प्रलय की ओर उन्मुख सभ्यता
अंधाधुंध औद्योगीकरण और शहरीकरण आत्मघाती
राम दत्त त्रिपाठी, वरिष्ठ पत्रकार
बीमारियाँ पैदा करने वाले चौतरफ़ा भयावह प्रदूषण पर यह विशेष लेख तीस वर्ष पूर्व दैनिक अमृत प्रभात में प्रकाशित हुआ था। l यह लेख आज भी पढ़ने लायक़ है। पाठकों की सुविधा के लिए सुभाष भट्ट ने इसे फिर से टाइप कर दिया है। कृपया फाँट में बदल के कारण टाइपिंग त्रुटियों के लिए क्षमा करें।
आयुर्वेद की आधारभूत पुस्तक चरक संहिता में एक अध्याय है जनपदोडध्वंसनीय विमान अर्थात ऐसी बीमारी जिसमें देश के देश उजड़ जाते हैं। यह बीमारी पर्यावरण प्रदूषण से उत्पन्न बतायी गयी है और उसका कारण भी बताया है भष्ट सत्ता तथा पूंजी की सांठ-गांठ। संयोग से महर्षि आत्रेय . ने अपने शिष्य अग्निवेश को यह अध्याय उत्तर प्रदेश के ही फर्रुखाबाद जिले में गंगा किनारे स्थित वनों में घूमते हुए पढ़ाया था। अग्निवेश का प्रश्न था कि अलग-अलग स्वभाव, खान-पान और आचरण के लोगों को एक साथ एक ही जैसी बीमारी क्यों हो रही है।
महर्षि आत्रेय ने शिष्य अग्निवेश को जो उत्तर दिया उसका मर्म समझने के लिए हमें संक्षिप्त विषयातंर, सृष्टि रचना और मनुष्य की उत्पत्ति का कम समझना अनिवार्य है।श्रीमदभागवतगीता के अध्याय सात श्लोक चार में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को मानव की प्रकृति इस प्रकार बतायी है –
भूमिरापोडनलो वायु: खं मनो बुद्दिरेवच।
अहंकार इतीयं में भिन्ना प्रकृतिरश्टधा।।
अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश (इन पांच महाभूतों से निर्मित शरीर) और मन, बुद्दि तथा अहंकार मानव प्रकृति के यह कुल आठ तत्व हैं।इस तरह इनमें से पहले पांच तत्व सभी मनुष्यों में समान और बाद के तीन भिन्न-भिन्न समझे जा सकते हैं।सृष्टि रचना का भेद उपनिषदों और पुराणों में विस्तार से कहा गया है।मत्स्यपुराण में कहा है कि प्रलय के बाद सबसे पहले जल की रचना हुई। उसमें बीज डाला गया जो एक हजार वर्ष बीतने पर सुवर्ण एवं रजतमय अंडे के रुप में परिणत हो गया। उस अंडे के भीतर से सर्वप्रथम सूर्य उत्पन्न हुए। यह सूर्य ही ब्रह्रमा कहलाये। उन्होंने अंडे को दो भागों में बांटकर स्वर्गलोक और भूतल की रचना की। उन दोनों लोकों के बीच में सम्पूर्ण दिशाओं और आकाश का निर्माण किया। उसी अंडे के जरायु भाग से सातों पर्वत प्रकट हुए, जो गर्भाशय था वह मेघमंडल के रुप में परिणत हुआ तथा उसी अंडे से नदियां, पितृगण और मनु समुदाय उत्पन्न हुए। इस अंडे के अंत: स्थित जल से सातों समुद्र उत्पन्न हुए। इसके बाद ब्रह्मा के नौ पुत्र एक पुत्री मन, बुद्दि, अहंकार, कर्मेन्दियां और दसों इंद्रियों की उत्पत्ति हुई। ऐसी मान्यता है कि आज जो युग चल रहा है वह मन्वंतर अर्थात प्रलय के बाद मनु की सृष्टि ही है।
भारतीय वेदों, उपनिषदों, महाकालों में यह बात भिन्न-भिन्न रुपों में प्रतिपादित की गयी है। यह हरस्य हर औसत हिन्दुस्तानी की जबान पर रहता है। तुलसी के शब्दों में “क्षिति, जल पावक, गगन, समीरा। पंच रचित यह अधम शरीरा।”प्रश्नोपनिषद़ में भार्गव ऋषि के प्रश्न का उत्तर देते हुए महर्षि पिहलाद ने बताया कि “सबका आधार तो वैसे आकाशरुप देवता ही है, परंतु उससे उत्पन्न होने वाले वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी ये चारों महाभूत भी शरीर को धारण देवता हैं।” सबसे पहले अम्भ, मरीचि, मर और जल इन लोकों की रचना हुई। फिर जल से ही हिरण्यगर्भरुप पुरुष को निकालकर उस मूर्तिमान बनाया गया और जल आदि पांच महाभूतों को तपाकर अन्न पैदा किया गया।
तैत्तरीयेपनिशद ने जरा भिन्न प्रक्रिया बतायी है। इस मत के अनुसार सबसे पहले आकाश तत्व उत्पन्न हुआ। आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी। पृथ्वी से औषधियां, उनसे अन्न और तत्पश्चात पुरुष। पृथिव्या ओशधय:। ओशधीम्योडत्रम। अन्नात्पुरुश:।।”
मुण्डकोपनिषद सबसे पहले अग्नि तत्व की उत्पत्ति मानता है- तस्मादग्नि:। उससे चंद्रमा, चंद्रमा से मेघ, उनकी वर्षा से पृथ्वी में नाना प्रकार की औषधियां उत्पन्न हुई। उन औषधियों के भक्षण से उत्पन्न हुए वीर्य को जब पुरुष अपनी जाति की स्त्री में सिंचन करता है, तब उससे संतान उत्पन्न होती है। इस उपनिषद के अनुसार इन्हीं परम तत्व से समस्त समुद्र उत्पन्न हुए तथा इन्हीं से निकलकर अनेक आकार वाली नदियां बह रही हैं।विराट पुरुश (ईश्वर) और प्रकृति की एकात्मता बताये हुए महाभारत के मोक्षधर्म पर्व में कहा है- “समुद्रास्तस्य रुधिरम” अर्थात समुद्र उस परमेश्वर का रक्त है और “निम्नगा: शिरा:” अर्थात नदियां रक्तशिराएं।
ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे ये प्राचीन धर्मग्रन्थ अलग-अलग वैज्ञानिक स्कूलों के शोध प्रबंध हैं। यह वैज्ञानिक ज्ञान जन-जन तक सरल और बोधगम्य भाषा में पहुंचे, इसलिए उन्हें कथानक का रुप दे दिया गया। यह लोक संग्रह की अदभुत क्षमता और परिपक्व कला है कि हर औसत निरक्षर भारतीय भी इन मौलिक बातों को अच्छी तरह समझता है। बीसवीं सदी की संचार क्रांति के बावजूद यदि आज के वैज्ञानिक अपनी बात आम लोगों को नहीं समझा पाते हैं तो उन्हें आत्मनिरीक्षण करना चाहिए।
इस तरह इस सृष्ट का पर्यावरण के ये पांच महाभूत मुल आधार हैं। भारतीय धर्मग्रंथों ने जीवन के इन आधारभूत तत्वों को ही देवता की संज्ञा दी। इनका संतुलन बनाये रखना ही धर्म, पुष्य और ईश्वरीय नियम माना गया और उनमें बाधा डालना पाप। पाप यानि ऐसे कर्म जो समाज के लिए अहितकर हैं।अपने ईश्वर की व्याख्या करते हुए गांधी जी ने कहा, “हर एक प्राणी और प्रत्येक वस्तु पर शासन करने वाला एक अटल नियम है। और वह कोई अंधा नियम नहीं हैं, क्योंकि सजीव प्राणियों के आचरण को नियुक्ति करने वाला कोई नियम अंधा नहीं हो सकता। सब चेतन पदार्थों का शासन करने वाला यह नियम ही ईश्वर है।”
यह एक विडंबना है कि धर्म शब्द उपासना पद्धति का बोध कराने वाले सम्प्रदाय के अर्थ में रुढ़ होता गया, जबकि वास्तव में ऐसा है नहीं। आज जिन्हें हम कानून, नियम और अधिनियम कहते हैं समाज को संचालित करने वाले वही शाश्वत कानून पहले धर्म कहे जाते थे। धारणाद, धर्म इत्याद: अर्थात जिस नियम समाज को धारण करते हैं वह धर्म है। यतो अभ्युदयों नि:त्रेयस: सिद्दि: स धर्म: अर्थात जिस आचार-विचार और पदार्थ से सर्वत्र और सर्वदा अखंड आनंद की प्राप्ति हो वही धर्म है। धर्म के दस लक्षण माने गये हैं।
धृति: क्षमा दमाडसतेयं शौचमिन्द्रियनग्रह: । धीर विद्या सत्यमक्रोधोदशकम दर्ध लक्षणम।।
सम्प्रदाय निरपेक्षता के बजाय धर्म निरपेक्षता मानकर आधुनिक समाज सृष्टि के इन शाश्वत नियमों को नकार रहा है। और यही समस्याओं की जड़ है।
भारतीय सृष्टि विज्ञान की इस पृष्ठभूमि में ही महर्षि आत्रेय द्दारा अन्निवेश को दिया गया उत्तर समझा जा सकता है। ऋषि आत्रेय के अनुसार मनुष्यों के प्रवृत्ति स्वभाव आदि भिन्न होते हुए भी सब शरीरों में पाये जाने वाले समान भावों के गुण विकृत हो जाने से एक ही समय और एक लक्षण वाले रोग उत्पन्न होकर देश का नाश कर देते हैं। ये भाव हैं- “वायुरुदकं देश: काल इति” अर्थात वायु, जल, देश (पृथ्वी का क्षेत्र विशेष) और काल अर्थात ऋतु चक्र।
महर्षि आत्रेय ने पर्यावरण प्रदूषण की जिस स्थिति का वर्णन उस समय किया था, वही परिस्थिति आज पुन: उत्पन्न हो रही है। पंचाल क्षेत्र के जनपद मण्डल की कामिपल्य नामक राजधानी में अग्निवेश को संबोधित करते हुए। महर्षि आत्रेय ने कहा- दृश्यंते हि खलु सौम्य। नक्षश्र ग्रह चन्द्र सूर्यानिलानलानां दिशां च प्रकृति भूतानामृतु वैकारिका भावा: अचिरादतो भूरपि च न यथावद्रसवीर्य विपाक प्रभावमोशधीनां प्रतिविधास्यति———————-।”
अर्थात स्वाभाविक अवस्था में स्थित नक्षत्र, ग्रह, चन्द्र, सूर्य, वायु, अग्नि और दिशाओं के ऋतु में विकार करने वाले भाव उत्पन्न हो गये हैं। अब जल्दी ही पृथ्वी भी औषियों के इस वीर्यविपाक तथा प्रभाव पहले की तरह उत्पन्न नहीं करेगी और ऐसी स्थिति में रोग होना अवश्यंभावी है। अत: जनपद (देश) विनाश और भूमि के रस रहित होने से पूर्व औषधियों को उखाड.कर संग्रह कर लो, ताकि समय पर काम आयें।
मेरा यह अध्ययन मुख्यत: जल-प्रदूषण का मछली और मछुवारों पर दुष्प्रभाव का अध्ययन करने के लिए प्रारंभ हुआ था। किन्तु लखनऊ, उन्नाव, कानपुर, आगरा, मथुरा, बुलंदशरर, मेरठ, मुजफ्फरनगर, गाजियाबाद, मोदीनगर, नोयडा, बरेली, रामपुर, मुरादाबाद, शाहजहांपुर, पीलीभीत, खीरी, हरदोई, सीतापुर, बाराबंकी आदि जिलों में प्रदूषित नदियों के किनारे बसे दर्जनों नगरों और हजारों गांवों में तरह-तरह की बीमारियों और कष्टों से सारा जनसमुदाय पीड़ित है। प्रदूषण से मछली और मछवारे तो संकटग्रस्त हुए ही तमाम अन्य जीव जन्तु और इन इलाकों के पशु-पक्षी तथा मानवीय आबादी भी भयंकर कष्ट भोग रही है।
इन समस्याओं के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और विधानसभा तथा विधान परिषद में भी उठाया गया, पर शासक वर्ग का खेल यथावत़ जारी है। समस्या की इस विकरलता ही इस विषय को विस्तार देकर इस हद तक ले गयी कि उसमें विषयांतर का दोष भी देखा जा सकता है।
प्रारंभ में यह अध्ययन केवल जल प्रदूषण तक सीमित था, किन्तु ज्यों-ज्यों खोज आगे बड़ी, यह भ्रम टूटता गया कि जल प्रदूषण एक अलग अथवा विशिष्ट समस्या है। दरअसल जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, वायु प्रदूषण, पृथ्वी प्रदूषण, सूर्य और चंद्र प्रदूषण, वनस्पति तथा अन्य प्रदूषण, यह सब एक दूसरे से उसी तरह जुड़े हैं। जैसे सृष्टि की रचना में आकाश, अध्ययन अवैज्ञानिक होगा, क्योंकि ये महाभूत रुप परिवर्तित करके एक दूसरे में मिलते रहते हैं। एकांगी और अवैज्ञानिक सोच का ही नतीजा है कि आज के वैज्ञानिक उद्योगों का प्रदूषण दूर करने के लिए जो बायोगैस आधारित संयत्र लगवाते हैं, या वायु प्रदूषण रोकने के नाम पर चिमनियों को ऊंचा उठवाते हैं, आकाश में गैस और धुंए के रुप में पहुंचा यह प्रदूषण एक ओर सूर्य किरणों का मार्ग अवरुद्ध कर जल, वायु और पृथ्वी के प्रदूषण की प्राकृतिक प्रक्रिया में बांधा उत्पन्न करता है, दूसरी ओर वर्षा के समय वही प्रदूषण एक साथ आकर जलचर, मछलियों और मनुष्यों तथा अन्न और वनस्पतियों को पहले से भी अधिक क्षति पहुंचाता है।
आज की स्थिति कितनी भयावह है यह बताने के लिए दो उदाहरण पर्याप्त है।दि इंडियन जर्नल आफ पब्लिक ऐडमिनिस्ट्रेशन (जनवरी, मार्च 1984 अंक) में ओ0 पी0 द्दिवेदी, बी0एन0 तिवारी और आर0 एन0 त्रिपाठी के संयुक्त लेख में कहा गया है-
“The 20th Century race of so called advancement in science and technology, industrilization and urbanization, means of transportation, civic amenities and esploitation of natural resources did not leave India unaffected. —— Currently, the nation’s air, water and land is not only overused but is also degraded due to dust, smoke, sewage, silages, industrial discharges and city refuse. The chemical and physical contamination of water, air and soil has contributed problems of health hazards. We have been constantly polluting the atmosphere, river waters and cutting the forests which has resulted in the present crisis of the environment.
इन तीन विद्दानों का कहना है कि भारत विज्ञान और तकनीकी , औदयोगीकरण, शहरीकरण, यातायात के साधन, नागरिक सुविधाओं और प्राकृतिक स्रोतों के दोहन की 20 वी. सदी की तथाकथित प्रगति दौड़ से अछूता नहीं रहा। ——————– आज देश की वायु, धुंवा, सीवेज, सलेज, औद्योगिक दुष्प्रवाह और शहर के कूड़ा-कचरा से वह विकृत भी हो गये हैं। जल, वायु तथा पृथ्वी के भौतिक एवं रासायनिक प्रदूषण से स्वास्थ्य के लिए खतरे की समस्याएं उत्पन्न हो गयी है। हम अंतरिक्ष और नदी जल को निरंतर प्रदूषित कर रहे हैं, जिसकी परिणति वर्तमान पर्यावरण संकट के रुप में हुई है।इन विद्दानों ने आज देश में पर्यावरण संकट की जो स्थिति बतायी है उससे ऐसा ही लगता है मानो “जनपदोडध्वंस” अर्थात देश के उजड़ जाने का खतरा सन्निकट आता जा रहा है।
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