यूपी में संपन्न हुए पंचायत चुनाव लेकिन इसे सरकार की लोकप्रियता का पैमाना नहीं कह सकते

यशोदा श्रीवास्तव

यशोदा श्रीवास्तव
यशोदा श्रीवास्तव

यूपी में जिला पंचायतों के 75 सीटों में से 68 पर हुई जीत को भाजपा ने  योगी सरकार की लोकप्रियता का पैमाना बताया है और ब्लाकप्रमुखो के पद पर भाजपा की ऐसी बम बम हुई कि प्रधानमंत्री मोदी भी अपने को नहीं रोक पाए,उन्हें कहना पड़ा कि यह योगी सरकार की नीतियों की जीत है। इधर 825 ब्लाक प्रमुखों में से 648 पर भाजपा की जीत से उत्साहित मुख्यमंत्री योगी ने कहा कि यह लोकतंत्र के सबसे बड़े चुनाव में सबसे बड़ी जीत है। ब्लाक प्रमुखों के चुनाव परिणाम से गद गद यूपी में भाजपा के एक से एक कद्दावर नेता दावा करने लगे हैं कि यूपी विधानसभा में अबकी 350 पार। 

मेरा मानना है कि जिलापंचायत का अध्यक्ष पद हो या ब्लाक प्रमुख का,यह आमतौर पर उसी के खाते में जाता है जिसकी सत्ता होती है।याद आ रहा कि यूपी में इन पदों पर येनकेन प्रकारेण कब्जा करने की शुरुआत 1991 में सपा बसपा की गठबंधन सरकार में हुई। तब करीब 15 वर्ष तक सस्पेंड इस संस्था को पुनर्जीवित कर अपने लोगों को मनोनीत किया गया था। सपा बसपा के धुरंधर बिना हर्रे फिटकरी के इस कुर्सी तक पंहुच गए थे। और देखा जाय तो तभी से ही जिलापंचायतों में आए विकास के धन की बंदरबांट की शुरुआत भी हुई। उसके बाद इस कुर्सी तक जिला पंचायत सदस्यों के जरिए चुनकर आना शुरू हुआ और इसके लिए अध्यक्ष के उम्मीदवार को भी जिलापंचायत सदस्य होना अनिवार्य किया गया। बताने की जरूरत नहीं कि पब्लिक से चुने गए, कितने जिलापंचायत सदस्य भाजपा की नीतियों के सहारे जीत सके? फिर भी 75 में से 68 जिलापंचायतों पर भाजपा का कब्जा हो गया?

ऐसे ही ब्लाकप्रमुखों के निर्वाचन में परिवर्तन हुआ। 1989 के पहले तक इस चुनाव में ग्राम प्रधान वोटर होता था और ब्लाक प्रमुख होने के लिए पंचायत के किसी अंग का सदस्य होना भी अनिवार्य नहीं था। लेकिन उसके बाद बीडीसी यानी क्षेत्रपंचायत सदस्य का गठन हुआ और यही ब्लाकप्रमुखों को चुनने लगे।ब्लाक प्रमुख होने के लिए क्षेत्रपंचायत सदस्य होना अनिवार्य किया गया। कहना न होगा कि ब्लाक प्रमुख बनने के लिए क्षेत्रपंचायत सदस्य का चुनाव लड़े भाजपा के  एक से एक धुरंधर चुनाव हार गए। फिर भी 825 में से 648 पर कब्जा कर भाजपा अपनी पीठ थपथपा रही है।

हैरत है कि 8 जुलाई को जब ब्लाक प्रमुख के लिए पर्चा खरीदने की शुरुआत हुई तब से लेकर ब्लाक प्रमुख के चुनाव के दिन यानि दस जुलाई तक यूपी के हर क्षेत्र में इस पद की डाका में कोई कसर नहीं छोड़ा गया। तमाम जगह विपक्षी दल को पर्चा खरीदने से रोका गया,पर्चा दाखिल करने से रोका गया और तो और मतदान के दिन विपक्षी दलों के उम्मीदवारों को उनके बीडीसी वोटर को वोट डालने से भी रोका गया। इस सारे कवायद में स्थानीय प्रशासन सत्ता पक्ष के साथ पूरी भक्तिपूर्ण भाव से खड़ा रहा। ब्लाक प्रमुख पद की भारी जीत से गद गद यूपी के सीएम योगी और पीएम मोदी जब एक दूसरे को बधाई दे रहे थे तब  कम से कम खीरीलखीमपुर की घटना का स्मरण कर लिए होते जहां ब्लाक प्रमुख पद की एक महिला प्रत्याशी नामांकन ही न दाखिल कर पाए,उसपर ऐसा झपट्टा मारा गया कि बेचारी अर्धनग्न होकर गिर पड़ी।कहना न होगा कि मतदान से या निर्दल जहां जहां भाजपा ब्लाक प्रमुख का पद जीत पाई है, उसमें एक पर भी फेयर इलेक्शन नहीं हुआ।फिर भी यूपी सरकार यदि इसे ही अपनी लोकप्रियता का पैमाना है तो निस्संदेह अबकी 350 पार?

हैरत है कि यूपी में यह पहली भाजपा सरकार है जो सिर्फ सत्ता के तिकड़म मे व्यस्त है। समझ में नही आता कि जनता पर हर रोज पड़ रही कमरतोड़ मंहगाई की मार से निजात पर कौन सोचे?

गांव गरीब होते जा रहे हैं, गंवई बेरोजगारी चरम पर है।ग्रामीण बाजार ध्वस्त हो चुके हैं। सरकार गांव के गरीबों को कुछ जून भर का मुफ्त राशन मुहैया कराकर उनकी भूख मिटाने को भी अपनी कामयाबी मान रही है,लेकिन यदि पिछली सरकार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून न लागू की होती तो यह सरकार क्या गरीबों की भूख मिटा पाती। आज गांव में रोजगार का माध्यम वही मनरेगा है जिसे भाजपा ने अपने पहले कार्यकाल में कांग्रेस की असफलता का स्मारक कहा था।

ब्लाक प्रमुख का चुनाव भी खत्म हो गया लेकिन हर बार की तरह इस बार भी यह सवाल छोड़ गया कि आखिर ब्लाकप्रमुखों के वोटर बीडीसी की उपयोगिता क्या है? यही कि मोलभाव कर ब्लाकप्रमुख चुन ले। आखिर त्रिस्तरीय पंचायत में बीडीसी का गठन करते वक्त इनके कर्तव्य और वित्तीय अधिकार पर ध्यान क्यों नहीं दिया गया?चुने तो ये गांव के वोटरों से जाते हैं लेकिन ग्राम प्रधान और बीडीसी में कभी कोई समन्वय नहीं देखा गया। बीडीसी की उपयोगिता और अधिकार पर यूपी के एक सांसद जगदंबिका पाल संसद ने पिछले सत्र में सवाल उठाकर इन्हे वित्तीय अधिकार देने की मांग की थी। फिलहाल सांसद का यह सवाल संसद के भीतर सवाल ही बनकर तैर रहा है।

गांधी जी के सपनो को साकार करने के लिए 1947 में पंचायत राज का सृजन हुआ और 15 अगस्त 1949 को ग्रामसभाओं का गठन हुआ। गांव के विकास की तमाम योजनाएं बनने लगी।सबकुछ ठीक ठाक चल रहा था। इसी बीच गांधी के ग्राम स्वराज के ढांचे में अमेरिकी दखल होना शुरू हुआ। सामुदायिक विकास की योजना के नाम पर 1951–52 में अमेरिका के ही इशारे पर विकास खंडो का गठन हुआ। जहां अफसर और तमाम कर्मचारियों की नियुक्ति की गई। कह सकते हैं कि आजादी के बाद गांव के विकास की रफ्तार तभी थम गई। गांव के विकास के नाम पर आ रहे भारी भरकम धनराशि गांवो के काम न आकर ब्लाक के अफसर और कर्मचारियों में बंटकर रह गए। गांव में आए विकास के पैसे को हड़पने का शोर शुरू हो गया था। ब्लाक पर बैठा बीडीओ व अन्य कर्मचारियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे थे। इसपर नकेल कैसे कसी जाय इसके लिए बलवंत राय मेहता की देखरेख में एक कमेटी का गठन हुआ। कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर ब्लाकों के अधिकारी और कर्मचारियों पर नकेल कसने के लिए 1960-61 में ब्लाक प्रमुख पद का सृजन किया गया। जिस मक्शद से ब्लाक प्रमुख पद का सृजन हुआ, वह बुरी तरह फेल हो गया, ब्लाकों में भ्रष्टाचार और बढ़ गया। देखा जाय तो त्रिस्तरीय पंचायत के सारे पद  भ्रष्टाचार की आकंठ में डूब गए। त्रिस्तरीय पंचायत की यह संस्था गांव के विकास के लिए ब्लाकों पर आ रहे करोड़ों करोड़ रूपये को अपना बनाने का माध्यम बनकर रह गया।

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