अखिलेश यादव ने मैनपुरी की करहल सीट ही क्यों चुनी?

करहल सुरक्षित समाजवादी गढ़ भी है और अखिलेश की पारिवारिक सीट भी नहीं

अखिलेश यादव का मैनपुरी की करहल सीट से विधानसभा चुनाव में उतरने का फैसला एक सोची समझी रणनीति के तहत किया गया है। इस एक ही दांव से अखिलेश ने विरोधियों का मुंह हर तरह से बंद कर दिया है। मैनपुरी की करहल सीट अखिलेश के लिये न केवल सुरक्षित सीट मानी जा रही है बल्कि इसका चुनाव करने पर उन पर न तो परिवारवाद का आरोप लगाया जा सकता है और न ही इस बात का कि वे चुनाव में नहीं उतरे। आइये, उनके इस फैसले को और गहराई से समझने की कोशिश करते हैं…

सुषमाश्री

जब से उत्तर प्रदेश की सियासी हलचल के बीच समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव के विधानसभा चुनाव लड़ने की बात चल रही थी, तभी से अटकलें लगायी जा रही थीं कि वे कहां से चुनाव लड़ेंगे। गुरुवार शाम समाजवादी पार्टी की ओर से अखिलेश यादव के करहल से चुनाव लड़ने की पुष्टि कर दी गई, जिसके बाद अब इसके कारणों पर मंथन जारी है। बता दें कि इससे पहले चर्चा थी कि अखिलेश आजमगढ़ जिले की गोपालपुर सीट से चुनाव मैदान में उतर सकते हैं।

इससे पहले आजमगढ़ से सांसद अखिलेश ने बुधवार सुबह प्रेस कांफ्रेंस के दौरान मीडिया से कहा था कि वे अपने संसदीय क्षेत्र की जनता से पूछकर यूपी विधानसभा चुनाव लड़ने का फैसला करेंगे।

प्रेस कांफ्रेंस के बाद समाजवादी पार्टी के जिला संगठन ने लखनऊ जाकर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव से मुलाकात की और लिखित रूप से उन्हें एक प्रस्ताव सौंपा, जिसमें करहल से विधानसभा चुनाव लड़ने का अनुरोध किया गया था। इस दौरान करहल से सपा विधायक सोबरन सिंह और एमएलसी अरविंद प्रताप सिंह भी साथ थे। सपा जिलाध्यक्ष देवेंद्र सिंह यादव के अनुसार अखिलेश ने भरोसा दिलाया था कि वह कार्यकर्ताओं की बात का सम्मान करेंगे।

इस दौरान सपा जिलाध्यक्ष के नेतृत्व में मिले प्रतिनिधि मंडल ने राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव को याद दिलाया कि मैनपुरी सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव की कर्मभूमि है। मुलायम सिंह यादव का मैनपुरी से लगाव भी है। पहली बार मैनपुरी से ही जीतकर मुलायम सिंह यादव देश के रक्षा मंत्री तक बने।

उन्होंने कहा कि इस बार विधानसभा चुनाव में जब राष्ट्रीय अध्यक्ष विधायक पद के लिए चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुके हैं तो मैनपुरी की करहल विधानसभा सीट से ही चुनाव लड़ें, जिससे पार्टी कार्यकर्ताओं की भावनाओं को बल मिल सके। जिले के कार्यकर्ताओं की भी यही मांग है। इस संबंध में पार्टी प्रस्ताव भी पारित कर चुकी है।

इसके बाद सपा जिलाध्यक्ष देवेंद्र सिंह यादव ने बताया कि राष्ट्रीय अध्यक्ष ने प्रतिनिधि मंडल की बात गंभीरता से सुनने के बाद कहा कि कार्यकर्ताओं की भावनाओं की कद्र की जाएगी और शाम तक करहल विधानसभा से चुनाव लड़ने के प्रस्ताव पर अपनी हामी दे दी।

ये तो थी, समाजवादी पार्टी की ओर से अखिलेश यादव ने करहल से चुनाव लड़ने का निर्णय करने के पीछे की कहानी। हालांकि, विपक्ष और यूपी की राजनीति को करीब से जानने वाले अखिलेश के आजमगढ़ के बजाय मैनपुरी से चुनाव लड़ने के निर्णय के पीछे कारण कुछ और ही बताते हैं।

बीबीसी के वरिष्ठ पत्रकार और यूपी की राजनीति पर पकड़ रखने वाले राजनीतिक विश्लेषक रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं, करहल सैफई से सटा इलाक़ा है और मुलायम सिंह यादव वहाँ पढ़ते थे। एक तरह से वह भी इनका गृह क्षेत्र है। लगता है परंपरागत सैफ़ई सीट से शिवपाल लड़ेंगे, इसलिए अखिलेश बग़ल की सीट से लड़ेंगे।

आइये, अखिलेश के ​इस निर्णय के पीछे की वजहों को और भी करीब से टटोलने की कोशिश करते हैं…

बता दें कि करहल को हमेशा से ही समाजवादी पार्टी का गढ़ माना जाता रहा है। इसलिये यह अखिलेश के लिये यकीनन एक सुरक्षित सीट होगी। वहीं, इस पर सपा परिवार चुनाव नहीं लड़ती रही है इसलिये यहां से चुनाव लड़ने पर कोई उन पर परिवारवाद का आरोप भी नहीं लगा सकेगा। ये सारी बातें सोच समझकर ही अखिलेश ने इस सीट का चुनाव किया होगा।

समाजवादी पार्टी ने अपने गठन के बाद से सात में से छह बार करहल की यह सीट जीती है, लेकिन इससे पहले भी इस सीट पर जनता पार्टी, लोक दल और भारतीय क्रांति दल जैसे सपा के अग्रदूत मानी जाने वाली पार्टियों का ही दबदबा रहा है।

यादव परिवार नहीं करता प्रतिनिधित्व

साल 1951 में उत्तर प्रदेश के पहले विधानसभा चुनाव में करहल पश्चिम सीट किसान मजदूर प्रजा पार्टी और 1957 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने जीती थी, लेकिन करहल ऐसी सीट नहीं है, जिसका प्रतिनिधित्व यादव परिवार करता हो।

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मैनपुरी जिले की करहल विधानसभा सीट से चुनाव लड़ सकते हैं अखिलेश यादव

परिवार का घरेलू मैदान इटावा जिले की जसवंतनगर सीट है, जिसका प्रतिनिधित्व वर्तमान में अखिलेश के चाचा शिवपाल सिंह यादव कर रहे हैं। शिवपाल ने 1996 से जसवंतनगर में पांच बार इस सीट का प्रतिनिधित्व किया है।

वहीं, सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव ने 1967 से 1993 तक जसवंतनगर का प्रतिनिधित्व किया था। वे 1980 की कांग्रेस लहर के दौरान सिर्फ एक बार हार गए थे। उन्होंने अतीत में गुन्नौर और भरथना का भी प्रतिनिधित्व किया था। इस बार जसवंतनगर सीट शिवपाल की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) को आवंटित की गई है, और संभावना है कि शिवपाल या उनके बेटे इस सीट से चुनाव लड़ेंगे।

एक तरह से, अखिलेश का करहल को चुनना उनके राजनीतिक संदेश का प्रतीक है। यह खुद को एक समाजवादी नेता के रूप में पेश करने के उनके प्रयासों को दर्शाता है। खुद उनके ट्विटर पर भी उनका यही परिचय लिखा है, ‘भारत का समाजवादी नेता’।

इसलिए इसे ऐसे लिया जाना चाहिये कि अखिलेश ने एक पुराने समाजवादी कनेक्शन वाली सीट को चुना, हालांकि यह ऐसी सीट नहीं, जो पहले उनके पिता या चाचा के पास रही हो।

आइये, अब जानने की कोशिश करते हैं कि अखिलेश ने आजमगढ़ जिले की विधानसभा सीट क्यों नहीं चुनी?

हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि अखिलेश आजमगढ़ जिले के गोपालपुर विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने की बात पर कितनी गंभीरता से विचार कर रहे थे, फिर भी अनुमान लगाया जाता है कि चूंकि वह आजमगढ़ के सांसद हैं, शायद इसलिए इसी जिले की किसी एक सीट से चुनाव में खड़े होने पर विचार किया गया होगा।

संभावना यह भी है कि इस पर लोगों की प्रतिक्रिया का आकलन करने के लिए यह अफवाह उड़ाई गई हो।

हालाँकि, अगर अखिलेश ने आजमगढ़ से गोपालपुर सीट चुनी होती तो इसे पार्टी के पारंपरिक MY या मुस्लिम-यादव संयोजन को मजबूत करने के प्रयास के रूप में देखा जाता। उदाहरण के लिए, गोपालपुर में, मुस्लिम और यादव दोनों मिलकर आबादी का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा हैं।

जब अखिलेश के गोपालपुर से चुनाव लड़ने की अटकलें लगाई जा रही थीं, तो सोशल मीडिया पर भाजपा समर्थकों ने “मुस्लिम बहुल सीट” चुनने को लेकर उनकी आलोचना शुरू कर दी थी। यही नहीं, बीजेपी ने तो अखिलेश के इस निर्णय की तुलना केरल के वायनाड से चुनाव लड़ने के कांग्रेस नेता राहुल गांधी के फैसले से करनी शुरू कर दी थी।

गोपालपुर के विपरीत करहल में मुस्लिम आबादी महज 6 फीसदी है। इसलिए, अखिलेश ने इन आलोचनाओं को धत्ता साबित करने के लिये यह निर्णय लिया होगा। वहीं, करहल में यादव वोटर्स पर अखिलेश की उम्मीदें टिकी रहेंगी। वैसे यादव के अलावा यहां अन्य जातियां भी हैं, जिनमें सबसे ज्यादा शाक्य समुदाय से हैं। माना जा रहा है कि यादव जाति के बंधन से बाहर निकलकर अखिलेश इस बार अन्य पिछड़ी जातियों के बीच भी अपनी पहुंच बनाने के लिये इसे एक मौके के तौर पर देख रहे हैं।

खासकर तब, जबकि स्वामी प्रसाद मौर्य, जो कि खुद मौर्य यानी शाक्य जाति का प्रतिनिधित्व करते हैं, आज उनकी पार्टी के साथ गठबंधन में हैं।

इसका प्रभाव क्या हो सकता है?

पिछली बार उत्तर प्रदेश के निचले दोआब क्षेत्र में सपा ने यादव बहुल बेल्ट होने के बावजूद वहां खराब प्रदर्शन किया था। इस बेल्ट के अंतर्गत मैनपुरी, एटा, फिरोजाबाद, इटावा, फर्रुखाबाद, कन्नौज और औरैया जैसे जिले आते हैं, जहां भाजपा ने कुल 20 सीटें जीती थीं, जबकि सपा को केवल 6 सीटें ही मिल पायी थीं।

इन छह सीटों में से तीन अकेले मैनपुरी के अंतर्गत आती हैं, जो इस क्षेत्र का एकमात्र ऐसा जिला है, जहां सपा को भाजपा से ज्यादा सीटें मिलीं।

ऐसे में कहा जा रहा है कि अगर अखिलेश बीजेपी को हराना चाहते हैं तो जरूरी है कि वे इस पिछले चुनाव परिणामों को पूरी तरह से उलट दें। सपा का अनुमान शायद यही है कि अखिलेश के करहल से चुनाव लड़ने का असर पड़ोसी सीटों और जिलों पर भी पड़ेगा।

क्या अखिलेश ने खुद को सुरक्षित रखने के लिये यह सीट चुनी?

अगर इस सवाल का पूरी तटस्थता से भी जवाब दिया जाये तो इसका जवाब हां में ही होगा। दरअसल, करहल उनके लिये सुरक्षित सीट ही कही जायेगी। इसे चुनकर उन्होंने वही दिखाया है, जो बीजेपी ने योगी आदित्यनाथ को उनके गृहनगर गोरखपुर शहर सीट से मैदान में उतारकर दिखाने का प्रयास किया है।

अखिलेश ने चुनाव में उतरकर बीजेपी की चुनौती भी स्वीकार ली है, लेकिन खुद को सुरक्षित रखने का प्रयास भी किया है। वे पूर्वी यूपी या ऐसी किसी भी सीट से चुनाव लड़ने को तैयार नहीं हुये हैं, जो उनके लिये जोखिम भरा हो सकता था।

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