सरकार ने अपने मालिक से मुँह फेर लिया
व्यवस्था में संवेदना नहीं दिखती
राम दत्त त्रिपाठी.लकनऊ
नीचे लगे विडियो को ध्यान से देखिए और सुनिए, क़ानून की किताबों में ये देश के मालिक और भारत भाग्य विधाता हैं . भारत की संप्रभुता इनमे निहित है. इनके पास सरकार बनाने और गिराने की ताक़त है.ये भाग्य विधाता हैं और राष्ट्र निर्माता भी. नून तेल, गैस ,अनाज , कपड़ा, मोबाइल और टीवी ख़रीदकर टैक्स भी देते हैं. इसलिए मत दाता के साथ कर दाता भी हैं. उसी से व्यवस्था चलती है.
इनके अपने घर गाँव , क़स्बे या ज़िले और प्रदेश में भी रोज़गार नहीं था. इसलिए मजबूरी में पापी के लिए घर से सैकड़ों मील दूर परदेस कमाने गए थे. कोरोना की महामारी का संकट आया तो सरकार के निर्देश का पालन करके ताली और थाली भी बजायी.
सोचा कुछ दिनों की बात है. लेकिन दिन महीनों में बदल गए. डाक्टर कह रहे हैं संकट लम्बा चलेगा. काम धंधा बंद हो गया. जमा पूँजी खर्च हो गयी. भूखों मरने की नौबत है. और झुग्गी झोपड़ी या भीड़ वाली जगह में रहने से कोरोना वायरस के संक्रमण का भी ख़तरा है.
गाँव घर में माँ बाप और परिवार अलग परेशान हैं. संकट में सब साथ रहना चाहते हैं. गाँव में अभी फसल कटी है खाना मिल जाएगा. बाग बगीचे में साफ़ हवा मिल जाएगी. सरकार से पुकार लगायी. हुज़ूर माई बाप रेल और बस खोलो. सरकार ने कहा फार्म भरो. तमाम लोगों ने वह भी भरा, लेकिन वे नहीं भर पाए, जिनके पास स्मार्ट फ़ोन नहीं है और अंग्रेज़ी नहीं आती. मज़दूरों के लिए यह नियम और फार्म बनाने वाले बुद्धिमान लोगों को खोजकर सार्वजनिक रूप से सम्मानित करना , क्योंकि उन्होंने अंग्रेजों को भी पीछे छोड़ दिया है.
बहरहाल, जब रेल और बस नहीं खुली तो सड़कों पर पैदल चल दिए. मगर सरकार ने वहाँ भी रोक लगा दी. पुलिस के डंडे भी पड़ने लगे.तब याद आया कि जिस “रेलिया बैरन” से शहर कमाने आए थे, उसका ट्रैक या पटरी तो है. चल पड़े, जान का जोखिम लेकर, भूखे प्यासे. औरंगाबाद में सोलह साथी ट्रेन से कुचल गए. कुछ रास्ते में दुर्घटना में मर गए और कुछ बीमारी से. फिर भी परिवार के पास तो जाना ही है. मरना ही है तो अपनी डेहरी पर मरें. जिस मिट्टी में पैदा हुए पले बढ़े, वहीं दफ़न हों या जलाए जाएँ.कुछ लोगों ने सामूहिक रूप से ट्रक कर लिया और सामान की तरह भर कर चल दिए. कई जगह रोके गए. पैसे भी वसूले गये. जिनके पास पैसा नहीं है उनकी मजबूरी है कि पैदल चलें. सड़क या रेल पटरी पर. वे रेल पटरी बेहतर समझते हैं, क्योंकि वहाँ पुलिस की रुकावट नहीं. हालाँकि गुजरात से आए एक वीडियो में एक पुलिस वाला रेल पटरी पर चल रही महिलाओं से भी रुपया झपट लेता है. ऐसे ही लोगों को कफ़न चोर कहते हैं. चुनाव रैली होती तो रेल, बस, जीप की सवारी, मिलती भोजन का पैकेट और कुछ रुपया भी. मगर अभी चुनाव नहीं है. होगा भी तो धार्मिक उन्माद फैलाने के लिए आई टी सेल दिन रात काम कर ही रहा है. कुछ मौलाना भी मदद करते रहेंगे.
बहरहाल, भारत के ये नागरिक, जिन्हें हम प्रवासी मज़दूर कहते हैं, करदाता भी हैं मतदाता भी. लेकिन इनके वोट से बनी सरकार और बिना भेद भाव न्याय करने के लिए संविधान की शपथ लेने वालों ने इनसे मुँह फेर लिया है.संविधान इनके नाम पर बना. सरकार इनके नाम पर चलती है.
लेकिन सत्ता के गलियारों में इनके पैरोकार नहीं बचे. इसलिए दुर्दशा है. जो लोकतंत्र के प्रहरी थे वे अब राजा की डुग्गी बजाना ही अपना कर्तव्य समझने लगे हैं. अब इन ग़रीबों की आवाज़ उठाने का जोखिम कौन लेना चाहेगा.