वर्ष के रुप में कमोबेस यह परम्परा जारी है।अब भी यह कहते लोग मिल जाते कि “फागुन बीत गया,साल का पहला दिन फगुआ भी खुशी के साथ बीत जाये तो बहुत बड़ी बात है। इसके मनाने का प्रक्रिया यह बड़ी रोचक और सांस्कृतिक है। वसंत पंचमी(माघ शुक्ल पंचमी) अर्थात संवत् वर्ष के समाप्त होने के 40 दिन पहले हरे बाँस या एरण्ड का पेड़ में तीसी का पौधा बाँध कर नगर या गाँव के दक्षिण दिशा में गाड़ा जाता है।इसे भोजपुरी में सम्हत गाँड़ना कहते है,सम्हत्, संवत् शब्द का तत्भव व देशज उच्चारण है। जिसे अब नगरो में होलिका कहा जाने लगा है।होलिका नाम वृन्दावन के पश्चिम में प्रचलित था ।वैदिककाल में होलिका का तात्पर्य होला-होरहा(अधभुना कच्चाअन्न) से था पर पौराणिककाल मे यह प्रहलाद की बुआ होलिका के नाम से जाना जाने लगा।इसके बाद फागुआ गीत(वसंत) 40 दिन तक गाया जाता है।वर्ष के अंतिम महीने, फाल्गुन के अंतिम दिन पूर्णिमा को उत्सव के साथ सम्हत(संवत्)जला कर पुराने संवंत को समाप्त किया जाता है। पुराना संवत् बीतने के साथ ही आपसी ईर्ष्या-द्वेष,झगड़े – विवाद,दुख को जला मान कर दूसरे दिन चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को नवसंवतवर्ष की शुरुआत को हर्षोल्लाल के साथ फगुआ पर्व के रुप में मनाया जाता है।

विक्रमसंवत्- उपरोक्त वर्णित सभी कलैंडर राज-काज के लिए सुविधाजनक है,परन्तु विक्रम कलैण्डर प्रकृति के क्षण-क्षण बदलते स्वभाव का मापन करने में सक्षम है। इसकी रचना इस तरह की गयी है कि वैद्य की तरह प्रकृति के नब्ज को पहचान करता है।इसकी विशेषता यह है कि पर्वो के अतिरिक्त खेती-किसानी,वर्षा,ठंडी,गर्मी,आँधी-तूफान, सूखा, बाढ, मौसम, ऋतुओं,जलवायु आदि सभी का संकेत भी मिलता है ।जिन्हे जानने के लिए आज भारी-भरकमयंत्रो का प्रयोग किया जाता है।

ज्योर्तिग्रंथो के अनुसार विक्रम संवत को उज्जियिनी के राजा विक्रमादित्य ने 57 ई.पू. आरम्भ किया था,परन्तु इतिहासविदों में इस संदर्भ में विवाद है। यह शकराजाओं के पराजित करने वाले विक्रमादित्य नहीं हो सकते है क्योकि शको की पराजय दूसरी ईस्वी शताब्दि में हुई थी।इसके 135 वर्ष पहले विक्रम कलैण्डर जारी हो चुका था।इसे पहले कृतसंवत के नाम से जाना जाता था। 8वी.9वी शताब्दी में उसे विक्रम संवत् कहा जाने लगा। मूलतः इस कलैण्डर के वास्तविक रचनाकार प्रसिद्ध खगोलशात्री आचार्य वाराहमिहिर है,जो विक्रमादित्य दरबार के नवरत्नो मे से एक थे।

भूमण्डलीय प्रकृति का मापन-विक्रम संवत् की कालगणना भूमण्डलीय प्रकृति के व्यवहार का मापक पैमाना है।जिसकी गणना विधि सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र,राशि(तारामण्डल) के गति पर आधारित है।इसमे सौर वर्ष तथा चन्द्र वर्ष के रुप मे एक साथ दो वर्षो की गणना की जाती है,जिन्हे समायोजित-विश्लेषित करके शीत-ताप-जलवायु के परिवर्तनों की अनुमान किया जाता है। जिससे वर्ष,मौसम,ऋतु,माह,पक्ष,सप्ताह,दिन,घटी,पल,सूर्योदय,सूर्यास्त की गणना व वर्ष, शीत, ताप, वर्षा, ग्रहण, आँधी, तूफान, बाढ़, सूखा, ठीक-ठीक अनुमान संभव होता है। प्रकृति के बदलाओं को सूक्ष्मता से पहचान करने के लिए सूर्य,चन्द्र,पृथ्वी की गति को। तारों,तारासमूहों(राशियो) के माध्यम से चिन्हित किया गया है।नक्षत्रो का संबंध चन्द्रमा की गति से है,राशियों का सूर्य से है। पृथ्वी का पर्यावरण व शीत-ताप-वर्षा के समय का निर्धारण पृथ्वी,सूर्य,चन्द्रमा की गति व स्थिति पर ही निर्भर करती है ।

ताप(अग्नि) का कारक सूर्य तथा शीत(जल)चन्द्रमा है,ताप व शीत के संयोग से वायु की उत्पत्ति होती है।पृथ्वी पर जीवन का कारण अग्नि-जल-वायु का योग है।यही तत्व मानव शरीर के कारक भी है।इसीलिए कहा गया है “यत्पिण्डे तद्ब्रह्माण्डे” अर्थात जो शरीर(पिण्ड) में है वही ब्रह्माण्ड में है।चन्द्रमा के पृथ्वी,पृथ्वी के सूर्य की परिक्रमा के कारण पृथ्वी पर भिन्न-भिन्न समय पर भिन्न-भिन्न कोणों से भिन्न-भिन्न प्रभाव वाली सूर्य-चन्द्र की किरणें पड़ती है।सूर्य का ताप और चन्द्र का शीत विविध अनुपात मे पृथ्वी के विभिन्न हिस्सों मे विविध अनुपात में पड़ता पड़ता है।इसी कारण पृथ्वी के विभिन्न हिस्सो में विविध रुप-रंग,अकार-प्रकार के जीव-जन्तु- वनस्पतियाँ व मानव की उत्पत्ति हुई है ।इसी के आधार पर मानव की जीवनशैली विकसित होती है।जिसे विविध संस्कृतियों के नाम से जाना जाता है। इसे स्पष्ट करते हुए कह सकते है कि प्रकृति के सीमांकन और नामांकन को संस्कृति कहते है।

गणना पद्धति

वर्ष-सूर्य के सापेक्ष पृथ्वी 365.58अंश के अण्डाकार मार्ग पर परिभ्रमण करती है,परन्तु जटिल गणना पद्धति को सहजता से समझने के लिए 360 अंश तथा 360 दिन मान सकते है। इस पथ पर 1अंश गति करने पर एक दिन होता है।जिसके अनुसार 365.58 अंश का मार्ग पूरा करने में 365दिन 5 घंटे 8मिनट का समय लगता है जिसे एक वर्ष कहते है।इसकी गणना चैत्र कृष्ण पक्ष के पहले दिन से शुरु कर फाल्गुन पूर्णिमा को पूरी होती है।

अयण- इसका तात्पर्य अर्ध वर्ष से है।पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करते समय अपने अक्ष पर 23.4 अंश झुकी रहती है।यह झुकाव क्रमशः उत्तरी-दक्षिणी ध्रुव की ओर 182.79-182.79 अंश की यात्रा तक होता है। अर्थात यह झुकाव एक ओर 182.79-182.79 दिन (6-6 महीने) का होता है।इस तरह पृथ्वी का परिक्रमण मार्ग दो भागो मे विभाजित हो जाता है।उत्तरी ध्रुव के झुकाव काल को उत्तरायण तथा दक्षिणी ध्रुव के झुकाव के दक्षिणायण काल कहते है।सूर्य की लम्बवत् किरणें उत्तरायणकाल में मकर रेखा पर तथा दक्षिणायण काल मे कर्क रेखा पर पड़ती है।अक्षीय झुकाव के कारण उत्तरायनकाल में क्रमशः दिन बड़े,रातें छोटी होने लगती है।इसके विपरीत दक्षिणायन काल में दिन छोटे व रातें बड़ी होने लगती है ।उत्तरायणकाल सूर्य प्रभावित अर्थात क्रमशः उष्णता (पृथ्वी के ताप)के बढ़ने का समय होता है।आयुर्वेद के अनुसार यह रसो का शोषक काल होता है।इस समय बल का क्षय होता है।यह आदान(ध्वंश काल) कहलाता है,इसके विपरीत दक्षिणायनकाल चन्द्रमा प्रभावित काल अर्थात क्रमशः शीत (पृथ्वी की नमी) के वृद्धि का समय होता है।इसे विसर्ग (सृजन) काल कहते है।इस समय रसो का पोषण तथा बल का संचय होता है।

नवरात्रि काल-ऋतुओं के बदलाव में एक बिन्दु ऐसा भी आता है जब ठंडक-गर्मी-वर्षा का परिवर्तन तेजी से महसूस होने लगता है।इस स्थिति को निश्चित करने के लिए पृथ्वी परिक्रमा पथ को 91.395-91.395 अंश में बाँटा जाता है,इसे नवरात्रि कहा गया है।वर्ष मे चार नवरात्रि होते है। जो क्रमशः चैत्र शुक्ल,अषाढ़शुक्ल आश्विनशुक्ल,माघ शुक्ल में पड़ते है ।चैत्र से तेज गर्मी,अषाढ़ से वर्षा,आश्विन से ठंडी,माघ से सुखद गर्मी की शुरुआत होती है।यह काल ऋतुओं का संक्रमणकाल या ऋतुसंधिकाल होता है।इसीलिए पर्व (गाँठ) कहा गया है।इस समय तापक्रम तेजी से बदल रहा होता है। यह पृथ्वी का सर्जनात्मक काल होता है।अनेक वनस्पतियों, जन्तुओं के प्रजनन हेतु अनुकूल समय होता है। इस समय तेजी से बदलते तापक्रम व नमी से शरीर का तादात्म न बन पाने के कारण अस्वास्थ्य का खतरा अधिक होता है।इसलिए नवरात्रि काल में व्रत-उपावास,संयम-शुचिता,स्वच्छता का पालन करते हुए प्रकृति पूजा-ध्यान की परम्परा विकसित हुई है ।

यह परम्परा किसी न किसी रूप मे पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में है।चैत्र-आश्विन की नवरात्रियों में नमी-ताप परिवर्तिन अधिक स्पष्ट होने के कारण अधिक प्रचलित है।अषाढ़-माघ का परिवर्तन अतिसूक्ष्म होता है,इसलिए इसका लोकप्रचलन कम है,इसे विशेष तांत्रिक सम्प्रदाय द्वारा मनाया जाता है।

ऋतुएं- प्रत्येक अयणकाल शीत-ताप के अनुसार दो-दो माह के तीन खण्डो मे विभाजित

होता है,जिससे 6 ऋतुओं की पहचान होती है। इसके लिए पृथ्वी के परिक्रमण मार्ग को

लगभग 60.93-60.93अंश पर विभाजित किया जाता है।इस तरह प्रत्येक अयण मे 60.93-

60.93 दिन अर्थात दो-दो मास की 3-3 ऋतुएँ निर्धारित की गयी है।।उत्तरायण काल की तीन

ऋतुओं शिशिर,बसंत,ग्रीष्म कहते है ।इनका स्वामी सूर्य होता है इसलिए इसे सूर्यायण भी

कहते है ।इन ऋतुओं में क्रमशः नमी घटती है तथा ताप(गर्मी) बढ़ता है। दक्षिणायन काल की

वर्षा,शरद,हेमंत ऋतुओं में क्रमशःताप घटने लगता है तथी नमी(शीत) बढ़ने लगती है। इनका

स्वामी चन्द्रमा से होता है इसलिए इसे चन्द्रायन भी कहते है शीत-ताप के बढ़ने-घटने से

वायुमंडल के स्वरूप व प्रवृति में बदलाव होता है जिसका प्रभाव सम्पूर्ण जीव जगत पर पड़ता

है ।देश-काल के अनुसार विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों के अंकुरण व नष्ट होने की प्रक्रिया पूरी

होती है।विभिन्न जन्तुओं व वनस्पतियों के जन्म व मृत्यु का चक्र पूरा होता है।इस तरह पृथ्वी

के जैव विविधता चक्र का निर्माण होता है । प्रकृति के इस तीव्र बदलाव से समायोजन के

अभाव मे मनुष्य अनेक रोगों के चपेट में आ जाता है ।जिससे बचने के लिए आयुर्वेद में

ऋतुचर्या का उल्लेख है।जिसमें बताया गया है कि किस ऋतु में कैसा आहार-व्यवहार करना

चाहिए।

मास-पृथ्वी परिपथ को 30.465-30.465अंश पर विभाजित कर 1 मास निश्चित किया गया

है,इसलिए एक मास मे लगभग30दिन माने जाते है,यह मानक स्थिति है,वास्तविक स्थिति के

लिए महीनो में दिनो की संख्या घटती-बढ़ती रहती है।

दिन-एक दिन मे पृथ्वी लगभग1 अंश की यात्रा करती है।यह एक दिन होता है जो दिन रात

मिलाकर औसतन 24 घंटे का होता है। इतने समय मे अपने पृथ्वी अपने अक्ष पर एक बार घूम

जाती है।इसी कारण 24 घंटे में रात-दिन होते है,जो हिस्सा सूर्य के सामने होता है वहाँ दिन

होता है जो हिस्सा सूर्य के सामने नहीं पड़ता है उस हिस्से में रात होती है।

वर्ष से दिन तक का यह सामान्य मानक है।परन्तु प्रकृति के सूक्ष्म परिवर्तनो को पहचाने के

लिए यह पर्याप्त नहीं है।इसके लिए विक्रम संवत् में दो तरह के वर्ष निश्चित किये गये है,जिसे

एक साथ समायोजित-विश्लेषित कर प्राकृतिक संकेतों को समझा जाता है।एक सौरवर्ष,दूसरा

चन्द्रवर्ष कहलाता है।सौरवर्ष की गणना सूर्य केन्द्रित तथा चन्द्रवर्ष चन्द्र केन्द्रित होती है ।

सौरवर्ष- सौर वर्ष में पृथ्वी के परिक्रमण मार्ग 365.58 अंश के अनुसार 365 दिन 5घंटे

8मिनट का होता है।इतने दिनों में पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करते हुए 12 तारासमूहों(राशि) से

गुजरती है।ये तारासमूह पृथ्वी से देखने पर विभिन्न जीव-जन्तुओं के आकृति जैसे दिखते

है।इसी आधार पर इनका नामकरण किया गया है।पृथ्वी को एक तारा समूह(राशि) से दूसरे

तारा समूह(राशि) तक पहुँचने में 28 से 31 दिन का समय लगता है। जिस राशि के बीच

जितने अंश की दूरी होती है उतना समय लगता है। राशियो के क्षेत्र में प्रवेश (संक्रमण) करने

का काल संक्राति कहलाता है।इन महीनो का नाम इन्ही तारासमूहों (राशियों) के नाम पर

क्रमश मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह,कन्या,तुला,वृश्चिक,धनु, मकर, कुम्भ, मीन,है। राशि का

तात्पर्य तारों के समूह या ढेर से है।पृथ्वी, सूर्य,चन्द्र का परिक्रमण मार्ग इन्ही तारा समूहो से

चिन्हित होता है ।

सौर मास की गणना मेष राशि से आरम्भ होती है,क्योकि यह अत्यधिक स्थिर

राशि(तारासमूह) है। मेष राशि से गुजरते हुए पृथ्वी जब सूर्य का संक्रमण करती है तो इसे मेष

संक्रांति कहते है।ईस्वी कलैण्डर के अनुसार प्रत्येक वर्ष 14-15 अप्रैल को मेष मे संक्रमण होता

है।इस दिन पहला सौर मास का पहला दिन होता है। विक्रम संवत का सौर वर्ष ईस्वी सन् से

काफी हद तक मेल खाता है क्योकि दोनो के गणना का आधार सूर्य केन्द्रित होता है।दोनो मे 1

माह 28/29 दिन,7 माह 31 दिन तथा 4माह 30 दिन के होते है। परन्तु विक्रम संवत में इसके

साथ ही चन्द्र वर्ष की गणना को भी शामिल किया जाता है यही इसे ईस्वी कलैंडर से अलग

करता है।

चन्द्रवर्ष एवं मास -पृथ्वी पर मौसम परिवर्तन,ऋतुओं,पक्ष,सप्ताह,दिन-रात,शीत-ताप का

निर्धारण चन्द्रमा की गति एवं स्थिति की गणना से किया जाता है,क्योंकि पृथ्वी के

वातावरणीय परिवर्तनों का कारक उसका उपग्रह चन्द्रमा है ।इसलिए चन्द्रमा की गति को

केन्द्रित कर चन्द्रवर्ष निर्धारण किया गया है । वेदांग ज्योतिष विधि से एक चन्द्रमास शुक्ल

पक्ष के पहले दिन(प्रतिपदा) शुरु होकर अमावस्या को पूरा होता है।इसके विपरीत सूर्यसिद्धांत

ज्योतिष पद्धति से एक चन्द्रमास की गणना कृष्णपक्ष के पहले दिन से शुरु होकर पूर्णिमा को

पूरा होता है।शकसंवत में वेदांग ज्योतिष के अनुसार मास और वर्ष शुरु होता है,इसलिए

नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है।कृत या विक्रम संवत् में सूर्यसिद्धान्त माना जाता है

इसलिए इसका नववर्ष चैत्र कृष्ण पक्ष से शुरु होता है।

पृथ्वी की परिक्रमा करने में चन्द्रमा को 29.53 दिन का समय लगता है। सूर्य की परिक्रमा में

354.37 दिन का समय लगता है।सूर्य की परिपथ को पृथ्वी से विभाजित करने पर 12

चन्द्रमास होते है। इस तरह 12 चन्द्र मासों का एक चन्द्र वर्ष होता है।चन्द्र वर्ष की अवधि

लगभग 29.53 x 12 = 354.37 दिन होती है।चन्द्र वर्ष की गणना हिजरी

कलैण्डर,स्काटलैण्ड,व चीन में भी की जाती है।

नक्षत्र-पृथ्वी व चन्द्रमा के परिक्रमण मार्ग में तारासमूह मील की तरह होते है। ।जिन्हे नक्षत्र

कहा गया है ।आकाश मण्डल में ज्ञात 88 नक्षत्र है,परन्तु चन्द्रमा केवल 27 नक्षत्रों से ही

गुजरता है।नक्षत्रों को चन्द्रमा की पत्नियाँ कहा गया है,जिन्हे कृत्तिका, रोहिणी, मृगशीर्ष,

आर्द्रा, पुनर्वसू, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्तचित्रा, स्वाति,

विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, अभिजित,श्रवण, घनिष्ठा, शतिषा,

पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा,रेवती,अश्विनी,भरिणी नाम दिया गया है ।पृथ्वी,चन्द्र या कोई

अन्य ग्रह किस समय कहाँ है यह नक्षत्रों के माध्यम से ही जाना जाता है ।

पक्ष-चन्द्रमा को पृथ्वी से दिखने के समय को 1 से 15 दिन का पक्ष माना जाता है।चन्द्रकला

के वृद्धि क्रम के 15 दिन शुक्ल पक्ष तथा घटते क्रम के 15 दिन का कृष्ण पक्ष होता है ।कृष्ण

पक्ष का अंतिम दिन अमावश्या तथा शुक्ल पक्ष का अंतिम दिन पूर्णिमा कहलाता है । चन्द्रमा

के सूर्य से 0 से 12 अंश पर होने से प्रतिपदा शुक्ल(शुक्ल पक्ष का पहला दिन) होता है,इस

क्रम में पूर्णिमा को 180 अंश पर पहुँच जाता है ।यहाँ से घटते क्रम में चलते हुए अमावस्या के

दिन 0 अंश पर आ जाता है। इस प्रकार महीने की गिनती दो खण्डों में की जाती है। पूर्णिमा के

दिन जिस नक्षत्र में चन्द्रमा होता है उसी नक्षत्र के नाम पर उस महीने का नामकरण किया

गया है। पूरे वर्ष में चित्रा, विशाषा, जेष्ठा,उत्तराषाढ़ा,श्रावणी,भाद्रपद,अश्वनी, कृतिका,

मृगशिरा,पुष्य,मघा,उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रों में चन्द्रमा की पूर्णिमा होती है।इसलिए महीनो का

नाम क्रमशः चैत्र,वैशाख,जेष्ठ,अषाढ़. श्रावण,भाद्रपद,आश्विन,कार्तिक,मार्गशीर्ष,पूष,माघ,

फाल्गुन है। यहाँ यह भी ध्यान देना आवश्यक है पृथ्वी के परिक्रमा मार्ग में भी नक्षत्र पड़ते है

।एक नक्षत्र में पृथ्वी औसतन 13.33 दिन रहती है। इसीलिए चन्द्रमा इतने ही दिन दिखता है

।अमावस्या व प्रतिपदा को चन्द्रमा नहीं दिखायी देता है ।शुक्ल पक्ष के दूसरे व कृष्ण पक्ष के

14वें दिन भी नाम मात्र का दिखता है।

चन्द्रमा को सूर्य परिक्रमण मार्ग पर 27 नक्षत्रो से गुजरने में 27.3 से 28 दिन का समय

लगता है। पृथ्वी को अपने अक्ष पर घूमनें मे भी 27.3 से 28 दिन का ही समय लगता है।

परन्तु अब आधुनिक खगोलीय अध्ययन में यह पाया गया है कि सूर्य-चन्द्र के ज्यामितिय योग

के कारण पृथ्वी की परिक्रमा करने मे चन्द्रमा को 29.5दिन(709घंटे) लगता है। इसलिए

अभिजित नाम से एक आभासी नक्षत्र जोड़कर इस गणना त्रुटि को सुधार किया गया है।

चन्द्र द्वारा सूर्य परिक्रमण पथ पर एक नक्षत्र से गुजरने का समय ही एक दिन(तिथि) होता है ।

चन्द्रमा के अस्थिर गति के कारण यह समय प्रत्येक नक्षत्र में हमेशा एक समान नहीं होता है

।एक नक्षत्र से गुजरने में 19 से 24 घंटे का समय लगता है ।इसलिये एक दिन का मान 19 से

24 घंटे तक हो सकता है।कभी-कभी एक नक्षत्र पार करने में 2 दिन का भी समय लग जाता है

या एक ही दिन में दो नक्षत्रों को पार कर जाता है।इसलिए गणना में दिनो (तिथियाँ) की

क्षय-वृद्धि होती रहती है इसके बावजूद 27 से 30 दिन में सूर्य की एक परिक्रमा अर्थात

महीना पूरा हो जाता है ।महीने के वास्तविक गणना को नक्षत्र मास भी कहते है।

दिन-रात्रि मान- चन्द्रमा द्वारा पृथ्वी के परिक्रमण मार्ग पर12अंश गति करने के समय को

अहोरात्रि कहते है।आधुनिक समय मानक में यह 24 घंटे होता है।इस गति मे 6-6 अंश का

अर्थात 12-12 घंटे का दो भाग होता है जिसे करण कहते है।पूर्वार्ध करण दिनमान तथा

उत्तरार्ध करण रात्रिमान होता है। इस 12अंश की गति (एक अहोरात्रि) में एक राशि से

गुजरते समय चन्द्रमा 2.25 नक्षत्र को पार करता है ।एक करण को 2 भाग (6/2) में

विभाजित कर 3 लग्न निर्धारित किया जाता है। इसी तरह अहोरात्रि (नक्षत्रवास काल 24अंश)

को 4 चरण (24/4) 6 लग्न निर्धारित होता है।अर्थात 3 लग्न दिन तथा 3 लग्न रात्रि में होते

है।लग्न का मान घंटे होता है। प्रत्येक लग्न का दो भाग कर एक होरा निश्चित करते है। जो

आधुनिक समय मान के अनुसार 1 घंटा है ।एक होरा में 2.5 घटी(60 मिनट) होती है ।1 घटी

24 मिनट के बराबर होता है ।1घटी मे 60 पल होता होता है,1पल (24 सेकेंड)में 60

विपल,1 विपल(.4 सेकेंड)में 60 प्रतिविपल,1 प्रतिविपल में 225 त्रुटि होती है ।

दिनो का नामकरण- दिनो का नामकरण होरा के आधार पर किया गया है ।सौर मंडल

का केन्द्र सूर्य है।जिसकी परिक्रमा करते ग्रहों की कक्षाएँ क्रमशः प्रथम-कक्षा बुध,दूसरी कक्षा-

शुक्र,तीसरी कक्षा-पृथ्वी(चन्द्रमा),चौथी कक्षा-मंगल,पाँचवी कक्षा-वृहस्पति, अन्तिम कक्षा

शनि की होती है।इस प्रकार सूर्य को मध्यबिन्दु मानकर गिनने पर पृथ्वी(चन्द्रमा) के दोनो ओर

3-3 ग्रह होते है।अर्थात सूर्य के सापेक्ष कुल 6 ग्रह होते है,इस गणना में सूर्य को भी एक ग्रहराज

माना जाता है।इस तरह सात ग्रहो पर सप्ताह में सात दिन होते है।ये ग्रह प्रत्येक होरा (प्रति

घंटे)क्रमशःघूमते रहते हैं।।जिनकी गणना सूर्योदय काल से करने पर 24 घंटे की अहोरात्रि में

21 घंटे में सातो ग्रह 3 बार गुजर जाते है।चौथे चक्र में 3 ग्रह गुजरने के बाद फिर सूर्योदय हो

जाता है।अर्थात 25वें घंटे में पुनः सूर्योदय हो जाता है इस 25 वें घंटे मे जिस ग्रह का होरा

होता है उसी ग्रह के नाम के नाम पर दिन का नाम रखा गया है।

इस तरह प्रकृति के सूक्ष्मतम गति को पकड़ने- पहचानने का सफल वैज्ञानिक प्रयास

किया गया है ।इसीलिये विक्रम कलैण्डर की गणना से महीनों व ऋतुओं के मौसम का

अध्ययन-अनुमान संभव है ।प्रत्येक माह,दिन व पल-क्षण के तापक्रम व नमी को समझने के

लिए चन्द्रमा के नक्षत्रों से गुजरने की स्थिति का अध्ययन किया जाता है।

अधिमास या मलमास- सौरवर्ष व चन्द्रवर्ष में 11 दिन 3 घंटे 48 मिनट का अन्तर होता

है ।यह अन्तर बढ़ते-बढ़ते तीसरे साल ऐसा होता है कि दो अमावस्या के बाद पुर्णिमा तो होती

है पर संक्रान्ति नहीं होती है अर्थात सूर्य के सापेक्ष पृथ्वी किसी राशि में प्रवेश नहीं करती

है,इस एक चन्द्रमास को चन्द्रवर्ष के 12 महीनों से गणना से बाहर कर दिया जाता है । इसे

अधिमास (मलमास-गणनात्मक अशुद्धि मास) कहा जाता है ।

शक व विक्रम संवतो के संदर्भ मे एक ऐतिहासिक तथ्य यह है कि यह एक दिन या किसी

एक शासक के काल में नहीं बनाया गया।कालगणना की प्रक्रिया अनादिकाल से चली आ रही

है। जिसका मौलिक स्रोत लोक अनुभव है।आम लोग प्रचीन काल में वनस्पतियों के प्राकृतिक

रुप से उगने,फूलने,फलने के आधार पर समय की पहचान किया करते थे।आज भी

झारखण्ड,मध्य भारत के आदिवासी समुदाय में मार्च माह मे ही सरहुल के पेड़ में फूल आने पर

सरहुल नामक नववर्ष पर्व मनाया जाता है।कालान्तर में प्रकृति के चिन्हो को पहचान कर

प्रबुद्ध विद्वानो में गणना करने का प्रयास किया,जो विभिन्न कालखण्डो में प्रचलित रहे,जिसमे

क्रमिक सुधार कर नये कलैण्डरो,संवतो की रचना संभव हुई।पूर्व प्रचलित सप्तर्षि,कलिआदि

पंचांगो के आधार पर विक्रम संवत् की रचना की गयी है ।इसके पूर्व सौर तथा चन्द्र कलैण्डर

की अलग-अलग गणना की जाती थी।इसीलिए आज भी बहुत सा क्षेत्रो में नववर्ष पर्व सौर

संवत के अनुसार वैशाखी को ही मनाया जाता है। विक्रम काल में सौर व चन्द्र वर्ष को एक

साथ समायोजित कर कृतसंवत की रचना की गयी जो आगे चल कर विक्रम संवत् के रुप में

जाना गया। वर्तमान में विक्रमसंवत-शकसंवत्,सप्तर्षि संवत्.कलिसंवत आदि सभी विक्रम

संवत् में समाहित हो चुके है।

वर्षा-सूखा-बाढ़ आदि का अनुमान- विक्रमसंवत् की गणना से वर्षा-सूखा,बाढ़ आदि

का अनुमान भी लगाया जाता है।इसका संकेत नक्षत्रो से प्राप्त किया जाता है। इसको निश्चित

करने के लिए एक लम्बा समय लगा होगा।उदाहरण के वर्षा का अनुमान दिया जा रहा

है।आर्द्रा से 10 नक्षत्र स्त्रीलिंग मानी जाती है,विशाषा से तीन नक्षत्र नपुँसक मानी जाती

है।मूल से 14 नक्षत्र पुलिंग मानी जाती है।यदि स्त्री-पुरुष नक्षत्र में पृथ्वी,सूर्य-चन्द्र की गति

होतो अधिक वर्षा,स्त्री-नपुंसक होतो कम वर्षा,स्त्री-स्त्री होतो केवल बादल,पुरुष-पुरुष नक्षत्र

होतो सूखा का संकेत मिलता है।ऐसा वास्तव में देखा जाता है।

विविध भारतीय नववर्ष पर्व -अब जहाँ तक नववर्ष मनाने का प्रश्न है तो भारत के

विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग महीनों मे नववर्ष मनाया जाता है जैसे उत्तर-मध्य भारतीय

नववर्ष की चर्चा की चुकी है,पर चैत्र माह में ही उगादी-उगाड़ी नाम से तेलगु-कन्नड़,(आन्ध्र-

तेलंगाना,कर्नाटक)में होली के दिन मनाया जाता है। मराठी मे गुड़ीपड़वा चैत्र शुक्लप्रतिपदा

के दिन तथा केरल में मलयालम संवत कोलामवर्षम के प्रथम माह छिंगम् के पहले दिन मनाया

जाता है,यह ईस्वी कलैण्डर के अनुसार अगस्त के अंतिम या सितम्बर के पहले सप्ताह में पड़ता

है। गुजराती संवत् में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा(दीवावली)के दिन, बंगाल मे वैशाख के कृष्ण

प्रतिपदा के दिन,पंजाब में वैशाखी,असम मे रंगोली बीहू,तमिल मे पुथुरुषम,

मेषसंक्रांति(वैशाख-अप्रैल) को मनाया जाता है,तमिलनाडु मे मकर संक्रांति को भी पोंगल पर्व

को नये वर्ष के रुप मे मनाया जाता है।इसी,मणिपुरी,नागा,मिजो,जैन,बौद्ध आदि संस्कृतियो में

अलग-अलग नववर्ष मनाये जाते है।कालगणना के अलावा इसका प्राकृतिक कारण यह है कि

मानव शरीर के लिए सर्वाधिक अनुकूल तापक्रम 24 से 36 डिग्री का होता है ।इसी समय

प्रकृति के अनेक पेड़-पौधे,जीव-जन्तु भी स्वयं को प्रफुल्लित महसूस करते है ,इसलिए जहाँ

जिस महीने में ऐसा अनुकूल समय होता है वहाँ नववर्ष का आरम्भ मनाये जाने की परम्परा

है,परन्तु काल गणना के लिए सौर व चन्द्र कलैण्डर ही स्थानीय मौसम के अनुसार कुछ

बदलाव के साथ प्रयोग किये जाते है।इसीलिए बहुरंगी भारतीय संस्कृति दुनियाँ के लिए एक

आश्चर्य से कम नही है।

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