सरदार उधम सिंह के किरदार को परदे पर जीवंत करने में कामयाब रहे विक्की कौशल

विक्की कौशल की फिल्म सरदार उधम सिंह

सरदार उधम सिंह. एक इंसान नहीं, एक सोच है. इंकलाब है. क्रांति है. वो हमारे दिल में आजादी कायम रखने की एक मशाल है. जो दिन ब दिन, साल दर साल, दशक दर दशक सिर्फ बढ़ती जाती है. उनके सफर को दिखाना बहुत मुश्किल था लेकिन उन्होंने जो किया, वो नामुमकिन था. पर फिर भी हमारी इस छोटी सी कोशिश को जरूर देखिएगा, सिर्फ अमेजन प्राइम वीडियो पर. फिल्म में मुख्य ​भूमिका निभाने के साथ-साथ इसकी रिलीज से पहले उन्होंने फिल्म का एक प्रमोशनल वीडियो भी तैयार किया, जो न केवल भावुक करती हैं, बल्कि हमें फिल्म देखने के लिए प्रेरित भी करती हैं. एक नजर…

सुषमाश्री

जलियांवाला बाग. 13 अप्रैल 1919. इतिहास का एक ऐसा दिन, जिसे सुनकर रूह कांप उठती है और वहीं से इस इंसान का भी सफर शुरू हुआ, जिससे ब्रिटिश इंपायर की रूह कांप उठी. आंखों पर विश्वास नहीं हुआ, जब उन्होंने वह मंजर देखा. इतना बहता लहू उन्होंने शायद पहली बार ही देखा था पर फिर भी वो नहीं रुके. वो तब तक न रुके, जब तक उन्होंने हिंदुस्तान को ​इंसाफ न दिला दिया. पीछे मुड़ना अब उन्हें मंजूर नहीं था. गुलामी में जीना अब उन्हें मंजूर नहीं था. इसीलिए निकल पड़े अपने और लाखों हिंदुस्तानियों का हक मांगने. अब उन्हें न दुश्मनों की बोली रोकने वाली थी और न उनकी गोली. न किसी देश का शासक और न ही कोई शासन. …और जिसकी मंजिल दृढ़ हो उसके आगे तो रुकावटें भी अपना सिर झुका लेती हैं. सरदार उधम सिंह. एक इंसान नहीं, एक सोच है. इंकलाब है. क्रांति है. वो हमारे दिल में आजादी कायम रखने की एक मशाल है. जो दिन ब दिन, साल दर साल, दशक दर दशक सिर्फ बढ़ती जाती है. उनके सफर को दिखाना बहुत मुश्किल था लेकिन उन्होंने जो किया, वो नामुमकिन था. पर फिर भी हमारी इस छोटी सी कोशिश को जरूर देखिएगा, सिर्फ अमेजन प्राइम वीडियो पर.

16 अक्टूबर को प्राइम वीडियो ओटीटी प्लेटफॉर्म पर विक्की कौशल अभिनीत बायोपिक फिल्म ‘सरदार उधम’ रिलीज की गई. फिल्म आलोचकों और दर्शकों को खूब पसंद आ रही है. स्वतंत्रता संग्राम के महान सेनानी सरदार उधम सिंह की कहानी पर आधारित इस फिल्म के निर्देशक शुजित सरकार इसमें इरफान खान को लेना चाहते थे लेकिन ले न पाए. हालांकि, फिल्म देखने के बाद हर कोई विक्‍की कौशल के दमदार अभिनय के लिए उनकी तारीफ कर रहा है.

फिल्म में मुख्य ​भूमिका निभाने के साथ-साथ फिल्म रिलीज से पहले उन्होंने फिल्म का एक प्रमोशनल वीडियो भी तैयार किया, जो न केवल भावुक करती हैं, बल्कि हमें फिल्म देखने के लिए प्रेरित भी करती हैं. इस वीडियो में बोले गए विक्की कौशल के संवाद से ही हमने इस लेख की शुरुआत की है. आप चाहें तो यह वीडियो यहां देख भी सकते हैं. विक्की कौशल ने इसे अपने इंस्टाग्राम अकाउंट में पोस्ट भी किया था.

https://www.instagram.com/p/CVCiwNUIlio/

विक्‍की कौशल और शुजित सरकार की यह फिल्म ‘सरदार उधम’ अन्य देशभक्ति फिल्मों से कहीं आगे है, जो किसी व्‍यवस्‍था और हुकूमत के खिलाफ विरोध की असल सोच और शक्‍ल पेश करती है. यह फिल्‍म अंग्रेजी हुकूमत के नरसंहार, क्रूरता और राजनीतिक दमन के खिलाफ बदले की कहानी बयां करती है. जलियांवाला बाग हत्‍याकांड के बैकड्रॉप में यह सरदार उधम सिंह, भगत सिंह आदि की वीरगाथा और विश्‍वकल्‍याण के इरादों से बखूबी इंस्‍पायर करती है.

नेहरू के बारे में सरदार पटेल की राय

13 अप्रैल 1919, एक ऐसी तारीख जो इतिहास में दर्ज है और जिसे याद कर हर भारतीय का न सिर्फ खून खौल उठता है बल्कि आंखें भी नम हो जाती हैं. जी हां… साल 1919 का बैसाखी का वो दिन, जिस तारीख को जलियांवाला बाग नरसंहार हुआ था. दरअसल, 10 अप्रैल 1919 को रॉलेट एक्ट के तहत कांग्रेस के सत्य पाल और सैफुद्दीन किचलू को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया था, जिसके बाद 13 तारीख को पंजाब के अमृतसर में हजारों की तादाद में लोग एक पार्क में जमा हुए थे और दोनों (सत्य पाल और सैफुद्दीन किचलू) की गिरफ्तारी के खिलाफ शांति से आंदोलन कर रहे थे. इतने में जनरल रेजिनॉल्ड डायर शाम करीब साढ़े पांच- छह बजे वहां पहुंचा और अपनी फौज के साथ उस पूरे पार्क को घेर लिया. इसके बाद बिना कुछ कहे डायर ने सीधे अपनी फौज को गोलियां बरसाने का आदेश दे दिया. उस फायरिंग में हजारों लोगों ने अपनी जानें गवाईं. इस नरसंहार के बाद पूरे देश में आक्रोश देखने को मिला, वहीं इस बीच एक शख्स ऐसा भी था, जिसका न सिर्फ खून खौल रहा था बल्कि उसके अंदर इसका बदला लेने का जुनून भी उफान पर था. यह शख्स कोई और नहीं बल्कि उधम सिंह थे.

उधम ने सबक सिखाने की ठानी

दैनिक भास्कर की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जलियांवाला बाग नरसंहार के बाद उधम सिंह ने जनरल रेजिनॉल्ड डायर और तत्कालीन पंजाब के गर्वनर माइकल ओ ड्वायर ( जिसने कदम कदम पर इस नरसंहार को उचित ठहराया) को सबक सिखाने की ठान ली. इसके बाद वो क्रांतिकारियों के साथ शामिल हो गए.

जलियांवाला बाग में हुए हत्याकांड का बदला लेने के लिए उधम सिंह को पूरे 21 साल तक सही मौके का इंतजार करना पड़ा. इस बीच उधम सिंह ने खुद को परिपक्व करने का काम किया. उधम सिंह, जनरल रेजिनॉल्ड डायर और माइकल ओ ड्वायर को मौत की नींद सुलाना चाहते थे लेकिन रेजिनॉल्ड डायर तक पहुंचने से पहले ही बीमारी से उसकी मौत हो गई थी. ऐसे में उधम सिंह ने अपना पूरा ध्यान माइकल ओ ड्वायर पर लगाया.

उधम सिंह ने लंदन की बैठक में चलाई गोली

13 मार्च 1940 को लंदन के कैक्सटन हॉल में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की एक बैठक चल रही थी. इस बैठक में ही माइकल ओ ड्वायर को मौत की नींद सुलाने का इरादे से उधम सिंह भी पहुंचे थे. उधम सिंह ने बड़ी चालाकी से किताब के अंदर के पेजों को पिस्तौल के रूप में काटकर उसमें अपनी बंदूक छिपाई थी. जब बैठक खत्म हुई तो लोग अपनी अपनी जगह पर खड़े होकर जाने की तैयारी करने लगे, इस बीच उधम सिंह पहुंचे माइकल ओ ड्वायर के पास और बिना कुछ कहे सीधे उनके दिल पर निशाना लेकर गोली चला दी.

अभी माइकल ओ ड्वायर पूरी तरह से धराशायी भी नहीं हुए थे कि बदले की आग में सुलग रहे उधम सिंह ने दूसरी गोली भी चला दी. उधम सिंह यहीं नहीं रुके और इसके बाद उन्होंने मंच पर खड़े हुए सेक्रेटरी ऑफ स्टेट ऑफ इंडिया रहे लॉर्ड जेटलैंड, बंबई के पूर्व गवर्नर लॉर्ड लैमिंग्टन और पंजाब के पूर्व लेफ्टिनेंट गवर्नर सर सुई डेन को भी गोली मारी. उधम सिंह ने उस दिन चार लोगों पर उस हॉल में गोली चलाई, जिसमें मौत सिर्फ माइकल ओ ड्वायर की हुई.

नहीं भागे उधम सिंह

बदला लेने की प्रतिज्ञा पूरी करने के बाद उधम सिंह ने वहां से भागने की कोशिश नहीं की बल्कि वहीं खड़े हो गए, जिसके बाद उनकी गिरफ्तारी हुई और उन पर मुकदमा चला. 4 जून, 1940 को उधम सिंह को हत्या का दोषी ठहराया गया और 31 जुलाई, 1940 को उन्हें पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई. जो काम सरदार उधम सिंह ने किया, उसकी तारीफ पूरे भारत में की गई, वहीं उधम सिंह को शहीद-ए-आजम की उपाधि दी गई.

सरदार पटेल और भारत की एकता

सरदार उधम की कहानी के केंद्र में भले ही जलियांवाला बाग नरसंहार के बदले की कहानी हो, मगर यह सिर्फ़ बदले की कहानी नहीं है. सरदार उधम उस दौर की युवा पीढ़ी की छटपटाहट को सामने लाती है, जो ब्रिटिश हुकूमत के ज़ुल्मों-सितम और अपने ही देश में आज़ादी से सांस ना ले पाने की पीड़ा से उपजी थी. यह फिल्म देश की आज़ादी के लिए लड़ने वाले सरदार भगत सिंह जैसे आंदोलनकारियों की विचारधारा को समझने और समझाने की एक बेहतरीन कोशिश है.

फ़िल्म सरदार उधम सिंह की शख्सियत के साथ-साथ आज़ादी की लड़ाई के प्रति उनके नज़रिए से भी परिचित करवाती है. उधम सिंह का मक़सद सिर्फ़ बदला लेना नहीं था. अगर ऐसा होता तो लंदन में पंजाब के पूर्व गवर्नर माइकल ओ डायर के घर में काम करते हुए, उसके साथ शिकार पर जाते हुए कई मौक़े ऐसे आये, जब वो डायर को मारकर जलियांवाला बाग का बदला ले सकते थे, मगर डायर के घर पर उसे मारना सिर्फ़ एक ‘मर्डर’ होता ‘प्रोटेस्ट’ नहीं.

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यहां मक़सद था, अपनी आवाज़ दुनिया के दूसरे मुल्कों तक पहुंचाना, ताकि ब्रिटिश सरकार के साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ एक अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाया जा सके. ब्रिटिश हुकूमत तक यह संदेश पहुंचाना कि हिंदुस्तानी अपने दुश्मनों को नहीं भूलते, 20 साल बाद भी उन्हें ट्रैक करके ख़त्म कर देते हैं, जैसा कि सरदार उधम के पकड़े जाने के बाद वहां की मीडिया में रिपोर्ट होता है. सरदार उधम, भारतीय स्वतंत्रता की लड़ाई के साथ उस दौर की अंतरराष्ट्रीय घटनाओं के असर का भी एक व्यापक चित्रण हैं.

अलग रंग में दिखे विक्की

‘मसान’, ‘संजू’, ‘उरी’ के बाद विक्‍की कौशल यहां एक बार फिर अलग रंग में रंगे नजर आते हैं. अनाथ उधम सिंह से लेकर ऊंचे स्‍तर के क्रांतिकारी युवक में उनकी तब्‍दीली के हर पक्ष, चाहे वो शारीरिक हो या फिर मानसिक, को विक्की ने बखूबी परदे पर जीवंत किया है.

फिल्म में अमोल पाराशर ने भगत सिंह का वह पक्ष रखा है, जो भगत सिंह की चिरपरिचित छवि की तुलना में अनकहा, अनसुना है. बनिता संधू ने अपने स्‍क्रीन स्‍पेस के लिहाज से काम किया है. अंग्रेज असफरों की कास्टिंग भी अच्‍छी है.

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