विकास दुबे एनकाउंटर : क़ानून का शासन स्थापित करना नितांत आवश्यक

(राम दत्त त्रिपाठी, राजनीतिक विश्लेषक)

लखनऊ. कानपुर के बिकरु में बीते 2 जुलाई की रात हुई भीषण मुठभेड़ में उत्तर प्रदेश पुलिस के सीओ समेत आठ पुलिसकर्मियों की शहादत हो गई थी। इसके बाद दुर्दांत विकास दुबे का उस समय कथित एनकाउंटर हुआ जब उसे मध्य प्रदेश में सरेंडर करने के बाद कानपुर लाया जा रहा था। पुलिसकर्मियों के मुताबिक कानपुर के भौंती के पास जिस गाड़ी में विकास दुबे बैठा था, वो दुर्घटनाग्रस्त हो गई। विकास दुबे ने भागने की कोशिश की, लेकिन मुठभेड़ में मारा गया।

 इसी मामले की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट ने एक न्यायिक जांच आयोग की स्थापना की है।  उम्मीद की जा रही है कि इस जांच आयोग की रिपोर्ट आने के बाद इसे पहले की तरह ठंडे बस्ते में नहीं डाला जाएगा। इस पर जल्दी से जल्दी अमल होगा और विधानसभा के अगले सत्र में ये रिपोर्ट पेश की जाएगी।

 विकास दुबे द्वारा पुलिसकर्मियों की जान लेना और पुलिस द्वारा उसे मुठभेड़ में मार गिराना पूरे मामले का एक पहलू है। दूसरा पहलू ये है कि राज्य नाम की जो संस्था है, वो प्रभावी है या नहीं है। जनता ने इसीलिए ये स्वीकार किया था कि वो राज्य सरकार को टैक्स देंगे, और राज्य सरकार की एजेंसीज के पास अस्त्र-शस्त्र हों ताकि विधि का शासन स्थापित हो, जंगलराज न हो। इसमे दो बातें जरूरी हैं – पहला कि एक विधि का शासन स्थापित हो दूसरा- जो भी  ग़लत करे उसे  विधि द्वारा स्थापित नियमों के आलोक सजा दी जाए  . आज की सबसे बड़ी जरूरत रूल ऑफ लॉ को स्थापित करने की है।

सुप्रीम कोर्ट ने भी यही कहा है कि रूल ऑफ लॉ को स्‍थापित करना राज्‍य सरकार की जिम्‍मेदारी है। अगर राज्‍य सरकार की एजेंसी खुद इसका पालन नहीं करेंगी और यह कहेंगी कि अदालत से सजा नहीं मिलती तो पुलिस ही सजा दे दे। तो यह गलत होगा। यह खतरनाक ट्रेंड है। लोग अपनी निजी दुश्‍मनी में पुलिस को सुपारी किलर की तरह इस्‍तेमाल करते हैं। इसलिए आज लोग यह महसूस कर रहे हैं कि जो यह प्रोसेस है, एफआईआर लिखने से लेकर तफ्तीश और पूरा जो जुडिशियल सिस्टम है, उसमें सुधार किया जाए।

इसमें यह भी एक पहलू आया है कि जो सीआरपीसी में संशोधन किया गया, एक्ज़ीक्यूटिव मजिस्‍ट्रेट की पावर कम की गई। जो पुलिस की पावर कम कर दी गई या राज्‍य सरकार अदालतों में वकील नियुक्‍त करती है, यह पूरा सिस्‍टम है। कई बार ऐसा देखने को मिला है कि जो पुलिस वाले किसी को इधर उधर से पकड लेते हैं, उन्‍हें कई बार फर्जी तरीके से चाकू रखकर चालान कर दिया जाता है। या गांजे या अफीम की पुडिया रखकर चालान कर देते हैं।इसे अदालतों पर केस का अनावश्यक  बोझ पड़ता है. 

यह आवश्‍यक नहीं होना चाहिए ट्रैफिक चालान जैसे  सारे केस ज्‍यूडिशियरी के पास जाएं। यह केस एग्‍जीक्‍यूटिव मजिस्‍ट्रेट भी निपटा सकते हैं। यह भी एक बहुत बड़ा सवाल है कि ज्‍यूडिशियरी के केस का जो बोझ है या जो उनका इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर है वो पुराना है। इसे ठीक करने की जरूरत है। इसके अलावा जो कानून में संशोधन करना हो या राज्‍य सरकार द्वारा उन कानूनों का पालन करना हो, जो पोस्टिंग से जुड़े हैं।

राज्‍य सरकार पर आरोप लगता है कि ट्रांसफर पोस्टिंग में राजनैतिक सिफारिश से लेकर पैसा तक चलता है, यहां तक कि कहा जाता है कि थाने तक नीलाम होते हैं, इसे रोकने की जरूरत है। गठजोड़ के खेल के चलते अपराधियों में दंड का भय खत्‍म हो गया है। गाजियाबाद में पत्रकार विक्रम जोशी की सिर्फ इसलिए हत्‍या कर दी जाती है क्‍योंकि उसके परिवार की एक लड़की के साथ छेड़खानी होती है और वह एफआईआर लिखाई थी।

इसलिए आज सबसे बड़ी आवश्‍यकता है कि जिस काम के लिए राज्‍य सरकार का गठन हुआ था, उसका पालन किया जाए। राज्‍य का गठन सड़क या खडंजा बिछाने के लिए नहीं हुआ था, राज्‍य का गठन हुआ था रूल ऑफ लॉ को स्‍थापित करने के लिए। ताकि जंगलराज न हो, गलत काम करने वालों को विधि द्वारा स्‍थापित विधिक प्रक्रिया के द्वारा सजा मिले। इसके लिए अगर राज्‍य सरकार को कोई संशोधन करने की आवश्‍यकता है तो वह करे या कानून बनाना है तो बनाए, लेकिन विधि का शासन स्‍थापित करे। इसके लिए जरूरी नहीं है कि जांच आयोग की रिपोर्ट का इंतजार करें।

ये पूरा मामला सिस्‍टम को सुधारने का है। यह पहल निर्वाचित सरकार को करनी पड़ेगी, भले ही वह ज्‍यूडिशियरी, पुलिस या अन्‍य स्‍त्रोतों से सुझाव लें। इसमें देरी न करें। इसमें देरी की वजह ही अपराधियों को आगे बढ़ाती है। यहां तक कि वह अपराधी सदन में जाकर बैठ जाते हैं। इसलिए हम उम्‍मीद करते हैं और अपील करते हैं कि केंद्र व राज्‍य सरकारें क्रिमिनल जस्टिस सिस्‍टम को और पूरी दंड प्रकिया की व्‍यवस्‍था को सुधारने के लिए कदम उठाएं।

 

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